वन विभाग के आत्मघाती कदम से राज्य में वन क्षेत्रफल घट रहा, अपने ही नियमों की धज्जियां उड़ा रहा वन विभाग,,,,,,,, उच्च न्यायालय स्वतः संज्ञान (स्वमोटो) ले एक इतिहास रच दे – यही अपेक्षा है हमारी,

सुशील शर्मा

रायपुर। छत्तीसगढ़ सरकार के वन विभाग का इन दिनों इतना बुरा हाल है, जितना कभी नहीं था । यहां के भ्रष्टाचार के समाचार तो आए दिन उजागर होते ही रहते हैं, इसके अलावा भी वन विभाग स्वयं भी ऐसे ऐसे आत्मघाती कदम उठा रहा है, जिनसे निकट भविष्य में वनों की और दुर्दशा होने वाली है, जिसकी ओर ना तो मुख्यमंत्री का ध्यान है और ना केंद्र सरकार का। अपने ही नियमों को बुरी तरह तोड़ने मरोड़ने और दिन-ब-दिन प्रदेश के वन क्षेत्रफल का नुकसान करने में वन विभाग का सारा अमला जुटा हुआ प्रतीत होता है।

(पर्यावरण मंत्रालय का वर्किंग प्लान कोड – 2014)

तमाशा यह है कि यह सब वन संबंधी कार्यों के लिए नहीं हो रहा है बल्कि वन विभाग के खर्च पर गैर वानिकी कार्यों के लिए हो रहा है, इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा ? इस बर्बादी से बचाने हेतु हमारा हाई कोर्ट भी अपनी ओर से कोई संज्ञान नहीं ले रहा है बल्कि आम जनता में से ही किसी को सामने आकर जनहित याचिका लगानी चाहिए, ताकि प्रदेश के वन बचे रहें।

छत्तीसगढ़ शासन की महत्वाकांक्षी गोधन न्याय योजना के तहत आवर्ती चराई केंद्रों का निर्माण और संचालन हो रहा है जिसमें गाय को रखने और खिलाने के लिए गौठान,  मुर्गी पालन, मछली पालन, बकरी पालन, सब्जी बाड़ी, मशरूम उत्पादन, चारा उत्पादन, गोबर, वर्मी कंपोस्ट उत्पादन, आदि के लिए जंगल की जमीन को साफ और समतल करके पक्के निर्माण किए जा रहे हैं, जो वन विभाग के ही नियमों के विरुद्ध हैं। हास्यप्रद बात यह है कि वन विभाग इसके लिए शासन को मना भी करता जाता है और वन विभाग के ही अधिकारी लोग इन पक्के निर्माणों के सामने खड़े होकर श्रेय लूटने के लिए मुख्य मंत्री, वन मंत्री के साथ फोटो भी खिंचवाते रहते हैं। वन विभाग वालों के इस डबल रोल को कौन समझ सकता है ?

(छत्तीसगढ़्र शासन वन विभाग के प्रधान मुख्य वन संरक्षक का पत्र)

छत्तीसगढ़ के प्रत्येक वन मंडल के सभी ग्रामों में न्यूनतम 10 हेक्टेयर वन भूमि में ऐसे आवर्ती चराई केंद्रों का निर्माण किया जा रहा है। इसके लिए राज्य शासन और वन विभाग के द्वारा लगभग 1400 आवर्ती चराई केंद्र स्थापित किए जा चुके हैं। अर्थात 10 हेक्टेयर प्रति चराई केंद्र के हिसाब से 14000 हेक्टेयर वन क्षेत्रफल अभी से कम हो चुका है। अभी तो ऐसे लाखों चराई केंद्र बनने वाले हैं। अनुमान लगाइए, कुल कितना वन क्षेत्रफल निकट भविष्य में कम हो सकता है ?

(सरगुजा वनमंडल के बांसाझल बीट में आवर्ती चराई के विभिन्न काम)

आवर्ती चराई केंद्र के तहत जितने कार्य बताए गए हैं, वे सभी गैर वानिकी कार्य हैं । इन कार्यों के लिए वन भूमि को तोड़ा जा रहा है और सतह की सफाई की जा रही है, जिससे पेड़ पौधे नष्ट हो रहे हैं। इन कार्यों हेतु पक्के निर्माण, जैसे गाय रखने हेतु प्लेटफार्म,चारा,दाना-भूसा खिलाने कोटना और शेड निर्माण, कंपोस्ट बनाने की टंकी, बोर खनन आदि किया जा रहा है । उदाहरण के लिए सरगुजा वन वृत्त से लेकर  कांकेर वन वृत्त क्षेत्रान्तर्गत आने वाले कुछेक वन मंडलों के कुछ आवर्ती चराई केंद्रों के फोटो संलग्न हैं । 

(नारायणपुर वनमंडल के छोटेडोंगर बीअ में पक्के गैर वानिकी कार्य)

पी.सी.सी.एफ. द्वारा सभी डी.एफ.ओ., सी.सी.एफ. आदि को 11 मई को जारी पत्र क्रमांक 428 के क्रमांक 2 में आवर्ती चराई के लिए स्थल खुद चयन करने हेतु लिखा गया है और क्रमांक 23 में निर्देशित किया गया है कि आवर्ती चराई केंद्र में किसी भी वन अधिनियम का उल्लंघन ना हो, कोई पक्का निर्माण ना कराया जाए और जैव विविधता का कोई नुकसान ना हो। इससे पता चलता है कि आवर्ती केंद्रों के लिए केंद्र सरकार से कोई अनुमति नहीं ली गई है। जो फोटो संलग्न हैं, उनमें देखा जा सकता है कि पक्के निर्माण कार्य हो रहे हैं। पेड़ पौधों की साफ सफाई कर जंगलों का भारी नुकसान किया जा रहा है। इस प्रकार वन संरक्षण अधिनियम 1980 और वन  अधिनियम 1927 का साफ-साफ उल्लंघन हो रहा है।

(वन संरक्षण अधिनियम 1980 के प्रावधान)

पी.सी.सी.एफ. के लिखित आदेश में उल्लेखित कार्य ही वन संरक्षण अधिनियम 1980 का उल्लंघन हैं। सुप्रीम कोर्ट के 12.12.1996 के गोदावर्मन जज्मेंट के तहत केंद्रीय पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन विभाग ने वर्किंग प्लान कोड 2014 जारी किया है, जिसके अनुसार राज्य 10 वर्ष के लिए वर्किंग प्लान ( कार्ययोजना ) बनाएँगे और  केंद्र सरकार  के अनुमति के बाद ही वनभूमि में उसके अनुसार कार्य करेंगे। P.c.c.f. के निर्देशित और आवर्ती चराई केंद्र के सभी उपरोक्त कार्य सभी वनमंडलों के कार्ययोजना में ना तो शामिल है और ना ही ऐसे ग़ैर वानिकी काम केंद्र सरकार स्वीकृत करती है । वन विभाग के अधिकारी/ कर्मचारी आवर्ती केंद्रों पर जाकर फोटो तक खिंचवाते देखे जा सकते है। रेंजर से लेकर p.c.c.f. और सेक्रेटेरी तक इन उल्लंघनों के लिए ज़िम्मेदार हैं ।

(जंगल की साफ़ सफ़ाई करके वर्मीकॉम्पोस्ट का उत्पादन)

उक्त अधिनियम के उल्लंघन के कारण हजारों हेक्टेयर वन भूमि बर्बाद हो चुकी है और भविष्य में इससे भी कई गुनी वन भूमि बर्बाद होगी, जिससे छत्तीसगढ़ का वन क्षेत्रफल का प्रतिशत, जो अभी ठीक-ठाक है, कई प्रदेशों से कम हो जाएगा। वनों की कमी होने से वर्षा तथा जलवायु पर क्या फर्क पड़ता है, यह भी क्या इन जंगल के आकाओं को बताना पड़ेगा ? इस सवाल का जवाब तो बच्चे भी दे सकते हैं। इस वर्ष की अप्रत्याशित गर्मी और लू तो सबने सहन की है। ये सब घटते वनों और क्लाइमेट चेंज का ही स्पष्ट दुष्परिणाम है।

(आवर्ती चराई केन्द्र मर्दापाल, कोंडगाँव वन मण्डल के बीच जंगल में बना हुआ,,,)

यदि छत्तीसगढ़ की इस बर्बादी को बचाना है, तो आवर्ती चराई केंद्रों के निर्माण पर तत्काल स्टे लगाना चाहिए। सभी निर्माण कार्यों को तोड़कर वन भूमि को उसके मूल स्वरूप में लाना चाहिए और जिम्मेदार अधिकारियों पर वन संरक्षण अधिनियम 1980 की धारा 3-B, भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 26 और लोक संपत्ति क्षति निवारण अधिनियम 1984 के तहत कार्यवाही होनी चाहिए क्योंकि वन भूमि भी हवा और पानी की सर्विस देती है जिसका NPV ( नेट प्रेज़ेंट वैल्यू ). प्रति हेक्टेयर तक़रीबन  ₹10 लाख है । वन संरक्षण अधिनियम 1980 का शासकीय कर्मचारी के द्वारा उल्लंघन करने पर जेल तक का प्रावधान है। लोक सम्पत्ति क्षति निवारण अधिनियम 1984 के तहत ग़ैर ज़मानती धारा सभी ज़िम्मेदार अधिकारियों पर लगनी चाहिए ।

(आवर्ती चराई मर्दापाल, कोंडगाँव में मछली पालन बीच घने जंगल में का निरीक्षण करते राज्य के मुख्यमंत्री दल बल के साथ,,,)

उपर्युक्त जितने भी अवैध निर्माण कार्य हुए हैं, वे वन अधिकार अधिनियम 2006 की किसी धारा में नहीं आते और ना ही छत्तीसगढ़ आवर्ती चराई नियम के 1986 के प्रावधानों में हैं। इन कार्यों हेतु करोड़ों रुपयों का फालतू खर्च किया गया है, जिसकी वसूली भी जिम्मेदार अधिकारियों से की जानी चाहिए। अन्यथा ये अधिकारी लोग छत्तीसगढ़ को बर्बाद करके ही रहेंगे। 

(कांकेर वन मण्डल के कांकेर परिक्षेत्र के निर्माण कार्य)

(कांकेर वन मण्डल के कांकेर परिक्षेत्र के आवर्ती चराई केन्द्र में किये गये निर्माण कार्यों की तस्वीरें। यही स्थिति, राज्य भर के समस्त वन मण्डलों के आवर्ती चराई केन्द्रों की है,जिससे वन क्षेत्रों को पहुंच रहे नुकशान का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। )

याद आता है अविभाजित मध्यप्रदेश का वह ज़माना, जब स्वर्गीय मथुरा प्रसाद दुबे (बिलासपुर वाले) वन मंत्री थे। उस समय मध्य प्रदेश का वन क्षेत्रफल भारत में प्रथम स्थान पर था। सर्वाधिक वन्य प्राणी भी मध्य प्रदेश के ही वनों में निवास करते थे और वन से सर्वाधिक राजस्व मध्यप्रदेश ही कमा कर देता था, जिसमें बहुत बड़ा हिस्सा छत्तीसगढ़ का होता था। मथुरा प्रसाद दुबे महाराज के वन विभाग से हटने और गुजर जाने के बाद क्रमशः वनों का विनाश होने लगा और आज यह स्थिति है कि छत्तीसगढ़ अपने वनों पर गर्व नहीं कर पा रहा है और सरकारी योजनाएं तो ऐसी बन रही हैं, जिनके चलते भविष्य में वनों की और भयंकर बर्बादी होने वाली है। यदि हमारे राज्य की न्यायधानी बिलासपुर के उच्च न्यायालय के योरआनर/लार्डशिप/माननीय न्यायमूर्ति अपनी विशेष शक्तियों का प्रयोग करते हुए पूरे मामले की गंभीरता को समझते हुए अपने संज्ञान में ले लें और शासन को सही नसीहत व भविष्य में नज़ीर बनने योग्य एक स्पष्ट आदेश दें, तो बहुत अच्छी बात होगी अन्यथा कोई संवेदनशील व सक्षम शख्स जनहित याचिका माननीय उच्च न्यायालय में लगाये, इसी की प्रतीक्षा करने का एकमात्र रास्ता ही बच जाएगा । इसके बाद जो न्याय होगा, वह सरकार की नाक काटने वाला, व जंगल को कटने से बचाने वाला ही होगा।

जस्टिस पीएन भगवती जिन्होंने कहा था कि 25 पैसे के पोस्टकार्ड पर भी जनहित याचिका दायर हो सकती है,,,,

पढ़ने और सुनने में यह बात विचित्र लग सकती है कि पोस्टकार्ड पर भी लिख कर भेजी गई जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट को स्वीकार करनी होगी, लेकिन हम यह बता दें कि यह कथन किसी विक्षिप्त अथवा विदूषक का नहीं है बल्कि संविधान के विशेषज्ञ, स्वाधीनता सेनानी, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस, पीएन भगवती साहब का है ,जो खानदानी वकील भी थे और लंबे समय तक सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस तथा बाद में चीफ जस्टिस भी थे। आज वे इस दुनिया में नहीं हैं, 95 वर्ष की आयु में हाल ही में उनका देहांत हो चुका है, लेकिन उनका उक्त संवाद उनके द्वारा दिए गए अनेक फैसले तथा उनकी विद्वता हमेशा याद रखी जाएगी।

उन्हें यह देखकर दुख होता था कि भारत में न्याय न केवल देर से मिलता है बल्कि बहुत महंगा भी है । यह पुरानी कहावत है कि विलंबित न्याय भी अन्याय ही है लेकिन भगवती साहब इसमें यह भी जोड़ते थे कि महंगा न्याय भी अन्याय से कम नहीं है । जो किसी का घर द्वार बिक जाने के बाद मिले ,उसे न्याय कैसे कहा जाए ? उस व्यक्ति की जीत तो हार से भी बुरी कही जाएगी। अदालत आने जाने वाले जानते हैं कि लोअर कोर्ट में ही इतना खर्च हो जाता है कि हाई कोर्ट जाने की हिम्मत कम लोग ही करते हैं और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट जाना अर्थात अपने लिए स्वयं आर्थिक तबाही का रास्ता चुनने के बराबर है। करोड़ पतियों के लिए यह खर्च कुछ नहीं है। नंबर दो की कमाई वालों के लिए भी सुप्रीम कोर्ट जाना बड़ी बात नहीं है, लेकिन आज के भारत में सच्चाई यह है कि कोई गरीब आदमी सुप्रीम कोर्ट जाकर मुकदमा लड़ने की बात सोच भी नहीं सकता। इतना ही नहीं, कोई गरीब आदमी नगरीय निकाय का चुनाव लड़ने की भी बात नहीं सोच सकता है, क्योंकि उसे मालूम है कि इसमें भी कितना पैसा नंबर 1 में और कितना नंबर 2 में खर्च करना पड़ता है। आज एक जनहित याचिका लगाने के लिए न जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं और कितना खर्च आता है। उस पर भी यदि याचिका में कोई गलती निकल आई तो यह प्रावधान हो चुका है कि याचिका दायर करने वाले को ₹50000/- का फाइन भरना पड़ेगा, यह सुनकर वह आदमी भी घबरा जाता है, जिसको अपनी जनहित याचिका के शत प्रतिशत सही होने का विश्वास होता है । ऐसे समय पर यह याद करना कि चीफ जस्टिस पीएन भगवती साहब ने पोस्टकार्ड पर जनहित याचिका लिखकर दायर करने की बात कही थी, एक सुनहरे सपने जैसा लगता है और डर भी लगता है कि कहीं ऐसा ना हो पोस्टकार्ड मिलते ही 50,000/- के फाइन का फरमान आ जाए कि आपने बड़ी अदालत को मजाक समझ रखा है और अदालत का समय खराब किया है।

यह खबर बस्तर बंधु के संपादक सुशील शर्मा शर्मा जी की खोजी खबर पर आधारित है।

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