एक ऐसा मीडिया-तंत्र जिसका मक़सद मुनाफ़ा और व्यापार होता ही नहीं , वह सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता के संघर्षों का एक मोर्चा मात्र होता है – कविता कृष्णापल्लवी

       इन खिले-खिले चेहरों के पीछे के राज़ को जानना कोई मुश्किल काम नहीं है ! ये मोदीजी के साथ 'हिन्दू' के मैनेजिंग डायरेक्टर और पोलिटिकल एडिटर की तस्वीर है ! देखिये तो ज़रा इन दन्तुरित मुस्कानों को और इनके राजनीतिक निहितार्थ दहाइए ! 

रफायल सौदे पर ‘हिन्दू’ के एन. राम ने जो गंभीर सवाल उठाये थे, उनमें से किसी का जवाब नहीं मिला ! पर दुबारा मोदी-शाह के सत्ता में आने के बाद ‘हिन्दू’ चुप है I माना जा रहा है कि अंततः जो होना था, वह हो गया, यानी एन.राम का जय श्रीराम हो गया ! उधर सेबी ने जबसे प्रणय रॉय और राधिका रॉय के ख़िलाफ़ कार्रवाई करके उनके एन.डी.टी.वी. के निदेशक बने रहने या उसमें कोई भी प्रबंधकीय पद लेने पर रोक लगा दी है, तबसे इस चैनल के भी सुर नरम पड़ गए हैं और उसने ‘उल्टी सीधी बात न कहना, नाज़ुक मुद्दे पर चुप रहना’ फार्मूले पर अमल करना शुरू कर दिया है ! ममता बनर्जी की छत्रछाया में कोलकाता का ‘टेलीग्राफ’ भाजपा शासन के ख़िलाफ़ काफ़ी विस्फोटक शीर्षकों के साथ खबरें छाप रहा था, वह भी अब चुनावों के बाद सुस्त पड़ गया है ! वैसे ‘आनंद बाज़ार पत्रिका’ ग्रुप तो पहले से ही दोहरा रुख अपनाए हुए था I एक तरफ ‘टेलीग्राफ’ अखबार भाजपा के ख़िलाफ़ आग उगलकर तृणमूल की सरकार की कृपाएँ हासिल कर रहा था, दूसरी ओर इसी घराने का ए.बी.पी. चैनल मोदी की अभ्यर्थना और गणेश-परिक्रमा में ‘जी न्यूज’, ‘आजतक’ और ‘इण्डिया टी.वी.’ से होड़ करता रहा है I

हमारे देश के जो लिजलिज लिबडल और चोचल ढेलोक्रेट इस मुगालते में जीते रहे हैं कि बुर्जुआ पार्टियों और संसदीय वाम जड़वामनों का मोर्चा बनाकर फासिज्म को शिकस्त दी जा सकती है, वही लोग बुर्जुआ मीडिया की मुख्य धारा के इन चन्द चैनलों और अखबारों से भी कुछ ज्यादा ही उम्मीद पाल बैठे थे ! इन गावदी ‘भलेमानसों’ के भेजे में यह बात घुसती ही नहीं कि जिन मीडिया मुगलों को सत्ता-विरोध के साथ-साथ व्यापार भी करना होता है, वे अंततोगत्वा अधिशेष निचोड़ने वाले उद्योगपति ही होते हैं, जन-हित के सिपहसालार नहीं होते ! जैसे ही इनके व्यापारिक हितों की कमजोर नस दबाई जाती है, फ़ौरन इनके सुर नरम हो जाते हैं और ये लाइन में लग जाते हैं ! दरअसल सत्ता-विरोध की छवि का भी मीडिया जगत के बाज़ार में एक भाव होता है I ऐसे अखबारों-चैनलों का अपना एक व्यापक दर्शक-पाठक समुदाय होता है I लेकिन कोई फासिस्ट या निरंकुश सत्ता जब भी विज्ञापन सहित इनके आर्थिक हितों पर चोट करती है और तमाम सरकारी एजेंसियों को काम पर लगाकर इनपर कानूनी शिकंजा कसती है, वैसे ही इनकी ढिबरी टाइट हो जाती है I इस सन्दर्भ में हमें मार्क्स का यह कथन भी नहीं भूलना चाहिए कि अखबार जब स्वतन्त्रता की माँग करते हैं तो वे दरअसल व्यापार की स्वतन्त्रता की माँग करते हैं !

उदारवादी-सुधारवादी बुद्धिजीवियों के विभ्रमों का लेकिन कोई अंत नहीं होता ! आप यह सोच भी कैसे सकते हैं कि हिन्दुत्ववादी फासिस्टों की जो सत्ता न्यायपालिका, चुनाव आयोग आदि सभी संस्थाओं को जेब में डाल चुकी है और अब तमाम काले कानूनों के साथ-साथ अब सूचना के अधिकार को भी समाप्त करने के लिए भी कदम उठा चुकी है, वह इस व्यवस्था के दायरे के भीतर भी कुछ चैनलों और अखबारों के विरोधी सुर को बर्दाश्त करेगी I जो लोग समझते थे कि तमाम सरकारी दबावों के सामने प्रणय रॉय या एन.राम शूर-वीर के समान डटे रहेंगे, वे न तो पूँजीवाद और व्यापार के अन्तर्निहित तर्क को समझते हैं, न ही फासिज्म को समझते हैं I

हमें इस बात को इतिहास की शिक्षाओं की रोशनी में समझाने की ज़रूरत है कि सत्ता की लाख कोशिशों के बावजूद, हर क्रांतिकारी आन्दोलन, या फासिज्म-विरोधी आन्दोलन अपने अग्रवर्ती विकास के साथ-साथ अपना वैकल्पिक जन-मीडिया तंत्र भी विकसित कर लेता है — एक ऐसा मीडिया-तंत्र जिसका मक़सद मुनाफ़ा और व्यापार होता ही नहीं ! वह, सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता के संघर्षों का एक मोर्चा मात्र होता है ! जो लोग भी व्यापारिक हितों के साथ-साथ सत्ता-विरोध का तेवर अपनाए हुए हैं, उन्हें फुसफुसा पटाखा साबित होना ही है, आज नहीं तो कल !

Kavita Krishnapallavi

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