न्यायपालिका द्वारा आरक्षण के जनवादी अधिकार पर लगातार किये जा रहे हमलों का पुरजोर विरोध करो

सुप्रीम कोर्ट के 5 जजो की बेंच ने आदेश दिया है कि आरक्षण पर क्रीमीलेयर के सिद्धांत को तत्काल लागू किया जाए और राज्य सरकारों को केंद्रीय सूची में शामिल अनुसूचित जाति व जनजातियों का उप वर्गीकरण करने की अनुमति दी है, ताकि “कमजोर से भी ज़्यादा कमज़ोरों ” को प्राथमिकता दी जा सके। जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली संवैधानिक बेंच ने कहा है कि आरक्षण ने अनुसूचित जातियों व जनजातियों में असमानता पैदा की है।

इस आदेश को लेकर जातिउन्मूलन आंदोलन के केंद्रीय कार्यकारिणी की ओर से कॉमरेड बन्दू मेश्राम ने बयान जारी कर कहा है कि यह बात इस तरह कही गयी है जैसे की समाज में अन्य जातियों, धर्मों आदि में असमानताएं बढ़ी ही नहीं है। इस आदेश में अरुण मिश्रा, जो की सुप्रीम कोर्ट के सबसे ज़्यादा संक्रमित ब्राम्हणवादी लॉर्ड हैं, ने गरीबों के प्रति चिंता जाहिर करने के नाम पर इस आदेश के खिलाफ, 2004 में जारी 5 सदसीय जजों की बेंच का आदेश लाया है जिसमें आरक्षण में फेरबदल करने के खिलाफ चेतावनी दी गई है। चूंकि यह आदेश 2004 में जारी फैसले को चुनौती देता है, इसलिये अब इस आदेश को 7 जजों की बेंच के पास भेजा गया है। मोदी सरकार और भारी संख्या में सुप्रीम कोर्ट में मौजूद उनके ब्राम्हणवादी न्यायाधीश, किसी भी तरह आरक्षण से छुटकारा पाना चाहते है, इसलिए 7 जजों की बेंच का आने वाला आदेश काफी महत्वपूर्ण है।

ना ही डॉ. अम्बेडकर जिन्होंने लोकतांत्रिक आधिकारों के लिए लडाई लड़ी और ना ही किसी और ने कभी यह दावा किया है कि आरक्षण से समाज में असमानता बढ़ती है। यह समाज के उन तबकों के लिए केवल एक जनवादी अधिकार है, जिन्हें सत्ता के सभी पदो और शिक्षा से हमेशा दूर रखा गया है। मजेदार बात यह है कि जब भी भूमि अधिकारों, आवास अधिकारों या दलितों या आदिवासियों, महिलाओं व बच्चों पर बढ़ते हमलों से जुड़े सवाल सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में लाये गये, तब उन्होंने कभी इतनी तत्परता के साथ पीड़ित शोषित लोगों के पक्ष में चिंता व्यक्त नहीं की। लेकिन जैसे ही उसके सामने आरक्षण का सवाल लाया जाता है, वह भी विशेषकर अनुसूचित जातियों व जनजातियों के आरक्षण का सवाल, तो वे “गरीबों में सबसे गरीब” “कमज़ोरों में सबसे कमज़ोर” की बातें करने लगते हैं। उनके वास्तविक वर्ग/जाति का पर्दाफाश उनके फ़ैसलों से ही हो जाता है। एक ऐसी शासन व्यवस्था जिसने गरीबों और उत्पीड़ित तबकों के एक बड़े वर्ग के लिए कुछ नहीं किया, वह जब उनके नाम पर मगरमच्छ के आंसू बहाने लगे, तो ये आंसू उनकी मदद के लिए नहीं बल्कि गरीब, शोषित, पीड़ित, वंचित लोगों के पास बचे आधिकारों के आखरी टुकड़े को भी उनसे छीन लेने के लिए है।ज्ञात हो कि इसके पूर्व भी अदालतो द्वारा कभी प्रोमोशन तो कभी,शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश तो कभी नॉकरी के मामले में आरक्षण के अधिकार को संकुचित या खत्म करने की कोशिश की जाती रही है।कॉरपोरेट परस्त संघियों के मार्गदर्शन में न्यायपालिका के इस मनुवादी सक्रियता के खिलाफ तमाम दलित शोषित उत्पीड़ित जनता से हमारा आह्वान है कि इसके खिलाफ एकजुट होकर विरोध करें।

बन्दु मेश्राम

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!