आदिवासी चुप कब तक रहें?

फोटो : कमल शुक्ला

कनक तिवारी

आदिवासी अस्मिता इतिहास की चिनगारी बनकर बार बार कौंध रही है। बिरसा मुंडा के संघर्ष की तरह छत्तीसगढ़ में आदिवासी जमींदार नारायण सिंह ने अंग्रेजी जुल्म के खिलाफ शहादत देकर बगावत का बिगुल फूंका। छिंदवाड़ा में बादल भोई, बस्तर में गुंडाधूर, डोंगरगांव में रामाधीन गोंड़, चैकी के लाल श्याम शाह जैसे कई आदिवासी जननायक अपने अधिकारों के लिए पसीना और खून बहाने प्रतिबद्ध रहे हैं। इन पुरखों के मुकाबले मौजूदा आदिवासी जुगनुओं की तरह प्रतिरोध के प्रतीक बनने जलते बुझते दीख रहे हैं। आदिवासियों को सत्ता और समाज हाशिए पर धकेल कर खारिज नहीं कर सकते। लोकतांत्रिक सरकार और मुख्यमंत्री आसानी से नहीं कह सकते कि हर आदिवासी अभियान के पीछे किसी विघ्नसंतोषी का हाथ है।

आदिवासियों को सरकार और संविधान द्वारा लादे गए उलझते प्रश्नों से रोजमर्रा की जिंदगी में जूझना पड़ रहा है। इन जिम्मेदारियों को राज्यपाल या अलग अलग राजनीतिक विचारों के आधार पर केन्द्र और राज्य शासन के हुक्मनामे को सौंपा नहीं जा सकता। सरकार समर्थक विधायकों का आदिमजातीय मंत्रणा परिषद में बहुमत होने से ग्राम सभा जैसी निचली प्रजातांत्रिक संस्थाओं के जनप्रतिनिधियों की आवाज कभी सुनी नहीं जा सकती। आदिवासी विरोध के कारण संसद ने अनुसूचित क्षेत्रों के लिए पंचायत का विस्तारण अधिनियम (पेसा) तथा वन अधिकारों का अधिनियम वगैरह बनाए। ग्राम सभाओं को विकास योजनाओं को मंजूरी देने के अधिकार खोजे गए। उन अधिनियमों की राज्य सरकारों द्वारा पूरी छीछालेदर की जा रही है। वन अधिनियमों, खदान अधिनियमों, राजस्व संहिताओं और अन्य सभी कानूनों में सरकारी स्तर पर जितना संभव हो, आदिवासियों के अधिकारों को गायब किया जा रहा है। अनावश्यक और बेतरतीब उद्योगों का जाल बिछाने खेती और रहायशी अधिकारों को छीना जा रहा है। आबकारी, पुलिस, राजस्व, वन तथा अन्य विभागों के अधिकारियों द्वारा उत्पीड़न करना जारी है। पांचवीं अनुसूची के क्षेत्राधिकार का इस्तेमाल करके किसी राज्यपाल ने कारगर विधायन, विनियम या अन्य नियम बनाते अधिनियमों को आदिवासी इलाकों में प्रभावशील होने से रोकने की कोशिश की है।

आदिवासियों की समस्याएं राजनीतिक पेंचबाजी और हथियारबंद सरकारी हिंसा के जरिए तय नहीं हो सकतीं। आदिवासी की अस्मत और अस्मिता लोकतंत्र की आंखें हैं। उनसे इंसानियत के मानक रूपों का क्षितिज समझ आता है। आरक्षण को लेकर ऊंची जातियों का नाक भौं सिकोड़ना सुप्रीम कोर्ट तक बार बार पहुंचता है। आरक्षण के बावजूद मलाईदार बजट के विभाग आदिवासी मंत्रियों को नहीं व्यापारी वृत्ति के मंत्रियों को दिए जाते हैं। मलाईदार विभाग नहीं रखने से उन्हें बदहजमी हो जाती है। आदिवासियों और दलितों को लूपलाइन तथा दोयम दर्जें के विभागों और स्थापनाओं में खपाया जाता है। सुप्रीम कोर्ट तक वर्ण चेतना के चलते कह चुका है कि तरक्की में पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने के पहले संविधान के अनुच्छेद 335 के तहत उनकी काबिलियत को देख लिया जाए। डाॅ ब्रह्मदेव शर्मा और अरविंद नेताम की अगुवाई में बस्तर में संविधान की पांचवीं अनुसूची के बदले पूर्वोंत्तर राज्यों में लागू छठी अनुसूची अमल में लाने की पहल की गई थी। उसे बनिया वृत्ति, अहंकारी सरकार और फाइव स्टार नस्ल के आदिवासी नेताओं की मिली जुली जुगत ने मिलकर कुचला।

तय ही नहीं हो पाया कि छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री आदिवासी थे या नहीं। सामासिक और सामाजिक एकता के प्रतीक रहे आदिवासी किसी मजहब में शामिल करने के आधार पर लामबंद क्यों किए जाते हैं। दलित बौद्ध धर्म में जाएं और आदिवासी ईसाई बनें। तो आग किसके घर में लगी?

जनविद्रोह या क्रांति का दूध गर्म होता है। ठंडा कर मलाई गड़प करने की वृत्ति को राजनीति कहा जाता है। आंदोलनकारी को जनविरोधी समझा जाता है। आदिवासी वर्ग में कई पुश्तैनी आरक्षणप्राप्त और सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। उन्होंने अपने कार्यकाल में समस्याओं का दूध गर्म तो नहीं किया लेकिन उनकी भी निगाहें सत्ता प्रतिष्ठान के बगलगीर बनने में हैं। पेसा और वन अधिकार अधिनियम में ग्राम सभा की भूमिका बेहद जिम्मेदार, बुनियादी, महत्वपूर्ण और समाधानकारक है। आदिमजातीय सलाहकार परिषद को अनुसूचित क्षेत्र या अनुसूचित जनजातियों की उन्नति और कल्याण के साथ प्रशासन के सभी मुद्दो पर सलाह देने का अधिकार क्यों नहीं हो सकता? संविधान आदेशों का तालाब नहीं बहती हुई नदी और समुद्र एक साथ है। संविधान सभा का मकसद कल्याणकारी प्रावधानों की चौहद्दी बनाना था। आदिवासी मंत्रणा परिषद से राज्यपाल का केवल सलाह करना संविधान का मकसद नहीं कहा जा सकता। आदिवासी नेता जयपाल सिंह के सही शब्दों में सलाह को परिषद की बंधनकारी राय के रूप में समझना ज्यादा मुनासिब होगा।

सोचा नहीं होगा संविधान सभा ने छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा आदिवासी आबादी के बावजूद सबसे बड़ा नक्सली अभिशाप उनको झेलना पड़ेगा। वैश्विक और देशी काॅरपोरेट की दुनिया संविधान के अनुच्छेद 39 के खिलाफ सरकारें गलबहियां करेंगी। आदिवासी इलाकों में जबरिया कारखाने लगेंगे और आदिवासियों की बेदखली होगी। नहीं सोचा होगा संविधान सभा ने कि आदिवासियों के अधिकारों पर मिली जुली हाराकिरी करते कांग्रेस और भाजपा के कारण सलवा जुडूम नाम का गैरसामाजिक हथियार सात सौ आदिवासी गांवों को जबरिया खाली कराकर उनका जीवन नेस्तनाबूद कर देगा। सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप नहीं किया होता, तो बस्तर का आदिवासी जीवन अब तक तबाह हो गया होता। केन्द्र सरकार की कई विशेषज्ञ रिपोर्टों के बाद बस्तर में बोधघाट बिजली परियोजना और देवदार वृक्ष लगाने का अभियान निरस्त कर दिया गया। उसके बाद भी काॅरपोरेट-सरकार गठजोड़ आदिवासी इलाकों को विकास का मुखौटा पहना रहा है। डा0 राजेन्द्र प्रसाद और अंबेडकर ने साफ कहा था संविधान बाद की पीढ़ियों का वसीयतनामा है।

निजाम वसीयत का तर्जुमा, इबारत या भाष्य इस तरह पढ़ रहा है। जैसे किसी पहाड़ी नदी के निचले भाग पर पानी पीते आदिवासी मेमने से ऊंचाई पर खड़ा सरकारी शेर कह रहा हो तुम मेरे पीने का पानी गंदला क्यों कर रहे हो। वक्त आ गया है आदिवासी अधिकारों को तर्क की इस्तरी चलाकर सपाट किया जाए। धुले हुए कपड़े से जैसे धोबी इस्तरी चलाकर झुर्रियां निकाल देता है। सदियों से विनम्र आदिवासियों को रीढ़ की सीधी हड्डी कर खड़े हो जाने का युग है। आदिवासियों ने अंगरेजी सल्तनत की चूलें हिलाने में शहरी सभ्यता के गैरआदिवासियों से पहले संघर्ष का बिगुल बजाया था। विरोधाभास है कि आदिवासी के लिए गैरआदिवासियों का किताबी बहुमत कानून और योजनाएं बनाए। आदिवासियों में समझ, विरोध और असहयोग की अलख जगाने के लिए अलबत्ता कई सही गैरआदिवासी कार्यकर्ता और विचारक सामने आते रहते हैं। क्रांति और संघर्ष में कोई जाति, क्षेत्र या वर्ग नहीं होता। आरक्षण का लाभ उठाकर कई आदिवासी नेता संघर्ष करने का मूल चरित्र खो देते हैं। उनके लापरवाह हस्ताक्षरों से आदिम जातीय सलाहकार परिषदों, विधानसभाओं और संसद में फतवा जारी किया जाता है कि उन्हें सर्वआदिवासी समाज का समर्थन है। आदिवासी जीवन के रहस्य, संदेश, समझ और इतिहास को सामूहिकता में जीते हैं। शहरी लोगों की सभ्यता के पैरोकारों की तरह निजी अहंकार के विश्वविद्यालय नहीं जीते। देश के भविष्य के लिए यह चुप्पी तोड़ने का समय है।

कनक तिवारी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!