आदिवासियों की रुढ़ी प्रथा, संस्कृति एवं जीवन दर्शन प्रकृति पर आधारित

अखातिज/अक्ति (बैसाख तीज) पंडूम विशेष

तोषण कुमार गोंड

बस्तर । आदिवासियों की रुढ़ी प्रथा, संस्कृति एवं जीवन दर्शन प्रकृति पर आधारित होती है। प्रकृति में मौसम के अनुसार जो बदलाव होता है उसी के आधार पर उनका तीज, तिहार, पंडूम मनाया जाते हैं।

मौसम के अनुसार वाद्य यंत्र बजाए जाते हैं, लोक गीत गाए जाते हैं इसलिए आदिवासियों की पहचान प्रकृति पूजक व प्रकृति के रक्षक के रूप में होती है। जब दुनिया में घड़ी व कैलेंडर का अविष्कार नहीं हुआ था, लोग पढ़े-लिखे नहीं थे तब भी आदिवासी समुदाय प्रकृति में होने वाले बदलाव को समझते हुए अपना हर एक कार्य सही तिथि (दिन) व समय में किया करते थे।

दुनिया में मौसम का पूर्वानुमान लगाने वाला कोई यंत्र तंत्र भी नहीं बना था उस समय से आदिवासी आसमान में आने वाले बादल, चांद सूर्य की स्थिति, वातावरण में गर्म एवं ठंडी हवाओं का रुख देखकर कितने महीने पश्चात, कौन से समय और कहां पर बारिश हो सकती है इसका पुर्वानुमान लगा लेते थे। जंगलों में आने वाले फल, फूल, पत्तियों व जीव जंतुओं की गतिविधियों को देखकर यह अनुमान लगा लेते थे कि इस वर्ष कौन सी फसल अच्छे से होने वाली है, अर्थात आदिवासी लोग प्रकृति का अध्ययन इतनी सुक्ष्मता से करते थे। आदिवासियों का प्रकृति के सानिध्य में रहने के कारण ही वह प्रकृति की भाषा समझता था। वह प्रकृति से उतना ही लेता था जितना उनकी आवश्यकता है। वह जल, जंगल, जमीन, हवा, चांद, सूर्य व आसमान आदि की सेवा करता है इसलिए उनको नुकसान पहुंचाने की भावना उनके मन में कभी नहीं आती है।

अखातीज (अक्षय तृतीया) का पंडूम जिसे वैशाख तीज भी कहा जाता है आदिवासियों के जीवन दर्शन का एक ऐसा प्रकृति पर्व है, जिसके बारे में यह कहा जाता है कि सभ्यता के विकास क्रम के दौरान जब जीवन में अनाज का महत्व और उसकी खेती की आवश्यकता आदिवासियों को समझ में आने लगी थी। उसी दौरान आदिवासी प्रकृति में होने वाले क्रमबद्ध बदलाव को बहुत ही करीब से महसूस करने लगे थे। उस समय मौसम में ऐसा परिवर्तन हुआ था जो एक निश्चित समय अंतराल के बाद दोबारा हुआ था। यह परिवर्तन लोगों का खुशी दे रही थी। उसको ऐसा लग रहा था जैसे बारिश आने वाली है वर्षा काल से पहले। यह अनुभव उनके लिए प्रकृति में प्रति वर्ष 12 माह में एक निश्चित समय अंतराल के बाद होने वाला प्राकृतिक चक्र था।

फिर सभी ने मिलकर प्रकृति से अच्छी बारिश की कामना करते हुए उनकी सेवा भाव से अर्जी विनती किए। उस समय उन्होंने अपने प्राकृतिक खेती के ज्ञान को नए सिरे से परीक्षण करने का सोचा। फिर हल का उपयोग करते हुए बीज डालने लगा। प्रकृति के प्रति मन में यह सेवा भाव लिए हुए कि अच्छी बारिश के साथ हमें इतना अनाज देना कि अगले साल इस दिन के आने तक हम सब के परिवार के लिए अनाज पूर जाए। इस प्रकार बारिश का मौसम भी जल्दी वह समय पर आ गया था। फिर इस प्राकृतिक कालचक्र का उन्होंने अपने पारंपरिक ज्ञान से लेखा-जोखा भी रखना सीखा। कहीं-कहीं इसका लेखा-जोखा पत्थर में लाईन (रेखा) बनाकर रखने लगे। एक साल देखा दूसरे साल देखा फिर इस प्राकृतिक कालचक्र पर उनका विश्वास बढ़ने लगा और उसी के अनुसार खेती करने लगे। इस प्रकार की खेती से अनाज भी अच्छा उत्पादन होने लगा और पूरा साल खुशी से बीतने लगा। फिर यह दिन भी लोग कभी नहीं भूले।

इस दिन को वे लोग सबसे अच्छे दिन के रूप में मानने लगे। यही कारण है कि अखातीज का यह दिन आदिवासी जीवन दर्शन में एक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं अच्छे दिन के रूप में माना जाता है। आदिवासी अपने इसी परंपरा का पालन करते हुए बस्तर में आज भी माटी तिहार/बीज पंडूम के बाद वैशाख तीज के दिन अक्ति में बीज पुटकी निकालते हैं। इसके पश्चात ही मौसम अनुसार बीज बुवाई का कार्य शुरू करते हैं। आदिवासियों के जीवन दर्शन में प्रकृति के बाद उनके पेन पुरखा ही उनके आराध्य के रूप में माने जाते हैं इसलिए आदिवासी इस अखातीज के दिन प्रकृति के साथ अपने पेन पुरखों की भी परसा पत्ता, महुआ पत्ता, महुआ पानी, अनाज एवं बीज आदि के साथ पारंपरिक तरीके से सेवा अर्जि करते हैं।

कोसोहोड़ी लंका कोट कहते हैं कि अक्ति का सीधा मतलब अकरना/ अखरना(बीज बो कर अंकुरण करने) की परंपरा ज्ञान की आरूढ़ विधि ही अक्ति है। मुख्य फ़सल की बोवाई हेतु मानसून की पूर्वानुमान पुरखों की आरूढ़ ज्ञान विधि से प्राप्त कर उनके प्रति सम्मान सेवा अर्पित करते हुए नव प्राकृतिक फलों की प्रथम उपभोग कर मनाया जाने वाला परंपरागत जनजातीय बाहुल्य समुदाय आधारित गांव के सभी समुदाय के लोगों द्वारा यह अक्ति तिहार आरूढ़ ज्ञान पर मानसून पूर्वानुमान द्वारा उत्कृष्ट बीज चयन कर उपचार अंकुरण करने की तिहार हैं। बैशाख ललेंज कोयतोड़ आरूढ़ के अनुसार अक्ति तिहार से मानसून पानी की गिरने की तिथि ज्ञात कर विज्जा पंडुम नेंग बनाकर खेतों में जैविक गोबर खाद को खेतों तक निकालने का समय होता है।

अक्ति के दिन के बिहाव की परम्परागत वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर कोसो होड़ी दादा कहते हैं कि अक्ति की महत्त्वपूर्ण तिथि के कारण ही कोयतोड़ मूल बीज देशहा समुदाय में इस दिन की बिहाव को अति उत्तम माना गया है क्योंकि माटी तिहार /अक्ति तिहार की मूल वैज्ञानिक कारण ही मानव समुदाय की #निरंतरता को बरकरार रखने के साथ उत्कृष्ट बीजों की परम्परागत आरूढ़ विधि से उपचार कर उचित मौसम में अंकुरण हेतु रोपित करने हेतु माटी याया, पुरखा पेन से अर्पण समर्पण कर रोपण की अनुमति विधि से है अतएव मानव समुदाय की वंश वृद्धि के लिए भी बिहाव नेंग (मंडा नेंग) को अक्ति तिथि को उत्कृष्ट माना गया है। ताकि उस समुदाय की वंश वृद्धि उत्कृष्ट हो सके।परन्तु कालांतर में इसकी परम्परागत वैज्ञानिक आधार से परे होकर लालची कुछ व्यक्तियों के द्वारा नाबालिग किशोरों की बिहाव करना चालू कर दिये। चंद गलतियों को कुछ चतुर सियाणा लोगों ने प्रसार कार्य की एक छ्त्रता को हथियार बनाकर अक्ति/माटी पंडुम के सम्बंध में सत्यता से परे तिरस्कृत रूप से लिख लिख कर बोल बोल कर बदनाम कर दिये। वर्तमान में सरकार की सजगता से नाबालिग किशोरों की विवाह पर प्रतिबंधित कर दिया गया है। इसलिए हमें हमारे पुरखों की आरूढ़ रुधिजन्य पंडुम की वैज्ञानिक आधारों को अध्ययन करते हुए अपनाने की जरुरत है। तभी हम प्रकृति में अच्छे फसल व वंश को संरक्षित संवर्द्धित रख सकते हैं।

तिरूमाल पवन नेताम दादा ने बताया कि हमारे सियान लोग चंदा/ जोनी उजर देख कर . हि माटी तिहार मनाते थे और बीज डाल देते थे और जिस दिन बीज निकाले मतलब तिहार होता था वही अक्ति है।

माखन लाल शोरी

सीधा मतलब है अक्ति मतलब अकरना/अखरना (बीज बो कर अंकुरण करने) की परंपरा ज्ञान की आरूढ़ विधि ही अक्ति है। मुख्य फ़सल की बोवाई हेतु मानसून की पूर्वानुमान पुरखों की आरूढ़ ज्ञान विधि से प्राप्त कर उनके प्रति सम्मान सेवा अर्पित करते हुए नव प्राकृतिक फलों की प्रथम उपभोग कर मनाया जाने वाला परंपरागत जनजातीय बाहुल्य समुदाय आधारित गांव के सभी समुदाय के लोगों द्वारा यह अक्ति तिहार #आरूढ़ ज्ञान पर मानसून पूर्वानुमान द्वारा उत्कृष्ट बीज चयन कर उपचार अंकुरण करने की तिहार हैं। अक्ति की महत्त्वपूर्ण तिथि के कारण ही #कोयतोड़ मूल बीज देशहा समुदाय में इस दिन की बिहाव को अति उत्तम माना गया है क्योंकि माटी तिहार /अक्ति तिहार की मूल वैज्ञानिक कारण ही मानव समुदाय की निरंतरता को बरकरार रखने के साथ उत्कृष्ट बीजों की परम्परागत आरूढ़ विधि से उपचार कर उचित मौसम में अंकुरण हेतु रोपित करने हेतु माटी याया, पुरखा पेन से अर्पण समर्पण कर रोपण की अनुमति विधि से है अतएव मानव समुदाय की वंश वृद्धि के लिए भी बिहाव नेंग (मंडा नेंग) को अक्ति तिथि को उत्कृष्ट माना गया है। ताकि उस समुदाय की वंश वृद्धि उत्कृष्ट हो सके। बैशाख ललेंज कोयतोड़ आरूढ़ के अनुसार अक्ति तिहार से मानसून पानी की गिरने की तिथि ज्ञात कर विज्जा पंडुम नेंग बनाकर खेतों में जैविक गोबर खाद को खेतों तक निकालने का समय होता है।

हेमन्त बस्तरिया दादा के अनुसार माटी तिहार(बीज पंडुम) के बाद अक्ति के दिन इधर गाँव-गाँव तरिया/डोबरा में सामूहिक मछरी छींचा जाता है, जिसे सीजन के आमा चानी के साथ डपका राँधा जाता है।

हेमन्त पोयाम जी कहते हैं कि हमारे यहाँ बीज पंडुम(माटी तियार) के साथ गाँव की जिम्मेदारनी से आम खाने और पहली बरसातपूर्व बीज बोने की अनुमति लिया जाता है, अक्ती में अपने अपने घरों घर की जिम्मेदारनी याया से आम,चरोंजी (चार) उपभोग करने की अनुमति लेते हैं, और कई कई अक्ती के दिन सूर्योदय से पूर्व खेत की थोड़ी सी जगह पे पहली धान बोया जाता है, जिम्मेदारनी याया के नाम एक मुर्गी/मुर्गी का सेवा अर्जी दिया जाता हैं,,,,

इस प्रकार आदिवासियों का यह प्रकृति पर्व सभ्यता के विकास क्रम में हमारे पुरखों के कुदरती ज्ञान की क्षमता को बताता है। कि वे भले ही आधुनिक युग के लोगों की भांति पढ़े लिखे नहीं थे किंतु प्रकृति में कुदरती व्यवहार को समझने की उनमें अद्भुत क्षमता थी।

कालांतर में आदिवासियों की इस गौरवशाली कुदरती संस्कृति में भी बाहरी संस्कृति के संक्रमण का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है। जिसका दुष्परिणाम है कि आखातीज का यह प्रकृति पर्व देश के कई प्रदेशों व क्षेत्रों में कुरूपित हो गया है अर्थात अपने मूल रूप से अलग किसी अन्य रूप में मनाया जाता है। जो पूंजीवादी व्यवस्था को बढ़ावा देता है एवं लोगों के मन में लोभ लालच पैदा करता है।

जब तक दुनिया में पूंजीवादी विचारधारा पैदा नहीं हुई थी, व्यक्तिगत स्वार्थ या संग्रहण की प्रवृत्ति नहीं आई थी, तब तक पर्यावरण का संतुलन अपवादों को छोड़कर अपने उत्तम स्तर पर था। नदियों में पानी 12 महीना रहता था। जंगलों में हरियाली हुआ करती थी। चिड़ियों के चहचहाने की आवाज सुनाई देती थी। जंगलों में तरह तरह के फल फूल खिले हुए देखने को मिलते थे। नाना प्रकार की जड़ी बूटियां मिलती थी। शरीर के लिए आवश्यक पोषक हमें प्रकृति से ही मिल जाया करता था। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता जबरदस्त हुआ करती थी। कम से कम बीमारियां फैलती थी और इसका इलाज प्रकृति प्रदत जड़ी बूटियों से ही हो जाया करता था। लोगों के बीच में भाईचारे की भावना हुआ करती थी। सामूहिक व सहचर्य पर आधारित जीवन हुआ करता था। किंतु आज के इस युग में जिसे विकासवाद करते हैं, वैज्ञानिक युग कहते हैं, जमाना आगे बढ़ चुका है ऐसा कहते हैं। लेकिन आप स्वयं ही समीक्षा कीजिए कि इस दौरान हमने क्या-क्या खोया है और और क्या-क्या पाया है? विकास के नाम पर पर्यावरण व प्रकृति का कितना विनाश हुआ है! सबको ज्यादा चाहिए! संग्रहण की भावना से सारे जंगल काट दिए जा रहे हैं! नदियों को रोक दी गई है! जमीन को खोद दिया गया है! आसमान में चारों ओर धुंआ ही धुआं दिखाई देता है! समय पर बारिश नहीं होती है! बेमौसम बारिश होती है! सर्दी कम पड़ने लगी है! गर्मी अत्यधिक पड़ने लगी है! बीमारियां महामारी का रूप लेने लगी है! अस्पतालों की संख्या दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ रही है! अपराधों की संख्या बढ़ रही है! लोग एक दूसरे को दुश्मन समझने लगे हैं! भाईचारे व आपसी सामंजस्य नाम की चीज बची नहीं है! सहचर्य का जीवन बचा नहीं है! आदिवासी समुदाय भी विकास के इस मकड़जाल में दिग्भ्रमित हो रहा है!

ऐसे समय वह परिस्थिति में भी अपनी परंपरा को बचाए रखना, अपनी संस्कृति व जीवन दर्शन को बचाए रखना, आदिवासी समुदाय के लिए एक बड़ी चुनौती है। विकासवाद के प्रवर्तकों को सोचना भी पड़ेगा कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते हुए हम सुरक्षित नहीं रह सकते हैं और इसके लिए सिर्फ आदिवासी समुदाय की जीवन दर्शन ही प्रकृति की रक्षा करने में सहायक हो सकते हैं। इसलिए आदिवासी समाज के लोग अपनी संस्कृति, रूढ़ी प्रथा व जीवन दर्शन को बचाए रखें यही हम सबके व दुनिया के हित में हैं। अन्य समुदायों के लोगों को भी आदिवासी समुदाय से सीखने की आवश्यकता है। उनकी जीवन मूल्यों को अपनाने की आवश्यकता है। ना कि उन्हें अलग-अलग प्रकार की परिभाषा देते हुए नकारने की आवश्यकता है। झूठे व विनाशक अहंकारों से बाहर निकलकर आने की आवश्यकता है। प्रकृति का संतुलन बना रहेगा तो हम सब का जीवन हंसी खुशी और प्रसन्नता से भरा हुआ होगा।

सेवा जोहार, पुरूड़ जोहार, माटी जोहार
तोषण कुमार गोंड

2 thoughts on “आदिवासियों की रुढ़ी प्रथा, संस्कृति एवं जीवन दर्शन प्रकृति पर आधारित

  • April 26, 2020 at 1:53 pm
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    बेहतरीन जानकारी। सभी पर्व त्योहार को कवर कर हमारा ज्ञान वर्धन करें

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  • April 26, 2020 at 3:11 pm
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    बहुत ही सुन्दर और सटिक जानकारी दादा

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