उग्रवाद और नक्सलवाद के लिए जिम्मेदार कौन ?

सर्वोच्च न्यायालय कहता हैः ‘भारतीय राज्य इसके लिए जिम्मेदार है’
और अब सरकार क्या करने जा रही है? ‘आदिवासियों को लड़ाने के लिए आदिवासी बटालियन ला रही है’
लेखक: स्टेन स्वामी (स्वतंत्र लेखक)

अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि“…. विकास के प्रति दोषपूर्ण दृष्टि, विकास-प्रक्रिया का विपरीत प्रभाव झेलने वालों के प्रति सरासर बेपरवाही और कानून लागू करने के प्रति कुटिल उदासीनता के कारण ऐसी स्थितियाँ पैदा होती हैं जिसमें सबसे ज्यादा उपेक्षित नागरिकों को शायद ही कभी संविधान द्वारा प्रदत्त अपने अधिकार और लाभ मिल पाते हैं…. हम ‘विकृत विकास’ का रास्ते पर जो भी कदम उठाते हैं, उससे प्रयाः सशस्त्र विद्रोह और राजनीतिक चरमपंथ ही जन्म लेता है” (सर्वोच्च न्यायालय में स्पेशल लीव याचिका (सी) क्रमांक 6933/2007, अनुच्छेद 9, 7,
सरकार ने जनता की आवश्यकताएँ पूरी करने के बजाय ‘पुलिसिया राज्य’ खड़ा किया हैः
अपने विकास के मॉडल के बारे में पुनर्विचार करने और नागरिकों के बीच अधिकतम समता लाने की ओर बढ़ने के बजाय सरकार गरीबी से लाचार लोगों के खिलाफ तनी हुई अपनी बंदूकों में बढ़ोतरी करने को प्रतिबध्द है. अतः माओवाद से प्राभावित प्रदेशों के लिए 12 बटालियनों पर केंद्रीय कैबिनेट की ‘सुरक्षा मामलों के लिए कमेटी’ की मुहर. (एक्सप्रेस न्यूज सर्विस), नई दिल्ली, 25 जुलाई 2016,
यह देश के 88 ‘नक्सल-प्रभावित’ जिलों में पहले से लगे हुए 5 लाख पुलिस व अर्ध्दसैनिक बलों और ‘समेकित कार्य योजना’ के नाम पर अवरचनागत विकास के लिए प्रति जिला, प्रति वर्ष 30 करोड़ रुपयों के वित्तीय निवेश के अतिरिक्त है. इन अतिरिक्त 12 बटालियनों में अधिकतम (75 फीसदी) ‘स्थानीय युवा’ ही भर्ती किए जाने वाले हैं. इससे निम्न सवाल खड़े हो जाते हैंः
ऽ पहला सवालः इन रिजर्व बटालियनों में भर्ती होने वाले ये ‘स्थानीय युवा’ कौन होंगे?
जवाबः ये ‘स्थानीय युवा’ कोई और नहीं, आदिवासी युवा ही होंगे.
ऽ दूसरा सवालः ‘वामपंथी चरमपंथ’ के रूप में इनके निशाने पर होने वाले माओवादी कौन होंगे?
जवाबः ये भी आदिवासी ही होंगे, जिन पर ‘माओवादी’ होने का अरोप लगा हो.
ऽ तीसरा सवालः क्यों आदिवासियों को बाध्य किया जा रहा है कि वे आदिवासियों को लड़ायें/मार डालें?
जवाबः ताकि आदिवासी समुदाय को कमजोर किया जा सके और एकता की जगह अविश्वास के बीज बोये जा सकें. यह आदिवासियों को बाँटने और आदिवासियों को अपने साथी आदिवासियों को लड़ाने/मार डालने को बाध्य करने का कुचक्र है.
हर कोई जानता है कि आदिवासी समुदाय की पारंपरिक विशेषता हैः समता, आपसी सहयोग, सामुदायिक जीवन प्रणाली, आम सहमति के आधार पर निर्णय लेने की प्रक्रिया और प्रकृति से घनिष्ठता. जबकि जो मूल्य तथाकथित आधुनिक समाज की विशेषता हैं वे इसके ठीक विपरीत हैं. अनेक विद्वानों ने इस बात को सिध्द किया है कि अगर हमारी प्रकृति को और इस ग्रह को कोई बचा सकता है तो मूलवासी आदिवासी लोग ही बचा सकते हैं. जिस पूंजीवादी समाज की आज तूती बोलती है उसने शक्तिशाली राज्य सत्ता का प्रयोग कर आर्थिक रूप से कमजोर आदिवासी समुदाय के खिलाफ युध्द छेड़ रखा है. इस समुदाय को कमजोर कर देने पर उसके सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का स्वतः ही लोप हो जाएगा. इनकी आर्थिक बुनियाद को कमजोर करने के लिए ही आदिवासी को आदिवासी से लड़ाया जा रहा है.
सरकार आदिवासियों की झूठी छवि प्रचारित कर रही हैः
भारतीय सरकार इस बेहद गलत धारणा का प्रचार कर रही है कि आदिवासी लोग माओवादियों के प्रभाव में हैं, कि ये माओवादियों को आश्रय देते हैं, खाना देते हैं, कि ज्यादातर आदिवासी माओवादियों के समर्थक हैं और कई तो सीधे-सीधे माओवादी बन भी गए हैं. यह बात सच्चाई से कोसों दूर है.
सच्चाई यह हैः
अधिकतर माओवादी आदिवासी हैं, मगर अधिकतर आदिवासी माओवादी नहीं हैं. यह सच है कि कुछ आदिवासी युध्दरत शक्तियों में शामिल हो चुके हैं. ऐसा इसलिए ज्यादा हुआ है कि सरकार बड़ी-बड़ी कंपनियों के साथ मिलकर उनके जल, जंगल, जमीन को छीनती जा रही है, न तो उनका समुचित पुनर्वास करती है और न ही आजीविका के कोई वैकल्पिक साधन मुहैया कराती है. लेकिन इससे सरकार को यह हक नहीं मिल जाता कि वह आदिवासी समुदाय को पूरा-पूरा चरमपंथी करार दे.
समाधान क्या है?
समाधान अधिकाधिक बल तैनात करते जाना और हेलिकॉप्टरों तक का प्रयोग करना नहीं है. मध्य भारत के प्रदेशों में 5 लाख पुलिस-अर्ध्दसैनिक बलों को लगाकर पहले ही ‘पुलिसिया राज्य’ बना दिया जा चुका है. वहाँ प्रायः हर गाँव में आज पुलिस चैकी बन चुकी है. लोगों को जगह-जगह रोक कर पूछताछ की जा रही है, इसलिए कि सारे के सारे लोग ही ‘संदिग्ध’ करार दिए गए हैं. ऐसी चीजों को चलने नहीं दिया जा सकता.
सरकार को अगर अपने स्व-रचित उग्रवाद को समाप्त करना हो, तो इसका एकमात्र रास्ता है ईमानदारी से आदिवासी समुदायों को अपने प्राकृतिक संसाधनों पर प्राप्त पारंपरिक अधिकारों को स्वीकार कर लेना. उनके अधिकारों की रक्षा के लिए सुस्पष्ट संवैधानिक प्रावधान हैं, संसदीय कानून हैं, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले हैं. इनको जो अधिकार हासिल हैं उनमें सबसे महत्वपूर्ण हैंः
ऽ संविधान की ‘पाँचवीं अनुसूची’ का पालन हो, जिसके तहत ‘जनजातीय सलाहकार परिषद’ को जनजातीय लोगों के लिए चिह्नित परियोजनाओं को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने का अधिकार दिया गया है. ‘अनुसूचित क्षेत्र’ में आने वाले हर प्रदेश के राज्यपाल को निर्देशित किया गया है कि वे ‘जनजातीय सलाहकार परिषद’ से सलाह लेकर प्रदेश की सरकार को उसी सलाह के अनुसार काम करने का आदेश दें. दुर्भाग्य से आज तक किसी भी राज्यपाल ने इस निर्देश का पालन नहीं किया है. अब समय आ चुका है कि इसका पालन हो.
ऽ ‘अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989’ का पालन हो, जिसके तहत जनजातीय लोगों के आर्थिक व सामाजिक अधिकारों का अतिक्रमण करने वाले गैर-जनजातीय व्यक्तियों व अधिकारियों को सजा देने का प्रावधान है. इस कानून को हाल ही में अधिक सख्त बनाया गया है. इसे सिर्फ लागू करने की जरूरत है.
ऽ ‘पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 2006’ अर्थात् पेसा कानून का पालन हो, जो ग्राम सभा को परंपरा और संस्कृति के रक्षक के रूप में, और जब विस्थापन या पुनर्वास के कदम उठाये जाने हों तो उसके लिए परामर्शदाता के रूप में अधिकृत करता है. किसी भी परियोजना के लिए वहाँ के लोगों को ग्राम सभा की अनुमति के बगैर अपनी जमीन और प्राकृतिक संपदा से बेदखल नहीं किया जा सकता. दुख इस बात का है कि इन कानूनी प्रावधानों को सरकारें बड़ी आसानी से नजरअंदाज किए जा रही हैं.
ऽ सर्वोच्च न्यायालय के 2007 के ‘समता फैसले’ का कुछ तो पालन हो, जिसमें यह बिल्कुल स्पष्ट रूप से निर्देश दिया गया है कि अनुसूचित क्षेत्रों में कोई निजी कंपनी ही नहीं, सरकार तक भी कोयले का खनन नहीं कर सकती. सिर्फ जनजातीय लोगों की सहकारिताएँ ही यहाँ कोयले का खनन कर सकती हैं. इस बात को लागू करने का दायित्व भी सरकार ही पर है. दुखद यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस अहम् फैसले को लागू करने की सोच भी कहीं दिखाई नहीं देती है.
ऽ ‘वन अधिकार अधिनियम, 2006’ जनजातीय लोगों के सशक्तिकरण के इतिहास में भारतीय संसद में पारित हुआ ऐसा महत्वपूर्ण कानून है, जो खास तौर से वन एवं वन-भूमि के पट्टों की रक्षा से संबंध रखता है. यह वह कानून है जिसने पीढ़ी-दर-पीढ़ी जंगलों में रहते आए लोगों के पट्टों से संबंधित उन अधिकारों को मान्यता देने, सुपुर्द करने और दर्ज करने का काम किया है जो आज तक कभी दर्ज नहीं हो पाए थे, और इस प्रकार एक ऐतिहासिक अन्याय को दूर किया है. लेकिन फिर भी यह अन्याय समाप्त नहीं हुआ है. पूरे देश के पैमाने पर इन अधिकारों की मांग करने वाले सिर्फ आधे ही दरखास्त मंजूर हुए हैं. जिन लोगों को अपना पट्टा मिल पाता है वह भी उन्हें अपने दावे से कम ही मिलता है. और अब तो बात इससे भी ज्यादा बिगड़ी हुई है. क्योंकि वन अधिकार अधिनियम में हाल में जो संशोधन हुआ है उससे ग्राम सभाओं के अधिकारों में ऐसी कटौती कर दी गई है, जिससे उनके वनों को किसी कंपनी को देने के लिए उनकी सहमति जरूरी नहीं रह गई है. फिर अब जंगलों में रहने वाले आदिवासी कहाँ जाएंगे?
ऽ सर्वोच्च न्यायालय के 2013 के एक फैसले में यह कथन कि ‘जमीन का मालिक अपनी जमीन के नीचे पाए जाने वाले खनिज का भी मालिक होता है,’ स्पष्ट कर देता है कि राज्य या सरकार जमीन में समाये हुए खनिज का मालिक नहीं होता. सरकार अगर उस खनिज को चाहती हो, तो उसे जमीन के मालिक से खनिज खरीद लेना होगा. तात्पर्य यह कि संबंधित ग्राम सभा अपने खनिज को बेचने को तैयार हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती. तात्पर्य यह भी है कि ग्राम सभाओं के पास उस खनिज को निकालने और कंपनियों को बेचने का अधिकार होता है, फिर वह कंपनी निजी भी हो सकती है और सार्वजनिक भी. इस तरह ग्राम समुदाय वैध रूप से संपत्ति अर्जित कर सकते हैं और आर्थिक रूप से स्वतंत्र व खुशहाल हो सकते हैं. ऐसा होने पर वे अपना सामाजिक और राजनीतिक विकास कर सकते हैं और व्यापक तौर पर समाज में अपना अधिकारपूर्वक स्थान हासिल कर सकते हैं.
बात बिल्कुल साफ है कि सरकारों ने और औद्योगिक एवं व्यवसायी वर्ग ने न्यायपालिका के इस आदेश को बड़ी चतुराई से दरकिनार कर दिया है. उन्होंने ऐसा क्यों किया है, यह अपने आप ही स्पष्ट है. ग्राम सभाओं को अपनी पहल से ही इन प्राकृतिक संसाधनों पर अपने नैसर्गिक अधिकार जता देने होंगे.
इन सब बातों का मतलब तो यही निकलता है कि:..
देश भर में माओवादियों के विरुध्द आदिवासी बटालियनें,
झारखंड में माओवादियों के विरुध्द पहाड़िया बटालियनें और
छत्तीसगढ़ में माओवादियों के विरुध्द बस्तरी बटालियनें
अन्यायपूर्ण हैं और अनावश्यक भी. इनका मकसद है, आदिवासी समुदायों को एक-दूसरे से लड़ाकर और एक से दूसरे की हत्या करवाकर कमजोर कर देना. जिससे उन्हें अपनी जमीन को, जमीन में समाये हुए खनिज पदार्थों सहित छोड़ने को विवश किया जा सके, ताकि सब कुछ कॉरपोरेट घरानों को सौंपा जा सके. इस बात का हर कीमत पर प्रतिरोध करना होगा.
अगस्त 2016.

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