‘आदिवासी‘ हिन्दू कैसे हैं ? भाग (3)

( इस विषय पर प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक व लेखक श्री कनक तिवारी सोशल मीडिया में लगातार लिखना शुरु कर चुके हैं हम कोशिश करेंगे कि उनके द्वारा लिखे सभी भाग यहां ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर सकें, पहला भाग आप यहां आकर पढ़ सकते हैं )

कनक तिवारी
आदिवासियों का धर्म क्या है? यह सवाल देश और आदिवासियों तक को लगातार परेशान किए हुए है। सर्वसम्मत उत्तर या हल अभी तक मिल नहीं रहा है। जानबूझकर या नादानी से भी कई पक्षों द्वारा लगातार उलझनें पैदा की जा रही हैं। मामला कब तक हल होगा। यह भी स्पष्ट नहीं है। अंग्रेजों की हुकूमत के वक्त 1891 की जनसंख्या गणना में आदिवासियों के लिए कॉलम था ‘फॉरेस्ट ट्राइब‘। 1901 में उसे लिखा गया ‘एनीमिस्ट‘ या प्रकृतिवादी। 1911 में लिखा गया ‘ट्राइबल एनीमिस्ट‘। 1921 में लिखा गया ‘हिल ऐंड फॉरेस्ट ट्राइब‘। 1931 में लिखा गया ‘प्रिमिटिव ट्राइब‘। 1941 में लिखा गया ‘ट्राइब्स।‘ देश के आजाद होने के बाद 1951 की मर्दुमशुमारी में आदिवासी आबादी को व्यक्त करने वाला कॉलम ही हटा दिया गया। इसी दरम्यान कई आदिवासी ईसाइयत में धर्मांतरित हो गए थे। बहलाफुसला कर भी धर्म परिवर्तित कर दिए गए थे। इस पर संदेह का कोई सवाल नहीं है।

आदिवासियों के लिए पूरे जीवन प्रखर विदुषी, ईमानदार और समाजचेता बुद्धिजीवी झारखंड निवासी रमणिका गुप्ता ने महत्वपूर्ण प्रतिमान स्थापित किए है। आदिवासियों के लिए उनकी सेवाएं पुरअसर, भविष्यमूलक और अनुसंधान और अनुशीलन के उच्च स्तर पर रही हैं। उन्हें उद्धरित करना मुनासिब होगा-‘‘आज कोई सबसे बड़ा खतरा अगर आदिवासी जमात को है। तो वह उसकी पहचान मिटने का है। इक्कीसवीं सदी में उसकी पहचान मिटाने की साजिश एक योजनाबद्ध तरीके से रची जा रही है। किसी भी जमात, जाति, नस्ल या कबीले अथवा देश को मिटाना हो। तो उसकी पहचान मिटाने का काम सबसे पहले शुरू किया जाता है। और भारत में यह काम आज हिंदुत्ववादियों ने शुरू कर दिया है। ‘आदिवासी‘ की पहचान और नाम छीनकर उसे ‘वनवासी‘ घोषित किया जा रहा है ताकि वह यह बात भूल जाए कि वह इस देश का मूल निवासी यानी आदिवासी है। वह भूल जाए अपनी संस्कृति और अपनी भाषा। आदिवासी का अपना धर्म ‘सरना‘ है जो प्रकृति का धर्म है। वह पेड़ों और अपने पूर्वजों की पूजा करता है।……….उसके भगवान या देवता की जड़ें धरती में हैं।

आदिवासी अपने आपको हिन्दू नहीं कहता और अपनी पहचान अपने धर्म से नहीं बल्कि ‘‘तुम कौन हो पूछे जाने पर‘‘ करता है ‘‘मैं आदिवासी हूं।‘‘……….वह औरों की तरह हिन्दू मुसलमान या ईसाई कहकर अपना परिचय नहीं देता।……….आज एक सोची समझी चाल के तहत उसका हिन्दूकरण किया जा रहा है। कहीं उसका रिश्ता राम से जोड़ा जा रहा है। तो कहीं शिव से। और उसे अपने ही उन आदिवासी भाइयों के खिलाफ भड़काया जा रहा है, जो बहुसंख्यक वर्चस्ववादी हिन्दुओं के जातीय भेदभाव भरे व्यवहार से तंग आकर धर्म परिवर्तन कर चुके थे। उड़ीसा में यह क्रम लगातार जारी है। मध्यप्रदेश और झारखंड में ‘घर वापसी‘ के अभियान चलाए जा रहे हैं जैसे कि पहले वह हिन्दू रहा हो और बाद में रूठकर आदिवासी सरना या ईसाई बन गया हो और अब पुनः हिन्दू बन रहा हो। कितना बड़ा झूठ बोला जा रहा है उस पर। उसे नहीं बताया जा रहा कि इस ‘घर वापसी‘ के आयोजन के बाद हिन्दुओं की जातियों में विभाजित समाज के सबसे निम्न दर्जे पर उसे दाखिला दिया जा रहा है। सेवकों की जाति में उसे रखा जाएगा, षासकों की जाति ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैष्यों में नहीं। इसलिए इस समय जरूरत है आदिवासी समाज में उसका प्रबुद्ध वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग, साहित्यकार और समृद्ध वर्ग अपने समाज को एकीकृत करके अपनी अस्मिता अपने नाम और अपनी संस्कृति को बचाए।……….

विदेशी हमले हुए, अंग्रेजों का राज आया पर आदिवासी ही एक ऐसी जमात थी जिसने कभी समर्पण नहीं किया, भले लड़ते लड़ते मारे गए सब के सब कबीले वाले।……….1857 की आजादी की प्रथम लड़ाई से पहले ही आदिवासियों ने भारत में अंग्रेजों या अंग्रेजों द्वारा घोषित रजवाड़ों या जमींदारों का विरोध करना शुरू कर दिया था।……….देश आज़ाद होने से पहले ही अंग्रेजों ने आदिवासियों के जंगल में प्रवेश पर रोक लगाकर आदिवासियों को वहां से खदेड़ने की योजना लागू करनी शुरू कर दी थी और इन्हें जंगल की उपज के सब अधिकारों से वंचित कर दिया गया था।

दरअसल सरकार की ये वन नीतियां, वन प्रबंधन और वन कानून उसकी स्वार्थपूर्ण तथा छल बल की अभिरुचियों पर आधारित थीं। आजादी के बाद औद्योगीकरण तथा व्यापारियों की धनलिप्सा इनके आधार बन गई थीं। इस प्रकार अपने ही देश की सरकार द्वारा ही जंगलवासियों को उनके परंपरागत वन अधिकारों से लगातार वंचित किया जाता रहा था। जंगल के व्यवसायीकरण के कारण जंगलों को बर्बरतापूर्वक उजाड़ा भी जाने लगा था। इस प्रकार आजादी के बाद की सरकार ने न केवल साम्राज्यवादी सरकार के सिद्धान्तों को दोहराया बल्कि उन्हें और भी सषक्त और सबल बनाया, जिसका नतीजा निकला वन में रहने वालों यानी आदिवासियों का खदेड़ा जाना और जंगल पर राज्य के वन विभाग का एकाधिकार स्थापित करना।

संविधान सभा में आदिवासी सदस्य जयपाल सिंह मुंडा ने 24 अगस्त 1949 को अनुच्छेद 292 पर सार्थक बहस करते याद दिलाया था कि अध्यक्ष डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद ने रामगढ़ कांग्रेस की स्वागत समिति के सभापति की हैसियत में कहा था कि इस इलाके के निवासी अधिकतर वे लोग हैं जो भारत के आदिवासी कहे जाते हैं। उनकी सभ्यता अन्य लोगों की सभ्यता से बहुत भिन्न भी है। प्राचीन वस्तुओं की खोज से यह प्रमाणित हुआ है कि यह सभ्यता बहुत प्राचीन है। आदिवासियों का वंश (आस्ट्रिक) आर्य वंश से भिन्न है। हालांकि जयपाल सिंह ने माना कि भारत के कुछ भागों में अंतरजातीय रक्तसंबंध हुए हैं। नतीजतन कई आदिवासी हिन्दू संप्रदाय में शामिल हो गए हैं लेकिन कुछ भागों में ऐसा नहीं भी हुआ है। पुराने लोगों और नवागन्तुकों में संघर्ष भी हुआ है। आर्यों के गिरोह इस देश में आए तो उनका स्वागत नहीं हुआ क्योंकि वे हमलावर थे। उन्होंने आदिवासियों को दूर जंगलों में खदेड़ दिया। जयपाल सिंह ने कहा कि नतीजतन आज भी असम, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और बिहार से निकाले हुए लगभग दस लाख लोग एक स्थान से दूसरे स्थान भटकते फिर रहे हैं।

जयपाल सिंह के बरक्स गांधी के चहेते ठक्कर बापा ने कहा कि उड़ीसा में ब्राह्मणों का एक वर्ग अपने को आरण्यक अर्थात वन ब्राह्मण कहता है। उन्होंने कहा कि आदिवासी और गैरआदिवासी के बीच अंतर करने से उत्पन्न मुसीबतों से मुल्क को बचाया जाना चाहिए। यह भी कि आर्य या वन ब्राह्मण जैसे वर्ग भी यही कोशिश करें कि आदिवासियों में भी उनका शुमार किया जाए। लक्ष्मीनारायण साहू ने भी कहा पहले के भी कई आदिवासी हिन्दू हो गए हैं। एबओरीजीनल्स के कुछ रीतिरिवाज हिन्दुओं में आ गए हैं और हिन्दुओं के कुछ अच्छे रीतिरिवाज आदिवासियों के भीतर आ गए हैं। यह इतिहाससम्मत तथ्य है कि देश में करोड़ों आदिवासी हजारों वर्षों से कथित मुख्यधारा के नागरिक जीवन से कटकर वन छेत्रों में अपनी संस्कृति, परंपरा, स्थानिकता, सामूहिकता और पारस्परिकता के साथ जीवनयापन करते रहे हैं। सदियों से चली आ रही आदिवासी जीवन पद्धति की उपेक्षा करते हुए उसमें हस्तक्षेप करने का स्वयमेव अधिकार ले लेना संविधान के मकसदों से मेल नहीं खाता।

कनक तिवारी

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