न्याय के सिद्धांत सीजेआई पर भी लागू होने चाहिए : सीमा आज़ाद .

न्याय के सिद्धांत सीजेआई पर भी लागू होने चाहिए
19 अप्रेल  भारतीय न्याय व्यवस्था में उस वक्त भूचाल आ गया, जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई पर उनकी एक जूनियर स्टाफ ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। उसने यह आरोप सुप्रीम कोर्ट के 22 जजों के पास एक हलफनामा भेज कर लगाया, जिसमें उसके साथ मुख्य न्यायधीश द्वारा किये गये अनुचित व्यवहारों का ब्यौरा है।

यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि यह आरोप सही है या गलत और देश भर में इस पर चर्चा शुरू भी हो गयी, लेकिन इस आरोप पर सुप्रीम कोर्ट का जिस तरह का रवैया रहा, वह न्याय के सिद्धांत की अवहेलना करता है। इस अवहेलना के कारण मुख्य न्यायधीश के खिलाफ इस आरोप को शक की नज़र से देखने वाले लोगों का शक खुद उन पर ही गहराता जा रहा है। परिणाम स्वरूप देश के न्यायपसंद प्रबुद्ध लोगों, महिला संगठन की सदस्यों ने बयान जारी कर इसकी निन्दा की है और आरोपों की जांच एक उच्च अधिकार सम्पन्न समूह से कराये जाने की मांग की है। ऐसे समूह से जो विशाखा गाइडलाइन के अनुरूप हो, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज, और सिविल सोसायटी के प्रबुद्ध लोग हों और जिसमें 40 प्रतिशत से ज्यादा महिलाये हों।

इसके विपरीत आरोप लगते ही मुख्य न्यायधीश ने पांच जजों की एक स्पेशल बेंच गठित कर (जिसका हिस्सा वे खुद भी थे) के माध्यम से आरोप को बिना जांचे, बिना कानूनी प्रक्रिया से गुजरे, बेबुनियाद बता दिया। साथ ही आरोप लगाने वाली महिला पर प्रतिआरोप लगाते हुए इसे न्यायव्यवस्था पर किया गया हमला करार दे दिया। जस्टिस अरूण मिश्रा और जस्टिस संजीव खन्ना द्वारा हस्ताक्षरित जारी बयान में कहा गया कि ‘देश की न्यायव्यवस्था की स्वतंत्रता खतरे में है।’ जस्टिस गोगोई का कहना था कि ‘इस आरोप के पीछे बड़ी ताकते हैं जो चीफ जस्टिस ऑफिस को नहीं चलने देना चाह रही हैं।’

आरोपी जस्टिस गोगोई द्वारा गठित इस के इस बयान के अगले ही दिन सुप्रीम कोर्ट के बार काउंसिल ने भी जस्टिस गोगोई के पक्ष में बयान जारी कर दिया। यह सब इतना अप्रत्याशित और हतप्रभ करने वाला था, कि दो-तीन दिन लोगों को अपना पक्ष लेने में लग गया।

हो सकता है जस्टिस गोगोई और उनके द्वारा गठित बेंच द्वारा कही गयी बातें सच हांे, लेकिन किसी भी आरोप का फैसला कानून से इतर जाकर कैसे सुनाया जा सकता है? जबकि इस मामले में एक बार नहीं, बार-बार न्याय सिद्धान्तों की अवहेलना होती जा रही है। पहले तो व्यक्ति पर लगे आरोप का जवाब एक संस्थान, वो भी न्याय के संस्थान ने देकर अपनी मानसिकता को उजागर कर दिया। फिर बिना कानूनी प्रक्रिया से गुजरे आरोपी को ‘क्लीन चिट’ दे दी गयी। तीसरे, क्लीन चिट देने वाले समूह में आरोपी खुद एक सदस्य रहे। चौथे, इन सबके बाद जांच के लिए जो तीन सदस्यीय कमेटी का गठन किया गया, वो आरोपी व्यक्ति के समकक्षी, (तकनीकी तौर पर समकक्षी लेकिन इस मायने में जूनियर कि जस्टिस गोगोई के बाद ये लोग मुख्य न्यायधीश बनने के क्रम में हैं) हैं। इस कारण यह कमेटी दबावमुक्त हो कर मामले की जांच करेगी, इसकी संभावना कम को जाती है। इसी कारण देश की प्रबुद्ध महिलाओं और नागरिकों ने मामले की जांच रिटायर्ड जजों और सिविल सोसायटी के लोगों से कराये जाने की मांग की है, जिसका 40 प्रतिशत हिस्सा महिलाओं का हो।

कुछ बात इस पर भी कि हो सकता है कि रंजन गोगोई पर लगे आरोपों के पीछे कोई बड़ी राजनीतिक शक्ति हो, जैसा कि वे स्वयं कह रहे हैं। और ये शक्ति कौन हो सकती है हम सब इसका अनुमान भी आसानी से लगा सकते हैं। मौजूदा सरकार चीफ जस्टिस के निर्णयों के कारण ही घिरती जा रही है। लेकिन क्या इस कारण से यह मान लेना ठीक होगा, कि उन पर लगा आरोप पूरी तरह गलत ही हो सकता है। इसे साजिश बताने वाले लोग यह तर्क दे रहे हैं कि इसके पहले जब प्रख्यात पत्रिका ‘तहलका’ भाजपा के कद्दावर नेताओं की पोल खोल के कारण चर्चा का विषय और भाजपा के लिए संकट का कारण बन गया था, तो उसके संपादक तरूण तेजपाल को भी ऐसे ही आरोपों से खतम कर दिया गया। इस बार भी ऐसा ही किया जा रहा है। लेकिन क्या इस तर्क को इस तरीके से भी नहीं देखा जाना चाहिए, कि हमारे समाज में पितृसत्ता इस कदर लोगों के दिमाग में बैठी हुई है कि सत्ता के झूठ के खिलाफ तनकर खड़ा पुरूष भी अन्ततः महिला को उपभोग की वस्तु समझने वाला ‘नर’ ही निकलता है। किसी भी पुरूष में ये दोनों गुण-अवगुण साथ-साथ मौजूद हो सकते हैं, और सत्ता आदमी की इस कमजोरी को हमसे ज्यादा समझ गयी है, पिछले कई सालों से वो अपने खिलाफ खड़े हर व्यक्ति की इसी कमजोरी को पकड़कर उसे ध्वस्त कर रही है, साथ ही अपने खिलाफ होने वाली लड़ाई को भी कमजोर किये दे रही है। अगर वास्तव में सत्ता की तानाशाही, झूठ-फरेब, सामंती/उपभोगवादी मानसिकता, पिछड़ेपन से लड़ना है तो खुद को भी उन सबसे मुक्त करना बहुत जरूरी है।

प्रगतिशील और महिला विरोधी एक साथ होने का ख्वाब देखने वाले पुरूषों को कम से कम अब अपने बारे में सोचना होगा क्योंकि अब यह तर्क किसी काम का नहीं है कि ‘वे तो जुल्मी सत्ता के खिलाफ है, इसलिए हर हाल में सही ही होंगे।’ उन्हें अपनी मानसिकता से लेकर भाषा, लेखन और व्यवहार में जनवादी बनने की जरूरत है, तभी सत्ता की अलोकतांत्रिकता के खिलाफ मजबूती से लड़ा जा सकता है।

भारत के मुख्य न्यायधीश के खिलाफ लगाये गये आरोप गंभीर हैं, अगर वे गलत भी हैं, तो जितनी संभावना उसके गलत होने की है उतनी ही उसके सही होने की भी, इसलिए उन्हें भी भारत के किसी अन्य नागरिक की तरह न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना ही चाहिए ऐसी न्यायिक प्रक्रिया जो न्याय के सिद्धान्त पर खड़ी हो।

सीमा आज़ाद

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!