क्या गांधी और टाॅल्स्टाॅय अर्बन नक्सल हैं ?

भीमा कोरेगांव के बहुचर्चित लेकिन जबरिया बनाए गए पुलिसिया प्रकरण में जागरूक मानव अधिकार कार्यकर्ता बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी और अब तक जमानत नहीं होने पर भारतीय संविधान को चिंता होनी चाहिए। हाल के वर्षों में ताजी-रात-ए-हिन्द और दंड प्रक्रिया संहिता की धाराएं संविधान के मूल अधिकारों के परिच्छेद पर चढ़कर मनोरंजक लेकिन घातक उछलकूद कर रही हैं। कई बार बंदरिया के बच्चे भी अपने मां बाप और आसपास की इमारतों और पेड़ों पर चढ़कर करतब दिखाते हैं। सत्ता का चरित्र ऐसा ही होता है। उसे तुलसीदास से परहेज होता है। वह सुनिश्चित करती है कि आईने अकबरी में गोस्वामी जी और रामचरित मानस का नाम बिल्कुल नहीं आने दे। इसके बनिस्बत चतुर, चाटुकार, सामंतवादी बीरबल को आसरा देती है। अलबत्ता बीरबल की हाजिरजवाबी इतिहास में ईष्या का विषय है। सरकारी सत्ता के सियासी सूत्रधारों के बगलगीर बनते कई दरबारी बुद्धिजीवी आंदोलन, विचार या बहस खड़ा करने में असमर्थ होते हैं। वे खुद को सामंती नस्ल के शब्दों को गढ़ने की फितरत के महारथी दिखाते अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते रहते हैं। आदिवासी वर्ग सरकारी कानूनों की उपेक्षा और हिंसा से होते दमन के मुकाबिल खड़ा होता है। उन्हें अपनी समझ के अनुसार नक्सलवादी समर्थन देते लगते हैं। नक्सलियों से नाइत्तफाकी रखते हुए कहा जा सकता है। समाज में तटस्थ, सक्रिय, संतुलित, प्रखर, प्रगतिशील और उन्नत विचारों के नागरिक प्रवक्ता मौजूद हैं। उनकी संख्या कम है लेकिन कशिश, सक्रियता और ईमानदारी नहीं। ऐसे चेहरों पर अर्बन नक्सल का पुलिसिया नकाब ओढ़ाया जाता है। अर्बन नक्सल नामकरण कूढ़मगज गिरोह ने किया है।

अंगरेजी नस्ल की इन्साफ की मशीनरी कई बार मानव और संवैधानिक अधिकारों का रक्षाकवच बनने के बदले विवादग्रस्त मीडिया के उलाहनों के शोर बाजार में अपनी आवाज को न्यायिक सिम्फनी समझकर भी सरकारी तंत्र के आर्केस्ट्रा में डूबती सुनाई जाती है। जिला न्यायाधीशों और वकीलों को हाईकोर्ट के जज प्रोन्नत करती न्याय प्रणाली जजों को सामाजिक विज्ञान के जरूरी विषयों और समकालीन वैचारिकी से पूरी तौर पर महफूज याने महरूम रखती है। नाॅम चाॅम्स्की, एडवर्ड सईद, सैमुअल हटिंग्टन, ग्राम्स्की, फूको, जैक देरिदा, बरतोल्त ब्रेख्त जैसे विदेशी धारदार नामों को छोड़ दें। तो भी जज विवेकानन्द, गांधी, ज्योतिबा फुले, नरेन्द्र देव, गोलवलकर, नम्बूदिरिपाद, पेरियार, मौलाना आज़ाद, अम्बेडकर, सरोजिनी नायडू, रमाबाई वगैरह के विचारों से मुठभेड़ करते कहां दिखाई देते है। ऐसे भी हाईकोर्ट जज हैं जो मोर मोरनी के आंसुओं और देश के प्रधानमंत्री को देवता समझने की तिकड़म से संलग्न होकर सुखी पदधारी भविष्य सुनिश्चित करते चलते हैं।

एक ताजातरीन विचारोत्तेजक वाकिया भीमा कोरेगांव मामले में अभियुक्त बनाए गए कथित अर्बन नक्सलों की जमानत कार्यवाही के दौरान बंबई उच्च न्यायालय में जस्टिस सारंग कोतवाल के कारण देश में वादविवाद का हेतु बना हुआ है। उससे गंभीरता को निचोड़ने की जरूरत है। कथित अर्बन नक्सलों के पास से अन्य पुस्तकों के अलावा संसार के महानतम उपन्यासकार काउंट लियो टाॅल्स्टाॅय की अमर कृति ‘वार एंड पीस‘ के शीर्षक वाली एक किताब ‘वार एंड पीस इन जंगलमहल‘ दबोचने में पुलिस ने अपनी पीठ ठोंकी। गफलत की ऐसी अद्भुत घटनाएं इसलिए होती हैं कि मूल अधिकारों का हनन करते सरकारी आदेशों के अनुपालन में पुलिस को विशेष अधिनियमों के तहत किसी बौद्धिक सामग्री को विस्फोटक या अन्य परिस्थितियों में अश्लील भी आरोपित कर सकती है। ‘वार एंड पीस‘ नाम सुनते ही विदेशी किताब समझते जज ने शायद कह दिया कि किसी अन्य देश की युद्ध संबंधी किताब को घर में रखने का क्या तुक? ‘वार एंड पीस‘ शब्द सुनकर भी उनकी टाॅल्स्टाॅय संबंधी अज्ञानता तो सिर चढ़कर बोली।

साहित्यकारों से ज्यादा टाॅल्स्टाॅय को भारत में गांधी ने अमर किया है। गांधी टाॅल्स्टाॅय से उनके 80 वें जन्मदिन पर 1908 में मिले। गांधी को मित्र डाॅ. प्राणजीवन मेहता ने टाॅल्स्टाॅय का पत्र ‘लेटर टू ए हिन्दू‘ शीर्षक का भेजा था। टाॅल्स्टाॅय ने पत्र तारकनाथ दास नामक अराजकता समर्थक को लिखा था जो भारतीय आजादी के लिए कनाडा के वैंकुअर से ‘फ्री हिन्दुस्तान‘ नाम का अखबार निकालता था। 1 अक्टूबर 1909 के पत्र में गांधी ने टाॅल्स्टाॅय को दक्षिण अफ्रीकी नस्लीय शासन में अपने हमवतनों की दूभर जिंदगी के बारे में तफसील से लिखा था। टाॅल्स्टाॅय ने 7 अक्टूबर को गांधी के विचारों का समर्थन करते जवाब भेजा। लिखा मैं तुमसे भाईचारा महसूस करता हूं और लगातार संपर्क रखूंगा। गांधी ने अपने अखबार ‘इंडियन ओपिनियन‘ के गुजराती और अंगरेजी संस्करणों में टाॅल्स्टाॅय के पत्र की बीस हजार प्रतियां छापकर बांटीं।

टाॅल्स्टाॅय ने अपनी पुष्तैनी अमीरी को खुदमुख्तारी की फकीरी में बदल दिया था। किसान और मजदूर बनकर रोजी कमाते भी वे लेखकीय जद्दोजहद में जुटे रहे। महान टाॅल्स्टाॅय के साहित्य से परेशान रूसी सरकार ने उनके प्रचार प्रसार सहायक लिपिक को गिरफ्तार कर लिया था। टाॅल्स्टाॅय विचलित नहीं हुए। उन्होंने चुनौती के स्वर में कहा लेखक तो मैं हूं। सरकार को मुझे गिरफ्तार करना था। गांधी और टाॅल्स्टाॅय भीमा कोरेगांव प्रकरण के वक्त जीवित होते तो अदालत में अर्बन नक्सल की हैसियत में हो सकते थे। नागरिक की अभिव्यक्ति और कर्तव्य की व्यापक आजादी के अर्थ में संविधान की लचीली व्याख्याएं इंसानियत का फलसफा आंसू, खून और रक्त की स्याही से ही लिख पाती हैं। भारत के कई जज सरकारी विचारों का केवल कानूनी और न्यायिक जुमला बनाते हैं। उससे बहुत मनोरंजक लेकिन मानव विरोधी मुकदमों का अंबार लगते देष देख रहा है।

गांधी ने टाॅल्स्टाॅय को अपनी ताजातरीन पुस्तक ‘हिन्द स्वराज‘ भेजकर आशीर्वाद और समर्थन भी मांगा था। टाॅल्स्टाॅय का समर्थन गांधी को ‘हिन्द स्वराज‘ के लिए मिला। वह सबसे बड़ा नैतिक प्रमाण पत्र हैै। गांधी ने अपनी अहिंसा की थ्योरी को टाॅल्स्टाॅय की थ्योरी से समानांतर और प्रेरित माना है। रूस में टाॅल्स्टाॅय की थ्योरी और भारत में गांधी की थ्योरी को बाद की पीढ़ियों ने खारिज कर दिया। टाॅल्स्टाॅय की रचनाओं की गांधी ने ध्यानपूर्वक पढ़ाई की। उसमें उनका उपन्यास ‘पुनर्जागरण‘ भी शामिल था। यह महान लेखक गांधी के ज़ेहन में शिक्षक और गुरु की तरह काबिज होता गया। अपने जीवन के आखिरी दौर में गांधी ने उसका आभार माना। कहाः ‘रूस ने मुझे टाॅल्स्टाॅय के रूप में शिक्षक दिया जिनसे मुझे अपनी अहिंसा के लिए मुनासिब आधार प्राप्त हुआ।‘ नौजवान गांधी एक साधारण एडवोकेट होकर दक्षिण अफ्रीका में बुनियादी इन्सानी हकों के लिए हिन्दोस्तानियों और अफ्रीकियों की भी जद्दोजहद की अगुआई कर रहे थे। गांधी ने टाॅल्स्टाॅय को अपनी अंतिम चिट्ठी 15 अगस्त 1910 को लिखी। इस पत्र का भी लेव टाॅल्स्टाॅय ने दोस्ताना जवाब दिया। जब वह खत गांधी के पास पहुंचा, टाॅल्स्टाॅय की मौत हो चुकी थी।

कनक तिवारी

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