उस दिन सारे पुरुष स्त्री होना सीख जाएंगे
आज की कविता

मैं चाहती हूँ
दुनिया की तमाम स्त्रियां
एक दिन की हड़ताल पर चली जाएं
माँएं छुट्टी लें महानता के पद से
एक दिन रोते बच्चे को पुरुष के जिम्मे छोड़
अपनी पसंद का उपन्यास पढ़ने बैठ जाएं
चार बार उठे बिना चैन से हो खाना
खाने के बीच साफ न करनी पड़े बच्चे की पॉटी
आधी रात बच्चे के रोने से न टूटे नींद
अलसुबह न उठना हो दूध पिलाने
उस एक रात बचपन की सहेली को बुला
ड्राइंग रूम में सोफे पर फैल
देर रात तक मारे गप्पे
सारी माँएं इस दिन बच्ची बन जाएं
प्रेमिकाएं सारे चुम्बन स्थगित कर
अपने बाएं पैर की छिंगली से
प्रेमी के अहंकार को परे झटक
निकल पड़े लॉन्ग ड्राइव पर
लौटकर बताए कि कितना उबाऊ है प्रेमी का लहज़ा
और प्यार का तरीक़ा बोझिल
बताए कि वो आज भी है प्रेमी से बेहतर
और शहर में अब भी हैं कई ख़ूबसूरत नौजवान
आज भी है बारिश कितनी रोमांचक
आज भी है संगीत कितना मोहक
प्रेम करने के लिये और भी अच्छी चीजें हैं दुनिया में
पत्नियों को तो हड़ताल के लिए
इतवार ही चुनना होगा
उस दिन वो सोयी रहे देर तक
और उठकर सबसे पहले
घर के सामने लगाए अपनी नेमप्लेट
ये उन्हीं का चुना हुआ नाम हो
जिसे पुकारा जाना सबसे मीठा लगे
फिर अपने घर में इत्मीनान से पसर चाय पिये
इस वाले इतवार पत्नियां पहने
अपनी पसंद का रंग
खाएं अपने स्वाद का खाना
टीवी का रिमोट हो उन्हीं के हाथ
अपनी मर्ज़ी से देखे वो दुनिया
हड़ताल वाले दिन
सारी कामकाजी औरतें
दफ़्तर की लॉबी में बैठ ताश खेलें
ज़ोर ज़ोर से करें बातें
उनके कहकहों से गूंज उठे दफ़्तर
उनकी मौजूदगी से भर जाए हर कोना
उस दिन इन्हीं का कब्ज़ा हो
रिसेप्शन, कॉरिडोर, गेस्ट रूम और लिफ़्ट पर
सारे आदमी सीढ़ियों से चढ़े-उतरें
रोज़ उन्हें घूरने वाली नज़रें
जो बचकर निकलने की कोशिश में हो
तभी कोई कोकिला गुनगुना उठे
‘हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह खरीदार की तरह’
यूं शर्म से पानी-पानी आदमी के जूते भीग जाए
दुनिया की तमाम बेटियां, सहेलियां, सहकर्मी, दोस्त
दादी नानी चाची मामी बुआ भाभी
लेस्बियन स्ट्रेट सिंगल कमिटेड
यह वह ऐसी वैसी अच्छी बुरी
संज्ञा सर्वनाम क्रिया विशेषण
जिस दिन ये सब हड़ताल पर जाएंगी
यक़ीन मानिये
उस दिन सारे पुरुष
स्त्री होना सीख जाएंगे
श्रुत्य कुशवाहा