बाबा के फुट सोलजर्स : बनारस के पंडे अब कम्युनिस्टों के सहारे

पंडों के धंधे में भी मोदी के फंडे का पड़ा है असर
महंगाई इतनी कि अपना पेट देखे या तीरथ करे

बादल सरोज

बनारस । काशी विश्वनाथ मन्दिर के मुख्यद्वार पर खड़े एक अपेक्षाकृत युवा चंदनारोपित शिखाधारी को उनके ठीक सामने पहली मंज़िल पर स्थित सीटू और सीपीएम ऑफिस की बालकनी में बैठे हम घंटे भर से निहार रहे थे । दोपहर के 2 बजने को थे । अभी तक एक भी ग्राहक-यजमान यानी कस्टमर उनकी पकड़ में नहीं आया था ।

कोशिशों में विफलता की हताशा और थकान उनके चेहरे पर दिख रही थी । इत्ती भारी भीड़ में भी वे बीच बीच मे बुदबुदाते, अपने आप से बात करते थे, जैसे सोच रहे हों कि “धत्तेरे की धनतेरस की तरह नरक चौदस भी गयी खाली की खाली ।”

फ़ोटो मन्दिर के मुख्यद्वार का है । सीपीएम के दफ्तर में बैठकर लिया है ।

उनसे मिलने की इच्छा बलवती हुई तो एक वरिष्ठ साथी से आवाज दिलाकर उन्हें ऊपर ऑफिस में बुलाया ।

पूछा : “कैसा चल रहा है काम ?”

उन्होंने दर्शन बघारा : “बाबा की नगरी है, मिल जाये तो एक दिन में 10 हजार, न मिले तो 10 दिन तक खाली संसार ।”

थोड़ी पूछताछ में खुले और जरा सी देर में ऐसा फट पड़े कि अपने एक और साथी सहकर्मी को बुला लिया और उसके बाद जो कथा सुनाई वह सिर्फ उनकी नहीं उन जैसे लगभग सबकी थी । वंचना, वेदना, विपन्नता और विपदा की कहानी ।

उनने बताया कि “यह सीजन भी खाली निकला जा रहा है । सावन और दीवाली के ये चार दिन परिवार के साल भर के खर्च की जुगाड़ के रहते थे । तीस हजार से पचास हजार तक कमाए हैं इन दिनों में । सावन भी सूखा गुजर गया, कल धनतेरस निकल गयी, आज छोटी दिवाली निकली जा रही है 400 रुपये भी नही आये हैं। 35 साल से इस काम मे हूँ, याद में नहीं है कि इससे ज्यादा मुश्किल दिन इससे पहले कभी देखे होंगे । शहर में टिकना और गुजारा करना दिक्कत तलब होता जा रहा है ।”

क्यों ? क्या हो गया ऐसा ?

वे बोले ; “महंगाई इतनी हो गयी है कि यात्री अपना पेट देखे या तीरथ करे । पैसा है ही नहीं बाजार में ।” उन्हें पता ही नही था कि अनजाने में ही वे एक ऐसी अर्थशास्त्रीय टिप्पणी कर गए हैं जिसके बारे में इन दिनों के भागवत पुराण में सख्त मनाही है ।

दूसरी वजह उन्होंने अब दर्शन के लिए दी जाने वाली 300 रुपये की टिकिट बताई । बताया कि “पहले 10 यात्रियों को ले जाकर हम 500 रु की दक्षिणा में दर्शन करा देते थे अब सरकार ही अपने न्यास के जरिये 3000 ले लेती है तो हमे क्या और क्यों देगा कोई ?”

उनने बताया कि “हम तीर्थ यात्री को समझा बुझा कर हजार पांच सौ का दान भी करवा दिया करते थे । उसमे से भी आधा हमे मिल जाता था । अब वह भी चला गया ।”

पण्डो की विश्वप्रसिद्ध चतुराई (ठगी) पर पूछे सवाल के जवाब में वे बोले :

“अब काशी करवट का जमाना नही रहा । मुश्किल से 2 से 5 प्रतिशत ऐसे होंगे । बाकी सब ‘मेहनत की खाते हैं’ साहब ।”

“कोई बीमा या पेंशन वगैरा का प्रबंध किया है क्या न्यास ने ?”
अजी कहां, यहां तो काम ही खतरे में पड़ गया है अब तो ….
ऐसा कहते कहते एक ने अपनी जेब से आइडेन्टिटी कार्ड निकाल कर दिखाते हुए कहा : “25 साल से इस काम मे हूँ, पिता इसी मंदिर के पुजारी हैं । मगर पता नही कि अगली साल ये कार्ड फिर से बनेगा कि नहीं ।” वजह पूछी तो पता चला कि काशी विश्वनाथ न्यास बन गया है, उसमें सी ई ओ बनकर एक विशाल सिंह नाम का आई ए एस अफसर आ गया है । न जाने कहां कहां से पढ़े, बिन पढ़े नए नए लोग लाये जा रहे हैं ।

बनारस काशी वाराणसी कुछ भी कह लीजिये, वे उसे बाबा की नगरी कहते हैं । इसकी मुख्य पहचान यहां न जाने कबसे बहती गंगा, उस के 84 घाट और बाबा काशी विश्वनाथ का समय समय पर नूतन होता हुआ प्राचीन-अर्वाचीन मंदिर है । देश और दुनिया के आकर्षण, आवागमन और पर्यटन के मुख्य प्रलोभन के साध्य और जरिया है बनारस के पण्डे !! मुख्य मंदिर से छोटे बड़े मंदिरों के दर्शन पूजा,स्नान-ध्यान, सारे कर्मकांड और संस्कारों के माध्यम ये ही हैं।

और ये कम नही हैं । पांच घाटों पर यायावरी और इन दोनों से पूछताछ से उनकी मोटी संख्या कुछ इतनी निकली ;
विश्वनाथ मंदिर के जोशी पण्डे 252, ढुंढीराज गेट नम्बर 1 पर 48, चार प्रमुख घाटों ; दशाश्वमेध – प्रयाग – शीतला और अहिल्या घाट पर 400 से 500, पिशाच मोचन पर 150, राजघाट और प्रह्लाद घाट पर 50, अस्सी घाट पर 20-30, केदार घाट पर 25-30, मणिकर्णिका घाट पर 150, गाय घाट पर 10-15, पच गंगा पर करीब 10 और अलईपुरा में 10-12 ; उनके मुताबिक यह संख्या बीस ही होगी उन्नीस नहीं ।

जब हमने उन्हें बताया कि केरल में कम्युनिस्टों की सरकार ने पुजारियों, पंडों की सेवा को भी स्थायी कर दिया है, उनकी मासिक पगार, बीमा और पेंशन तक तय कर दी है तो उनके चेहरे खिल उठे । बोले ; आप मीटिंग बुलाइये, हम सबको इकट्ठा कर देंगे । बचना है तो लड़ना तो पड़ेगा ही ।

बाबा के ये हरकारे और फुट-सोल्जर्स इस देश के सबसे बड़ी कमाई वाले उद्योग – इंडस्ट्री ऑफ रिलिजन – के वर्कर है । उनकी भी पीड़ाएँ हैं, कारपोरेट यहां भी आ रहे हैं : दोनों तरह के कारपोरेट । इनकी पीड़ाएँ बढ़ा रहे है और सारी पीड़ाओं का रास्ता संगठित होकर संघर्ष करने से निकलता है ।

पुनश्च ; जिन पण्डों से बात हुई उनके नाम उनके काम की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए नही दिए जा रहे हैं ।

लेखक प्रसिद्ध विचारक व मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता है

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!