तानाशाह से मत डरो – 4

आज की कविता

अपना ख़ून देखकर
वो सहमा रहता है कई रोज़
कई रोज़ ताकता है आसमान
अगर गिर जाए उस पर
बारिश की एक बूंद

इसलिए
तुम्हारे ख़ून में नहाकर
सुरक्षित रहता है वो
अपने मज़बूत बुर्ज में
मुस्कुराता है
हाथ उठा कर देता है
अभिवादन का जवाब

बराबरी नहीं है
उसके ज़ेहन या उसूल में
वो नहीं कह सकता आपको साथी
आपके साथ चलते
दुर्गंध आती है उसे

और उसकी ग्लानि
कहलवाती है आपको मित्र
लेकिन जोड़ देता है वो भाइयों बहनों
ग्लानि ही तो है
जो सबके साथ की बात करने लगती है
विच्छिन्न होकर

वो ऐसा कायर है
कि कभी जवाब देना पड़ जाए सबके सामने
तो बेशर्मी से हंस कर
रीढ़ लोप कर
मूढ़ता की हद तक विनम्र हो जाता है

इतना कुमति
कि अपने ऊपर हुए तंज़ में भी
ढूंढने लगता है अपनी तारीफ़
और फिर तृतीय पुरुष में
अपना नाम दोहराता है
किसी भयहारी मंत्र सा

आप उस से डरते हैं
वो अपने होने से डरा हुआ है…

मयंक

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