युद्ध की भाषा हमारे समय का एक ऐसा आख्यान है जिसे स्पष्टतः सत्ता की आकांक्षाओं के लिए गढ़ा जा रहा है : रुचिर

आज सुबह का हिंदुस्तान टाइम्स देखिए ।


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस वक्तव्य को किस तरह समझा जाए ? जब वो 1999 की विजय का श्रेय जनता को देते हैं तो उनकी भावना समझ आती है ,लेकिन जब वो कहते हैं कि युद्ध सरकारें नहीं जनता लड़ती है तो लगता है कि क्या वाकई देश इतना बदल गया है ?
क्या सच में जनता युद्ध पक्षधर हो गई ?
हालांकि यह कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री का कहना है कि यदि युद्ध हुआ तो…लेकिन फिर भी इसे समझना होगा ।
यह इतना सीधा सादा मामला नहीं है ।
कोई ये क्यों नहीं कहता कि जनता शांति चाहती है ?
कहीं अब शांति की कामना करना भी राष्ट्रद्रोह तो नहीं हो जाएगा ? हकीकत यह है जनता ना युद्ध चाहती है ,ना लड़ती है ,पर खतरनाक यह है कि जनता को सुनियोजित रूप से युद्धोन्मादी बनाया जा रहा है ।
दुनिया ने जितने युद्ध भोगे हैं उनका दर्द क्या भुलाया जा सकता है ?
युद्धों ने दुनिया को कितना पीछे धकेला ये ताज़ा इतिहास है ।
जब जब आप युद्ध की बात करते हैं तब तब आप मानवता को और पीछे धकेलते हैं ।
युद्ध की भाषा हमारे समय का एक ऐसा आख्यान है जिसे स्पष्टतः सत्ता की आकांक्षाओं के लिए गढ़ा जा रहा है ।
ये आख्यान दुश्मन गढ़ने का है ,दोस्ती की बात तो अब दक़ियानूसी लगने लगी है ।

रुचिर गर्ग छत्तीसगढ़ सरकार के मीडिया सलाहकार हैं

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