पुलिस का एक और बर्बर चेहरा

अभी दो दिन पहले एक मामला गुना के पास स्थित एक गाँव जगनपुर का सामने आया, जब राजू अहिरवार नामक एक किसान ने सरकारी जमीन में फसल उगाने का अपराध किया। राजू अहिरवार और उसकी पत्नी सावित्री ने एक सरकारी जमीन में मेहनत करके फसल उगा ली। फसल के लिए उगाने के पहले उसने बीज और खाद का बंदोबस्त किया, जिसमें उसकी लगभग तीन लाख की रकम फंस गई । तंत्र को जब पता चला की राजू अहिरवार ने सरकारी जमीन में खेती की है, तो कुछ अफसर और पुलिस वाले जेसीबी लेकर पहुंच गए और राजू से कहने लगे कि इस जमीन को खाली करो। यह सरकारी जमीन है । राजू और उसकी पत्नी ने हाथ जोड़कर कहा कि हम फसल काटने के बाद इस जमीन को खाली कर देंगे लेकिन अफसरों ने उनकी बात नहीं मानी और जबरदस्ती उन्हें बेदखल करने लगे। अपनी मेहनत को बेकार होते देख राजू और उसकी पत्नी सावित्री ने झोंपडी में रखा कीटनाशक पी लिया। ऐसा मार्मिक दृश्य देखकर उनके बच्चे बिलख- बिलख कर रोने लगे। इस बीच राजू की बेहोश पत्नी को पुलिस वाले उठाकर ले जाने लगे, तो राजू का भाई शिशुपाल दौड़कर आया और विरोध करने लगा । तभी किसी महिला सिपाही को शिशुपाल का धक्का लग गया। फिर क्या था, अब उसकी पिटाई होने लगी। उसको बचाने के लिए एक महिला आई तो उसको भी पीटने लगे। यह दृश्य देखकर वहां काफी लोग एकत्र हो गए, तो पुलिस वाले और अफसर भाग खड़े हुए। दलित दम्पती की हालत गम्भीर बनी हुई है।
यह कितना दुर्भाग्य दृश्य है कि हम एक और स्वावलंबी भारत की बात करते हैं, लोकल की बात करते हैं और वही अगर एक भूमिहीन किसान सरकारी जमीन पर खेती करने का प्रयास करता है, तो उसे प्रताड़ित किया जाता है। यह लोकतंत्र का बेहद दुखद आख्यान है, जिस पर हम सिर्फ शर्मिंदा हो सकते हैं । और यह सब उस भाजपा सरकार के कार्यकाल में हुआ, जिसका प्रधानमंत्री आत्मनिर्भर भारत की बात करते हुए नहीं थकता।एक भूमिहीन किसान परिवार आत्मनिर्भर होने की दशा में कदम बढ़ा रहा था। ठीक है वह सरकारी जमीन थी। वहाँ राजू अहिरवार ने अपना घर तो नहीं बनाया था। वहां उसने फसल उगाने की ही कोशिश की थी और फसल वह अकेले नहीं खात।फसल समाज के लोग ही खाते। लेकिन हमारा सिस्टम इतना नीच हो गया है कि वह किसी गरीब मेहनतकश किसान के श्रम का मूल्य भी नहीं आंक सकता। उम्मीद की जानी चाहिए की-दलित वर्ग से आने वाले राजू अहिरवार और उसकी पत्नी के साथ बर्बर व्यवहार करने वाले दोषी लोग दंडित होंगे । पुलिस वालों पर कार्रवाई होगी। सोचना यह चाहिए कि इस सरकारी घटियापन के कारण एक मेहनतकश किसान दंपत्ति असमय काल के गाल में समा गए तो क्या होगा? बड़े-बड़े बड़े सेठ, भू माफिया न जाने कितनी सरकारी जमीनों पर कब्जा किए हुए बैठे रहते हैं । उनको कोई कुछ नहीं कहता लेकिन एक गरीब भूमिहीन किसान दम्पती अगर सरकारी जमीन में खेती करने की कोशिश करता है, तो उसे मौत की नींद सोने पर विवश कर दिया जाता है । धिक्कार है ऐसे तंत्र पर।

अंतहीन सिलसिला
इस देश में पुलिस का बर्बर चेहरा समय-समय पर उभरता रहता है । अब बहुत कम ऐसे अवसर होते हैं, जब हम पुलिस वालों की किसी अच्छे काम के लिए तारीफ कर सकें। ज्यादातर मामले में उनकी क्रूरता, हैवानियत ही सामने आती है। दो साल पहले मंदसौर में भाजपा सरकार ने प्रदर्शनकारी किसानों पर गोलियां दागी थी, जिसमें कुछ किसान मारे गए थे । वह फोटो अभी मेरे दिमाग के सामने है, जो मुझे पीड़ा से भर देती है कि किसान प्रदर्शन के लिए आगे बढ़ रहे हैं और सामने से पुलिस वाले उन पर बंदूक ताने हुए खड़े हैं। गोया किसान नहीं विकास दुबे टाइप के कोई गुंडे हैं, जो सरकार को हिलाने के लिये आगे बढ़ रहे हैं । नपुंसक तंत्र निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाकर सोचता है, वह लोकतंत्र को मजबूत कर रहा है । दुर्भाग्य की बात है कि हमारी सरकारें अपनी ही जनता को कुचलने का काम करती है। हम समझ नहीं पाते कि क्यों हमारी जनता अपनी स्मृतियों को मजबूत करके नहीं रखती ? वक्त आने पर गोली चलाने वालों को वह सबक सिखाने से क्यों अचूक जाती है? जो सरकारें जनता पर गोली चलवाती है, उनको सत्ता में एक दिन भी रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। फिर वह चाहे वह भाजपा की सरकार हो चाहे कांग्रेस की या किसी और की। जनता के सिर पर लाठी चलाना, उन्हें गोलियों से छलनी करना अंग्रेजों के समय का चरित्र तो समझ में आता है लेकिन आजाद भारत में भी पिछले तिहत्तर सालों में इस देश के आम लोगों को मौत के घाट उतारा जाता रहा है। न जाने कितने लोगों का सिर फोड़े गये । कितने लोगों को विकलांग कर दिया गया। और कितने लोगों की जानें ले ली गई। सिर्फ इसलिए कि लोग प्रदर्शन कर रहे थे। अपनी जायज मांगों के लिए आंदोलन कर रहे थे मगर पुलिस ने बर्दाश्त नहीं किया। कई बार मैं यह भी नहीं समझ पाता कि प्रदर्शनकारी राजभवन या मुख्यमंत्री निवास की तरफ बढ़ रहे होते हैं, तो उनको बीच में ही रोक दिया जाता है । और जब लोग उत्तेजित होते हैं, तो उनको मारापीटा जाता है। लोगों को रास्ते में इसलिए रोक दिया जाता है । क्या वे लोग आगे बढ़कर हिंसक वारदात कर देंगे? किस बात का डर अपनी ही जनता से? जबकि जनमानस भी यह बात समझता है कि हमें शांतिपूर्वक प्रदर्शन करना है । वह अपनी अभिव्यक्ति के लिए राज्यपाल या मुख्यमंत्री से मिलकर अपनी बात रखना चाहता है लेकिन उसे वहां तक पहुंचने नहीं दिया जाता । और फिर कहा जाता है कि इस देश में लोकतंत्र है । यह कैसा लोकतंत्र है, जहां लोक को ही रोक दिया जाता है? इससे भद्दा मजाक लोकतंत्र का और कुछ नहीं हो सकता। पुलिस की निर्ममता की असंख्य कहानियां है, जिसे हजार आँसू बहा कर भी नहीं लिख सकते । आंसुओं का सैलाब आ जाएगा, अगर हम पुलिस की बर्बरता की कहानियां लिखेंगे ।

गिरीश पंकज

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