दुनिया बदल जाएगी, रहने लायक नहीं रहेगी ,मुल्कों के नक्शे बदल जाएंगे, अंतर्राष्ट्रीय सीमाएं ध्वस्त हो जाएंगी

2050 तक मानव सभ्यता नष्ट्र हो जाएगी : ग्लोबल वार्मिंग

दंतेवाड़ा । किरंदुल और बचेली के अधिकांश पहाड़ी नाले सुख गए है …जो बचे है उसका जलस्तर भी आधे से कम हो चुका है । उद्योग के लिए काटे गए लाखो पेड़ और हेवी ब्लास्टिंग इसके मुख्य कारण है । अब भी वक्त है संभल जाए वरण जल्द है भीषण जलसंकट के लिए खुद को तैयार कर लेवे । दंतेवाड़ा के पत्रकार साथी * बप्पी राय * की इस वीडियो में देखिए और महसूस कीजिये बस्तर के सूखे नदी – नालों का दर्द ।

जलवायु परिवर्तन पर जानना है तो अमिताभ घोष के ट्विटर हैंडल को फॉलो करें । जलवायु परिवर्तन में कई पाठकों की दिलचस्पी होती है मगर उन्हें पता नहीं होता कि नई-नई जानकारी के लिए कहां जाएं। हिन्दी दर्शकों और पाठकों को ख़राब अख़बारों और चैनलों से अब बजरंग बली ही बचा सकते हैं। वहां दिन भर आग धधकती रहती है। उनके भरोसे न बैठें। मेरी राय में आपको मशहूर लेखकर अभिताभ घोष के ट्विटर हैंडल @GhoshAmitav को फॉलो करना चाहिए। अमिताभ घोष के हैंडल पर जलवायु परिवर्तन से संबंधित ख़बरों का एक नेटवर्क दिखेगा जो आपको जानकारियों के नए-नए मोहल्लों तक ले जाएगा। हाल में इस विषय पर अमिताभ घोष ने एक किताब भी लिखी है जिसका नाम है The Great Derangement: Climante change and the Unthinkable.

आप जानते हैं कि भारत में तापमान 50 पार कर चुका है। 46 डिग्री सेल्सियस तापमान में जल रहे शहरों की संख्या भी बढ़ गई है। दुनिया के 15 सबसे गर्म शहर भारत और पाकिस्तान में हैं। कुछ दिनों बाद मानसून के स्वागत में हम तापमान को भूल जाएंगे लेकिन उसका कहर तब भी दिखेगा। कहीं बाढ़ के रूप में तो कहीं भू-स्खलन और सूखे के रूप में। मानसून के दौरान भी कई इलाके सूखे से त्रस्त मिलेंगे।

आज अमिताभ घोष ने आस्ट्रेलिया से आई एक रिपोर्ट को ट्वीट किया था। VICE डॉट COM की साइट पर जाकर देखा। इस रिपोर्ट के मुताबिक 2050 तक मानव सभ्यता की समाप्ति के आसार प्रबल नज़र आ रहे हैं। मेलबॉर्न में ब्रेकथ्रू नेशनल सेंटर फॉर क्लाइमेट रेस्टोरेशन नाम की एक अध्ययन संस्था है। जिसकी रिपोर्ट बता रही है कि सारा खेल मात्र 30 साल का रह गया है। अभी तक हम जलवायु ख़तरे के जिन रूपों की कल्पना करते हैं उससे भी भयंकर कुछ होने वाला है। यह दुनिया के तमाम मुल्कों के लिए सबसे बड़ा ख़तरा पैदा करने जा रहा है। इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है क्योंकि पिछले हज़ार वर्षों में इंसान ने ऐसा कुछ देखा ही नही है।

दुनिया बदल जाएगी। रहने लायक नहीं रहेगी। मुल्कों के नक्शे बदल जाएंगे। अंतर्राष्ट्रीय सीमाएं ध्वस्त हो जाएंगी। तीन डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ेगा और फिर क्या होगा कोई नहीं जानता है। एक अरब लोग विस्थापित हो जाएंगे। दो अरब लोगों को जल संकट का सामना करना पड़ेगा। खेती बर्बाद हो जाएगी। इससे निपटने के लिए हम सभी को द्वितीय विश्व युद्ध के समय की तरह व्यापक स्तर पर कुछ करना होगा।

अमिताभ घोष के हैंडल पर 22 मई 2019 की एक ख़बर है। न्यूयार्क टाइम्स में छपी है। शार्लोट ग्राहम मैक्ले की रिपोर्ट है। न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री जकिन्डा आर्डन ने एक महत्वपूर्ण फैसला लिया है। बजट का ज़ोर इस बात पर होगा कि लोग कितने खुश हैं। अर्थव्यवस्था के आंकलन को जी डी पी से आंकने की रवायत पर रोक लगने जा रही है। न्यूज़ीलैंड इस बात पर विचार कर रहा है कि क्या किसी देश की आर्थिक सफलता का बेहतर मूल्यांकन सिर्फ जीडीपी से ही किया जा सकता है। न्यूज़ीलैंड की सरकार घरेलु और यौन हिंसा के पीड़ितों के लिए 200 मिलियन डॉलर का बजट रखेगी। प्रधानमंत्री का कहना है कि यह उनके देश की सबसे शर्मनाक समस्या है। इसे दूर करने में निवेश करना ही होगा। भारत जहां जी डी पी जी डी पी कर रहा है वहां दूसरे इससे छुटकारा पाने की शुरूआत भी हो चुकी है। भूटान में भी ग्रास नेशनल हैपिनेस है। सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता। न कि उत्पाद।

यू ट्यूब पर मैंने भूटान के प्रधानमंत्री शेरिंग तोब्गे का टेड टॉक सुना। 2016 का है। आसान अंग्रेज़ी है। आप भी सुनिए। भूटान के प्रधानमंत्री ने शानदार तरीके से बताया है कि उनका देश जलवायु परिवर्तन को लेकर क्या कर रहा है। भूटान दुनिया का अकेला देश है जो कार्बन पैदा नहीं करता है। जितना करता है वो भी उसे वन क्षेत्र सोख लेते हैं। इस तरह वह कार्बन निगेटिव देश हो जाता है। भूटान के संविधान में है कि 70 प्रतिशत से अधिक इलाका जंगलों से भरा रहेगा। यह भूटान राष्ट्र का दायित्व है। इस मुल्क में कई जंगलों को बायो-कोरिडोर से जोड़ा गया है जिससे जानवरों के आने-जाने का मार्ग लंबा हो जाए। वहां कोई इन जंगलों को नहीं काट सकता है। इसके बाद भी भूटान जलवायु परिवर्तन की कीमत चुका है जबकि उसने इसके नुकसान के लिए कुछ भी नहीं किया है। भारत में जंगलों को काटने के कितने नियम बन जाते हैं, हमारा ध्यान जाता भी नहीं है। सरेआम रेत-माफ़िया नदियों का जीवन समाप्त कर रहा होता है, हम जानते हैं मगर उसे सामाजिक और राजनीतिक संरक्षण भी देते हैं।

हिन्दी का पाठक हिन्दी के खराब अख़बारों और चैनलों से निकले का श्रम करे। विकल्पों और चुनौतियों से भरी दुनिया वहां नहीं है। हिन्दी के चैनल आपको साल भर यूपी-बिहार में फंसा कर रखते हैं। चैनलों का सिस्टम ही ऐसा है कि एंकर बाध्य होता है कि वह यूपी-बिहार के टापिक में ही फंसा रहे। इस पर काफी लिख चुका हूं। आप खुद भी मेरी बात का परीक्षण करें। लोगों को जागरूक करें कि चैनलों को न देखें। शाम को लोगों से मिलें। किताबें पढ़ें। नई बातें सीखें और नई बातें लोगों को बताएं। न्यूज़ चैनल देखना बंद करें।

रविश कुमार

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