गणेश तिवारी : याद रहेगा ये मुस्कुराता चेहरा!

कॉ. गणेश तिवारी नही रहे, कोरोना ने उन्हें भी ग्रस लिया। यह समाचार स्तब्धकारी है और उनका मुस्कुराता चेहरा हमेशा के लिए जेहन में बस गया।

जब मैं एसएफआई के जरिये वाम आंदोलन से जुड़ा, वे वरिष्ठ थे और मार्गदर्शक भी। रेलों में किस तरह रैलियां लानी-ले जानी है, किस तरह इन रैलियों में शामिल लोगों का ध्यान रखना है, और यह भी ध्यान रखना कि हमारे कारण किसी भी रेल यात्री को कोई परेशानी न हो — चाहे वह आरक्षित हो या अनारक्षित — यह सब उन्हीं से सीखा। ठसाठस भरे डिब्बे में हर स्टेशन पर कुछ यात्रियों को घुसने देने की गुंजाइश बनाने की कला भी उन्हीं से सीखी। इन डिब्बों में वे हमारे साथ ही रहते थे और हमारा जतन भी उसी तरह करते थे, जैसा कोई बुजुर्ग घर के किसी नवजात सदस्य का करता है। बिना कोई अहसास दिलाये वह सब सीखा गए, जो एक अच्छा वामपंथी कार्यकर्ता बनने के लिए जरूरी है। इस ‘सीखने’ में ‘पढ़ने’ की एक बड़ी प्रेरणा भी उन्हीं से मिली।

छात्र जीवन के बाद कुछ समय तक वे पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता भी रहे। इस दौरान कुसमुंडा-गेवरा-बांकी मोंगरा इलाके में कोयला मजदूरों को संगठित करने का काम भी उन्होंने किया। लेकिन वे अक्खड़ थे। इस अक्खड़पन ने उन्हें पत्रकारिता के पेशे में धकेल दिया। इस क्षेत्र में उन्हें अपनी प्रतिभा का उपयोग करने का भरपूर मौका मिला। वे सफल पत्रकार साबित हुए। लेकिन इस पत्रकारिता में भी उनकी पक्षधरता स्पष्ट थी। औरों की तरह न वे निष्पक्ष पत्रकार थे, और न निरपेक्ष पत्रकार। ‘नवभारत’ में उपसंपादक के पद पर काम करते हुए भी उन्होंने पत्रकार जगत से जुड़े श्रमजीवी पत्रकारों व कर्मचारियों को संगठित करने, उनकी समस्याओं पर लड़ने और जरूरत पड़ने पर प्रबंधन से टकराने का भी काम किया।

अपनी ईमानदारी और विशिष्ट छवि के साथ वे बिलासपुर में वामपंथी आंदोलन के प्रमुख स्तंभ थे। शायद ही ऐसा कोई आंदोलन हो, जिसमें उनकी उपस्थिति दर्ज न की गई हो। जीवन और व्यवहार के प्रति उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक था, इसलिए हर प्रकार के अवैज्ञानिक व्यवहार, सांप्रदायिकता और धर्मांधता के खिलाफ खड़े रहे।

एक शोषणमुक्त, समतामूलक समाज को बनाने की तड़प उनमें भरी हुई थी। यह तड़प उन्हें राजनीति में किसी भी समझौते के खिलाफ खड़ा करती थी। इसीलिए जहां उन्हें लगा कि वामपंथ अपने मूल्यों या सिद्धांतों के साथ कुछ समझौता कर रहा है, उसकी सार्वजनिक आलोचना से भी वे कभी नहीं चूके। ऐसी आलोचना के कारण उन्हें दूसरे साथियों की नाराजगी भी झेलनी पड़ती थी, लेकिन वे कभी नाराज नहीं हुए और न ही किसी व्यक्ति को उन्होंने कभी निशाना बनाया। बस मुस्कुराते रहे। उनकी यह मुस्कान व्यक्तिगत नहीं, सार्वजनिक थी। इस मुस्कान में उनका बौद्धिक अक्खड़पन अंत तक कायम रहा।

पत्रकारिता के साथ ही सोशल मीडिया में भी वे काफी सक्रिय थे। देश-दुनिया की ताजा खबरें हमें उनकी पोस्टों से ही सबसे पहले मिलती थी लिंक के साथ। दूसरे दिन के सबेरे के अखबार तो केवल उनकी पोस्टों का दुहराव भर बन जाते थे।

कोरोना बीमारी जरूर है, लेकिन इसे महामारी और सांघातिकता का रूप देने में भाजपा की मोदी सरकार का ही योगदान है। मुनाफे की हवस ने इस देश के दो लाख से ज्यादा बहुमूल्य जिंदगियों — बेहतरीन और प्रतिभाशाली कलाकर्मियों, साहित्यकारों, संगीतज्ञों, संस्कृतिकर्मियों, पत्रकारों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, शिक्षकों — को हमसे छीन लिया है। इनमें से एक गणेश तिवारी भी हैं। बिलासपुर एसएफआई ने वामपंथी आंदोलन को जो तीन हीरे दिए — उनमें से एक हीरा गणेश तिवारी थे।

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की छत्तीसगढ़ राज्य समिति उन्हें अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करती है तथा उनके शोक संतप्त परिवारजनों और मित्रों के प्रति हार्दिक संवेदना का इज़हार करती है।

कॉ. गणेश तिवारी को लाल सलाम!

संजय पारते

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