धरती को बचाने के लिए ईमानदारी से प्रयास करने ही होंगे ( पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल के अवसर पर

निर्मल कुमार शर्मा

            इस पूरे ब्रह्मांड में हमारी पृथ्वी ही हरी-नीली अभिनव रंगों से आभायुक्त अभी तक एकमात्र ग्रह है,जिस पर सांसों के स्पंदन से युक्त चलते फिरते जीव ,रंग-बिरंगी तितलियों, चिड़ियों,फूलों, फलों से लदे हरे-भरे,पेड़-पौधे,लताएं,नीला इन्द्रधनुषी आकाश,रिमझिम बरसात,पेड़-पौधे, जंगलों और बर्फ से ढके पहाड़,हरे विशालकाय घास के मखमली अंतहीन सपाट मैदान,उसमें अठखेलियाँ करते विभिन्नताओं से परिपूर्ण तरह-तरह के जीव-जन्तु आदि-आदि हैं । इस अनुपम धरती की ये समस्त जैव और वानस्पतिक सम्पदा के मूल में इस अनोखे ग्रह पर पानी और हवा की उपस्थिति है । अगर ये दोनों चीजें नहीं रहतीं,तो यह ग्रह ( हमारी पृथ्वी ) भी इस अनन्त ब्रह्मांड के अरबों-खरबों अन्य निर्जीव ग्रहों की तरह ही जीवन के स्पंदन के बिना, एकदम वीरान होती !             हमारी पृथ्वी का दो तिहाई भाग जल और एक तिहाई भाग थल है। इस अपार जल राशि का लगभग 97.5 प्रतिशत भाग खारा है और शेष 2.5 प्रतिशत भाग मीठा है। इस मीठे जल का 75 प्रतिशत भाग हिमखण्डों के रूप में, 24.5 प्रतिशत भाग भूजल,0.03 प्रतिशत भाग नदियों, 0.34 प्रतिशत झीलों एवं 0.06 प्रतिशत भाग वायुमण्डल में विद्यमान है। पृथ्वी पर उपलब्ध जल का 0.3 प्रतिशत भाग ही साफ एवं शुद्ध है। सामान्यतः मीठे जल का 52 प्रतिशत झीलों और तालाबों में, 38 प्रतिशत मृदा में, 8 प्रतिशत वाष्प के रूप में,1प्रतिशत नदियों में और 1 प्रतिशत वनस्पति में निहित है। धरती की सतह पर झीलों, नदी-नालों, तालाबों के रूप में जो पानी हमारे उपयोग के लिए बचता है,उसकी मात्रा सिर्फ .014 प्रतिशत ही है। एक आकलन के अनुसार, ‘ यदि विश्व भर के कुल पानी को आधा गैलन मान लिया जाए तो उसमें ताजा पानी आधे चम्मच भर से ज्यादा नहीं होगा और धरती की ऊपरी सतह पर कुल जितना पानी है,वह तो सिर्फ बूँद भर ही है, बाकी सब भूमिगत है। ‘पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक भारत में कुल उपलब्ध पानी का लगभग 70 प्रतिशत पानी प्रदूषित है। उत्तर की डल झील से लेकर दक्षिण की पेरियार झील तक पूर्व में दामोदर व हुगली नदी से लेकर पश्चिम में ठाणा उपनदी तक पानी के प्रदूषण की स्थिति एक सी ही भयानक है। गंगा,यमुना, सरयू,गोदावरी, कृष्णा ,नर्मदा जैसी सदानीरा नदियाँ भी आज प्रदूषित हो चुकी हैं।       

         जहाँ इजरायल जैसे देशों में वर्षा का औसत 25 से.मी. से भी कम है, वहाँ भी जीवन चल रहा है। वहाँ जल की एक बूँद तक व्यर्थ नहीं की जाती। वहाँ जल प्रबंधन तकनीक अति विकसित होकर जल की कमी का आभास नहीं होने देती। कम बारिश होने के बावजूद,उसका 98 प्रतिशत पानी को यत्नपूर्वक संग्रह कर लिया जाता है,वहाँ पानी को बर्बाद करने और प्रदूषित करने पर कठोर दंण्ड का प्रावधान है,वहीं भारत में केवल 15 प्रतिशत जल का उपयोग होता है और बारिश के अथाह,अमूल्य जलराशि के 85 प्रतिशत हिस्से को यूँ ही व्यर्थ में बहा दिया जाता है,और लगभग हर गर्मियों में पानी की कमी और भयंकर सूखे का कारूणिक रूदन किया जाता है,जबकि भारत में दुनिया की 17 प्रतिशत आबादी निवास करती है। वनों के अंधाधुंध कटाई,प्रकृति का दोहन और भूमि व जल संरक्षण के प्रति शासन की लापरवाही के कारण से ही भारतीय प्रायद्वीप के विश्व प्रसिद्ध चेरापूँजी,जो दुनिया में सबसे ज्यादे बारिश के लिए प्रसिद्ध है (वहाँ सालभर में औसतन 9150 मिली मीटर बारिश होती है )भी ,अब जल संकट से जूझ रहा है ।   

             भारत के कुल भूमिगत जल के ताजे पानी का औसत 91 प्रतिशत भाग सिंचाई में प्रयुक्त होता है। पंजाब में तो भूमिगत जल का 98 प्रतिशत तक जल का उपयोग सिंचाई में इस्तेमाल होता है, जबकि हरियाणा और राजस्थान के मामले में यह आंकड़ा क्रमशः 94.5 और 88.4 प्रतिशत है। ताजे पानी का मुख्य श्रोत हिमालय के लाखों सालों से जमें हिम ग्लेशियरों का गर्मी के दिनों में धीरे-धीरे पिघलने और वर्षा से नदियों के द्वारा मैदानी इलाकों में जल का सतत प्रवाह ,जो सभी जीवों के जीवन का आधार और भूगर्भीय जल का भी आधार होता है । भारत के राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग से हिमालयी ग्लेशियर अब तेजी से विलुप्त हो रहे हैं , अगर ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी की जलवायु गर्म होने की यही दर रही तो ,सन् 2035 तक ये सभी हिमालयी ग्लेशियर अपना अस्तित्व खो देंगे और वहाँ से निकलने वाली गंगा सहित सभी नदियाँ सूख जायेंगी । नेपाल स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट ने भी अनुमान व्यक्त किया है कि वर्ष 2050 तक इस तरह के सारे हिमनद पिघल जाँएंगे,जिससे इस क्षेत्र में पहले बाढ़ और फिर अकाल आने का ख़तरा बढ़ रहा है। संस्था के मुताबिक हिमालय से निकलने वाली नदियों पर कुल मानवता का लगभग पाँचवां हिस्सा ( लगभग 1 अरब 40 करोड़ जनता ) निर्भर है।   

             भारत में भूगर्भीय जल का अत्यधिक दोहन होने के कारण धरती की कोख सूख रही है। जहाँ मीठे पानी का प्रतिशत कम हुआ है,वहीं जल की लवणीयता बढ़ने से भी समस्या विकट हुई है। भूगर्भीय जल का अनियंत्रित दोहन तथा इस पर बढ़ती हमारी निर्भरता पारम्परिक जलस्रोतों व जल तकनीकों की उपेक्षा तथा जल संरक्षण और प्रबन्ध की उन्नत व उपयोगी तकनीकों का अभाव, जल शिक्षा का अभाव,आदि-आदि तमाम कारण हैं । उदाहरणार्थ एक रिपोर्ट के अनुसार ,पानी की भरमार वाली कुरुक्षेत्र जिले के लाडवा, शाहबाद और थानेश्वर के 1024 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले 273 गांवों के 19797 नलकूपों में से 9877 नलकूपों ने काम करना बंद कर दिया है। यानी यहां आधे से अधिक नलकूप नकारा हो गए हैं। भूमिगत जल स्तर की स्थिति करनाल में भी बेहद पतली है। यहां के घरौंडा और नीलोखेड़ी ब्लॉक के 940 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले 124 गांवों में 1291 नलकूपों ने काम करना बिल्कुल बंद कर दिया है। यह संख्या सिर्फ 124 गांवों के नलकूपों की है।         
        काफी दिनों से भूवैज्ञानिक जल के इस बेलगाम दोहन पर अंकुश लगाने और जलस्तर को रिचार्ज करने की सलाह दे रहे हैं । वैज्ञानिक भाषा में भूमिगत जल के तल को बढ़ाना रिचार्ज कहा जाता है । भू-वैज्ञानिकों के मुताबिक, साल भर में होने वाली कुल बारिश का कम से कम 31 प्रतिशत पानी धरती के भीतर रिचार्ज के लिए जाना चाहिए। उसी स्थिति में बिना हिमनद वाली नदियों और जल स्रोतों से लगातार पानी मिल सकेगा, लेकिन एक शोध के अनुसार, वर्तमान में कुल बारिश का औसतन 13 प्रतिशत पानी ही धरती के भीतर जमा हो रहा है। शहरों में तो 3 प्रतिशत भी नहीं । भारत में जनसंख्या विस्फोट ने जहाँ अनेक समस्याएँ उत्पन्न की हैं,वहीं पानी की कमी को भी बढ़ाया है। वर्तमान समय में देश की जनसंख्या प्रतिवर्ष 1.5 करोड़ प्रति वर्ष बढ़ रही है। ऐसे में वर्ष 2050 तक भारत की जनसंख्या 150 से 180 करोड़ के बीच पहुँचने की सम्भावना है। ऐसे में जल की उपलब्धता को सुनिश्चित करना कितना दुरुह होगा !समझा जा सकता है। आंकड़े बताते हैं कि स्वतंत्रता के बाद प्रतिव्यक्ति पानी की उपलब्धता में 60 प्रतिशत की कमी आयी है।   
                 जल जीवन का आधार है और यदि हमें जीवन को बचाना है तो जल संरक्षण और संचय के उपाय करने ही होंगे। जल की उपलब्धता घट रही है और मारामारी बढ़ रही है। ऐसे में संकट का सही समाधान खोजना प्रत्येक मनुष्य का दायित्व बनता है। यही हमारी राष्ट्रीय जिम्मेदारी भी बनती है। जल के स्रोत सीमित हैं। नये स्रोत हैं नहीं,ऐसे में उपलब्ध जलस्रोतों को संरक्षित रखकर एवं जल का संचय कर हम जल संकट का मुकाबला कर सकते हैं। इसके लिये हमें अपनी भोगवादी प्रवित्तियों पर अंकुश लगाना ही पड़ेगा और जल के उपयोग में मितव्ययी बनना ही पड़ेगा। जलीय कुप्रबंधन को दूर कर भी हम इस समस्या से निपट सकते हैं। यदि वर्षाजल का समुचित संग्रह हो सके और जल के प्रत्येक बूँद को अनमोल मानकर उसका संरक्षण किया जाये तो कोई कारण नहीं कि जल संकट का समाधान न प्राप्त किया जा सके। हम,हमारा समाज और हमारी सरकारें सभी वर्तमान जल संकट और नदियों के प्रदूषण के लिए समान रूप से दोषी हैं । पानी बर्बाद करने और उसे प्रदूषित करने में हम,इस दुनिया में सर्वोपरि हैं । एक तरफ हम नदियों को ‘माँ ‘से सम्बोधित करने का ढोंग करते हैं,दूसरी तरफ उनमें सभी तरह के प्रदूषित चीजों यहाँ तक कि मानव मल-मूत्र तक विधिवत डालने में जरा भी संकोच नहीं करते ! यह दीगर बात है कि हम प्रतिदिन शाम को उनकी आरती उतारने का ढोंग जरूर करते हैं ।

        कोई भी प्राकृतिक जल श्रोत यथा गंगा नदी भी जो दुग्ध धवल बर्फ की चोटियों से निकलती है, वह बिल्कुल स्वच्छ ही निकलती है,उसमें तमाम गंदगी डालकर हम स्वंय उन्हें गंदा करते हैं । सिर्फ एक नदी गंगा के उद्गम श्रोत गंगोत्री के आस-पास जंगलों को मत काटिए और उसके किनारे बसे तमाम गाँवों ,कस्बों और शहरों के प्रदूषण को उसमें मत डालिए । सिर्फ गंगा की स्वच्छ अविरल धारा ही अपने स्वच्छ, निर्मल, मीठे जल से इस सम्पूर्ण देश की एक सौ पैंतीस करोड़ लोगों की प्यास बुझा देगी । हम इमानदारी से काम ही नहीं करना चाहते , केवल पाखण्ड और ढोंग करते हैं ,कभी धर्म के नाम पर ,कभी आस्था के नाम पर ,कभी परम्परा के नाम पर ! इन वजहों से हम दुनिया में हँसी के पात्र बन के रह गये हैं । हम नदियों को नदी नहीं समझते हैं , हम उन्हें अपने सम्पूर्ण शहर की गंदगी बहाने वाला नाला समझ लिए हैं और यही इस देश की प्रदूषण और स्वच्छ पानी की असली समस्या की जड़ है । अभी ‘कोरोना संक्रमण के चलते हुए लॉकडाउन में गंगा,यमुना सहित सभी नदियाँ इसीलिए बगैर सफाई किए ही,स्वच्छ नीले जल में परिवर्तित हो गईं हैं,क्योंकि हमने ऋषिकेश से कोलकाता तक की लाखों फैक्ट्रियों का जहरीला रसायन उसमें नहीं छोड़ रहे हैं।-

निर्मल कुमार शर्मा

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