सबका साथ, गया विकास, जनता का अविश्वास!

कनक तिवारी


उत्तरप्रदेश के सबसे बड़ी आपराधिक गतिविधियों के महानगर कानपुर में विकास दुबे नाम के आतंककारी खलनायक की वहशी हरकतों और उसके ड्रामाई फिल्मी अंदाज में एकाउन्टर ने पूरे देश की समझ के इलाके में खलबली मचा दी है। इस गैंगस्टर ने कथित तौर पर अपने किलेनुमा घर और आसपास के मकानों में छिपे सौ से अधिक घातक हथियारबंद गुंडों और हमलावरों के जरिए करीब 32 पुलिसकर्मियों की टीम को पिस्तौलों, बन्दूकों की गोलियों से छलनी कर उनमें से आठ की हत्या कर दी और उतने ही गंभीर रूप से घायल भी हुए। सघन इलाके में पूरी तैयारी और दहशतगर्दी के साथ हमला देश के सबसे बड़े प्रदेश और अपराध इतिहास का सबसे जघन्य पुलिसिया अनुभव है। ठीक कहा था विनोबा भावे ने नाम भले ही उत्तरप्रदेश हो, लेकिन दरअसल यह प्रश्नप्रदेश है। कानपुर राष्ट्रपति रामनाथ कोंविंद का गृहनगर है। उत्तरप्रदेश में गृह मंत्रालय का प्रभार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की जवाबदेही में है। गुंडा-पुलिस-नेता गठजोड़ तीन दशक से कानपुर में नासूर की तरह पकता रहा है।

योगी ने मुख्यमंत्री बनते ही वैलेंटाइन दिवस पर मिलने जुलने वाले युवजनों पर हमला करने को सबसे बड़ा अपराधविरोधी कृत्य बताकर अपने हाथों अपनी पीठ खूब ठोंकी थी। हिंसक अपराधियों को सबक सिखाने अदालत में भेजने के बदले मुख्यमंत्री ने कहा था जरूरत पड़ने पर उन्हें ठोंक देंगे। शुरुआती महीनों में ही करीब 38 एनकांउटर में 32 लोग मार दिए गए और 238 घायल हुए। उनमें अमूमन छुटभैये नस्ल के ही अपराधी थे। कातिल रसूखदार तो भाजपा, बसपा और सपा के बारी बारी से सत्तारूढ़ होते विधायकों, मंत्रियों की गोद में खुले आम बैठते रहे। विकास दुबे के संरक्षक मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष हरिशंकर श्रीवास्तव रहे थे और बाद में कई अन्य नेता। उसने 1990 से हत्या और अन्य अपराधों का आगाज़ किया जो बदस्तूर जारी रहा। 2001 में शिवली थाने के अंदर घुसकर उसने भाजपा नेता संतोष शुक्ला की सरेआम हत्या की। बाद में मामला दायर होने पर पुलिस के लगभग सभी पच्चीस कर्मी चश्मदीद गवाह होने पर भी अदालत में पलट गए और विकास रिहा हो गया। हमला मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह के कार्यकाल में हुआ। छूटने पर मुख्यमंत्री मायावती के दौर में न तो उस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में कोई अपील की गई और न ही सेवा नियमों में प्रावधान होने के बावजूद पुलिस कर्मियों के आचरण की कोई विभागीय जांच की गई।

विकास दुबे कथित तौर पर दो तीन दर्जन हथियार बेनामी लेकर अपने किलेनुमा मकान में छिपाए रखने का आरोपी भी है। अचरज है लगभग तीन दशकों से अपराध की दुनिया में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता और साठ से ज्यादा अपराधों में नामजद होने के बाद भी पुलिस के आला अधिकारी जानबूझकर आंख मूंदे रहे। दुर्भाग्यशाली उपजिला पुलिस अधीक्षक देवेन्द्र मिश्र ने चौबेपुर थाने के टाउन इंस्पेक्टर विनय तिवारी की विकास दुबे से सांठगांठ की शिकायत पिछले जिला पुलिस अधीक्षक को की थी। मौजूदा पुलिस अधीक्षक का कहना है ऐसी कोई शिकायत पुलिस रिकाॅर्ड में नहीं मिलती। इसके बावजूद शिकायत सोशल मीडिया में खूब वायरल हो रही है। ये दोनों पुलिस अधीक्षक जांच के दायरे में संक्रमित होने चाहिए। कई पुराने अधिकारी भी जिनकी शह पर एक मामलूी गुंडा अंततः आतंकवादी बनता देखा जा रहा था।

मानव अधिकारों के संस्थागत उल्लंघनकर्ता के रूप में उत्तरप्रदेश पुलिस देश में पहले नंबर पर है। 1970 और 1986 में कांग्रेस हुकूमत ने आदतन अपराधियों के खिलाफ गुंडा एक्ट पारित किया था। 2018 में योगी सरकार ने ही संगठित अपराधों को रोकने के लिए ज्यादा कड़ा कानून बनाया है। उसमें जमानत और अग्रिम जमानत मिलने का भी प्रावधान नहीं है। ये सब कानून अल्पसंख्यकों के खिलाफ मुखर लगते भी गृहमंत्री की भूमिका में रहे मुख्यमंत्री का दफ्तर केवल गाल बजाता रहा। उत्तरप्रदेश में अपराध देश में नंबर एक पर सरकारी संरक्षण, लापरवाही बल्कि नेताओं के प्रोत्साहन के कारण फल फूल रहे हैं। कौन मानेगा ऐसे खतरनाक अपराधी के घर आधी रात को धारा 386 भारतीय दंड विधान के एक मामूली प्रकरण की आड़ में गिरफ्तार करने गई पुलिस टीम का गठन, सावधानी और निर्देश बड़े पुलिस अधिकारियों की जानकारी के बिना रहा होगा? अपराधी के भाग जाने की संभावना के मद्देनजर कानपुर जिला सील क्यों नहीं किया जा सका। यह इंटेलिजेन्स की पुलिसिया असफलता आदतन भी है। मौजूदा पुलिस अधीक्षक का बेतुका कहना हुआ कि उन्हें अन्य खतरनाक अपराधियों की जानकारी है लेकिन विकास दुबे के संबंध में पर्याप्त इनपुट नहीं मिल पाया। नगर के दस और इलाके के तीस निगरानीषुदा बदमाशों की काली सूची की जन्मकुंडली में विकास दुबे का नाम पुलिस की मेहरबानी से नदारद है। पुलिस तो वही ढाक के तीन पात के आचरण पर जीवित रही आई।

योगी आदित्यनाथ ने संबोधित करते अपने मुंह से विकास दुबे का नाम तक चीन पर चुप्पी की तरह नहीं लिया। हर शहीद पुलिसकर्मी के परिवार को एक करोड़ रुपए की फौरी राहत और एक व्यक्ति को नौकरी देने से जनप्रतिरोध का मुंह बंद करने का सरकारी ठनगन इंसाफ की गलियों में नासूर की तरह देश में बहता ही रहा है। मजिस्ट्रेटी जांच की औपचारिक घोषणा की गई। मुद्दे ये भी हैं कि सैकड़ों बीघा जमीन और प्लाट विकास ने कैसे हथियाए। हथियारों का जखीरा किसके नाम से और क्यों आया। पुलिस में निचले और बड़े स्तर के अधिकारियों के साथ उसके टेलीफोन, धन की बंदरबाट और मिलने जुलने के क्या संबंध हैं। किन राजनेताओं से उसके कितने और आपसी खुले संबंध रहे हैं। वह उन्हें चुनाव जिताने के सबसे बड़े ठेकेदार का काम कब और क्यों करता रहा है। खुद भी उनके संरक्षण में पत्नी सहित चुनाव जीतता रहा। नकली, नपुंसक क्रोध या अज्ञात साजिश के जरिए उत्तरप्रदेश प्रशासन ने आनन फानन में विकास दुबे का किलानुमा घर जमींदोज़ कर दिया। संविधान और दंड प्रक्रिया संहिता में सरकारी नादिरशाही के प्रावधान नहीं हैं। अपराधियों को सजा दिलाने वाली सरकार ने खुद अपराध किया। संदेह क्यों नहीं हो कि खुल्ल्मखुल्ला विकास दुबे से गलबहियां करने वाली सरकार के अधिकारियों और नेताओं के खिलाफ भी साक्ष्य और दस्तावेज उसके मकान में कहीं छिपाए गए हैं। अपने बचाव के लिए उन्हें नेस्तनाबूद करना लाजिमी समझा गया होगा। यह ऐसा भूचाल है जिसके विरोध में सरकार से कहा जा सकता है कि एक या दो माह में अपराधी, नेता और पुलिस के बीच सांठगांठ पर श्वेत पत्र प्रकाशित करे। मजिस्ट्रेट तो क्या, हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज भी कभी मजबूत रिपोर्ट नहीं दे पाते। इलाहाबाद हाईकोर्ट (जज नहीं) की संस्थागत निगरानी में यदि जांच नहीं होगी, तो यह जघन्य हादसा पानी का बुलबुला बनकर जनता की उम्मीदों पर फूट जाएगा। जनस्मृति वैसे भी क्षीण होती है। जैसे सरकार की नीयत और न्यायपालिका की अब लगातार की जा रही हालत। विकास दुबे का एनकाउन्टर वैसे भी किसी घटिया फिल्म का कथानक ही तो है।

कनक तिवारी

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