राजहरा का चट्टान पुरूष

शंकर गुहा नियोगी की पुण्यतिथि 28 सितंबर पर विशेष

शंकर गुहा नियोगी एक तरह के रूमानी नेता थे जो जरूरत पड़ने पर ‘एकला चलो‘ की नीति का पालन भी करते थे। उनकी राजनीतिक समझ का लोहा वे लोग भी मानते थे जिनके लिए नियोगी सिरदर्द बने हुए थे। तमाम कटुताओं , तल्खियों और नुकीले व्यक्तित्व के बावजूद नियोगी ने कई बार राजनीतिक वाद-विवाद में अपने तर्कों को संशोधित भी किया। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में जब सभी विरोधी दलों ने मिलकर ‘भारत बंद‘ का आयोजन किया तो छत्तीसगढ़ में नियोगी अकेले थे जिन्होंने अपने साथियों को काम पर लगाए रखा। उन्होंने प्रस्तावित भारत बंद को देशद्रोह की संज्ञा दी। वे निजी तौर पर कई मुद्दों पर राजीव गांधी के प्रशंसक भी बन गए थे और अन्य किसी भी नेता को देश की समस्याओं को सुलझाने के लायक उनसे बेहतर नहीं मानते थे। राजीव की मौत के बाद वे मेरे पास घंटों गुमसुम बैठे रहे जैसे उनका कोई अपना खो गया हो। राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में निरोधित किए जाने के बाद जब उच्च न्यायालय के आदेश से उनकी रिहाई हुई तो नियोगी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी मिले। इंदिरा जी ने नियोगी को पर्याप्त समय देकर उन मुद्दों को समझने की कोशिश की जिनकी वजह से नियोगी प्रशासन के लिए चुनौती बने रहते थे।
कथित रूप से नक्सलवादी कहे जाने के बावजूद नियोगी को नक्सलवादियों से सहानुभूति नहीं थी। छत्तीसगढ़ क्षेत्र में बढ़ती जा रही नक्सलवादी हिंसा के प्रति उन्हें भी चिंता थी। वे अपने क्षेत्र में नक्सलवादियों के पैर पसारने की कोशिशों के प्रति सतर्क थे। ट्रेड यूनियन गतिविधियों में भावुक जोश या उत्तेजना कर देने को जो लोग नक्सलवाद समझते हैं , वे नियोगी के वैचारिक स्तर को समझ पाने में सदैव असफल रहे। इस प्रखर नेता में बच्चों की मासूमियत भी थी। कुछेक मौकों पर प्रशासन के कहने पर मैंने व्यक्तिगत तौर पर नियोगी को समझाइश दी और उन्होंने मेरी सलाह को माना भी लेकिन बुनियादी तौर पर वे प्रजातांत्रिक प्रक्रिया से ट्रेड यूनियन के संगठनात्मक ढांचे को चलाने के पक्षधर दिखाई पड़ते थे। यह बात अलग है कि कभी-कभी नियोगी में तानाशाही के तेवर भी दिखाई देते थे। उनके प्रारंभिक ट्रेड यूनियन जीवन के अनेक साथी जाने क्यों छिटककर दूर हो गए थे लेकिन उनसे किनाराकशी करने के बाद कोई भी ट्रेड यूनियन नेता उनका विकल्प नहीं बन सका।

कुल मिलाकर शंकर गुहा नियोगी एक बेहद दिलचस्प इंसान , भरोसेमंद दोस्त , उभरते विचारक और घंटों गप्प की महफिल सजाए रखने में सफल नायाब नेता थे। पूर्व बंगाल की शस्य श्यामला धरती से आया यह गमकते धान के बिरवे जैसा व्यक्तित्व भिलाई के कारखाने की लोहे जैसी सख्त बारूदी गोलियों का शिकार क्यों हो गया? नियोगी की हत्या छत्तीसगढ़ कीे प्रथम महत्वपूर्ण राजनीतिक हत्या है। जो लोग नियोगी को अंधेरी रातों में बीहड़ों और जंगलों में बिना किसी सुरक्षा के जाते देखते थे , उनके मन में यह आशंका जरूर सुगबुगाती रहती थी कि यह सब कब तक चलेगा? लेकिन अपनी मौत से बेखबर और बेखौफ नियोगी अपनी पूरी जिंदगी काँटों के ही रास्ते पर चलते रहे। उनकी मौत राष्ट्रीय घटना बनकर चर्चित हुई है। हम उन अदना हाथों को क्या दोष दें कि उन्होंने षड़यंत्रकारी दिमागों का एजेंट बनना कबूल किया। हत्यारों ने नियोगी की नहीं , ट्रेड यूनियन की एक अनोखी और बेमिसाल लेकिन सब पर छाप छोड़ने वाली जद्दोजहद की शैली की हत्या की है।

नियोगी ने अपने बच्चों तक के नाम अपने सपनों की कड़ी के रूप में रखे थे। क्रान्ति और फिर जीत और फिर मुक्ति यही तो कालजयी नेताओं के सपनों का अर्थ होता है। उन्होंने औसत ट्रेड यूनियन नेताओं की तरह कभी भी अपने अनुयायियों को उत्पादन ठप्प कर देने या कम कर देने की समझाइश नहीं दी। उत्पादन और उत्पादकता के पैरों पर चलकर ही श्रमिकों के हाथों में समाज परिवर्तन की मशाल वे थामना चाहते थे। यही कारण है कि अनेक मौकों पर जब परम्परावादी यूनियनों के काम के बहिष्कार का ऐलान किया। शंकर गुहा नियोगी ने सबसे अलग हटकर सैद्धांतिक और अनोखे फैसले किये कि काम बंदी करने का कोई प्रश्न ही नहीं है।

हमने अब तक तो किसी ऐसे श्रमिक , नेता को नहीं देखा जो संबंधित उद्योग की गतिविधियों की जानकारी रखने के अलावा सांख्यिकी की सूक्ष्म से सूक्ष्म की गणना से लैस हो। यही कारण है कि राजनेता, शासकीय अधिकारी और उद्योगों के जनप्रतिनिधि नियोगी से बातचीत की मेज पर जीत नहीं पाते थे। तथ्यों और आंकड़ों की ताकत के बल पर श्रमिकों के प्रतिनिधि खुद अपना भविष्य गढ़ सकें , यह भी शंकर गुहा नियोगी के देखे गये सपने का एक नया आयाम था। कितने ऐसे उद्योग समूह हैं जिनके नेता मजदूर आन्दोलन के इतिहास और उद्योगों से संबंधित जानकारियों की पुस्तकों को गीता , कुरान शरीफ या बाइबिल की तरह पढ़ते हैं , जो जाहिर है शंकर गुहा नियोगी करते थे।

कहने में अटपटा तो लगता है लेकिन अपने जीवन काल में नियोगी ने मजदूरों , किसानों और अपने समर्थकों के दिमागों के रसायन शास्त्र को जितना नहीं बदला उतना उसकी मौत की एक घटना ने कर दिखाया। लाखों मजदूरों के चहेते इस नेता की कायर तरीके से निर्मम हत्या कर दी जाए लेकिन उसके बाद भी बिना किसी पुलिस इंतजाम के उनके समर्थक हिंसा की वारदात तक नहीं करें , ऐसा कहीं नहीं हुआ। नियोगी के शव के पीछे मीलों चलकर मैंने यह महसूस किया कि जीवन का सपना देखने का अधिकार केवल उसको है जो अपनी मृत्यु तक को इस सपने की बलि वेदी पर कुर्बान कर दे। इसीलिए नियोगी व्यक्ति नहीं विचार है। पहले मुझे ऐसा लगा जैसे नियोगी के शव के रूप में एक मशाल पुरुष जीवित होकर चल रहा है और उसके पीछे चलते हजारों व्यक्तियों की भीड़ जिन्दा लाशों की शव यात्रा है। फिर ऐसा लगा कि यह तो केवल भावुकता है। शंकर गुहा नियोगी का शव फिर मुझे एक जीवित किताब के पन्नों की तरह फड़फड़ाता दिखाई दिया और उसके पीछे चलने वाली हर आँख में वह सपना तैरता दिखाई दिया। प्रसिद्ध विचारक रेजिस देब्रे ने कहा है कि क्रान्ति की यात्रा में कभी पूर्ण विराम नहीं होता। क्रान्ति की यात्रा समतल सरल रेखा की तरह नहीं होती। क्रान्ति की गति वर्तुल होती है और शांत पड़े पानी पर फेंके गये पत्थर से उत्पन्न उठती लहरों के बाद लहरें और फिर लहरें , यही क्रान्ति का बीजगणित है। शंकर गुहा नियोगी ने इस कठिन परन्तु नियामक गणित को पढ़ा था। बाकी लोग तो अभी जोड़ घटाने की गणित के आगे बढ़ ही नहीं पाए।

कनक तिवारी

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