भीड़हिंसा, भय और शासक वर्ग

भीड़हिंसा किसी भी समूह या समुदाय के मानस में गहरे समाए हुए भय और पूर्वाग्रह का नतीजा होती है। यह भय पुश्त-दर-पुश्त हमारी अनुवांशिकी में उतर चुका होता है। इसका समाधान मनोवैज्ञानिक और आंतरिक स्तर पर ही होना है।

लेकिन शासक वर्ग की मंशा और राजनीतिक लाभखोरी का अध्ययन फिर भी होना चाहिए। इसका एक दिलचस्प ऐतिहासिक उदाहरण भी हमारे सामने है—

वह प्रथम विश्वयुद्ध का दौर था। अमेरिका दुनियाभर में स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मानवता की रक्षा के नाम पर इसमें शामिल हो चुका था।

तब ‘नेशनल एसोसिएशन फॉर दी एडवांसमेंट ऑफ कलर्ड पीपुल’ के सचिव ने अमेरिकी राष्ट्रपति को एक टेलीग्राम भेजकर पूछा—

“दुनियाभर में यदि हम मानवता और न्याय की दुहाई दे रहे हैं तो हमारे अपने देश को कलंकित कर रही ऐसी भीड़हत्याओं की खुलकर सार्वजनिक निंदा आप क्यों नहीं करते?”

राष्ट्रपति के कार्यालय ने इस टेलीग्राम को अटॉर्नी जनरल को अग्रेषित कर दिया। अटॉर्नी जनरल के कार्यालय ने जवाब दिया—

“संयुक्त राज्य अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के मुताबिक संघीय सरकार को ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करने का बिल्कुल भी कोई न्यायाधिकार नहीं है।”

एसोसिएशन ने इसके बाद टैनेसी के गवर्नर थॉमस राई से अपील की कि अपने राज्य के सम्मान को बचाने के लिए दोषियों को सजा दिलाने हेतु वे कार्रवाई करें। गवर्नर ने जवाब दिया—

“मैं पहले से कैसे मानकर चल सकता हूँ कि स्थानीय अधिकारी जिनका कर्तव्य है कि वे कैदियों की सुरक्षा करेंगे, वो इसमें विफल रहेंगे। और न ही मैं तब तक कोई कारर्वाई कर सकता हूँ जब तक कि स्थानीय अधिकारीगण या न्यायाधिकारी मुझसे इसके लिए अनुरोध न करें।”

तो इस तरह साबित हुआ कि बेचारी संघीय सरकार के मुखिया अमेरिकी राष्ट्रपति और राज्य सरकार के पास अपने नागरिकों की रक्षा के लिए कोई अधिकार ही नहीं था।

लेकिन पापी शासक-वर्ग कितना भी बड़ा राजनीतिक लाभखोर हो, उसे एक-न-एक दिन ग्लानि जरूर होता है।

साल 2005 में अमेरिकी सीनेट ने सामूहिक रूप से इसके लिए सार्वजनिक माफी मांगी कि जब अमेरिका में भीड़ हत्याओं का सबसे खूनी दौर चल रहा था, तब वह इसके खिलाफ कोई एंटीलिंचिंग कानून बनाने में विफल रही।

सनद रहे कि 1882 से 1968 तक अमेरिका में 4743 लोगों की हत्या भीड़ द्वारा की गई। लेकिन लिंचिंग के शिकार लोगों में जहाँ 3446 अश्वेत अफ्रीकी अमेरिकी थे, वहीं 1297 श्वेत लोग भी थे।

चाहें तो कोई अपने मुखिया को भी टेलीग्राम भेज सकते हैं! लेकिन टेलीग्राम की व्यवस्था तो एक विपक्षी नेता ने बंद करा दी। अच्छा चलिए, महाराज के महल के सामने टंगा घंटा ही बजा आएँ।

लेकिन हाँ, मुँह पर डिज़ाइनर गमछा बांध के जाएँ, अन्यथा …..।

अव्यक्त

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