नक्सल, अर्बन नक्सल और लुटते आदिवासी

कनक तिवारी

‘अर्बन नक्सल‘ नामक विशेषण सत्ता ने कुछ वैचारिक एक्टिविस्टों पर चस्पा किया है। उस फलसफे को समझने की जरूरत है जो अरुंधति राय और गौतम नवलखा जैसे सक्रिय जन कार्यकर्ताओं ने अपने भाषणों में जिरह-श्रृंखला के जरिए व्यक्त करने की कोशिश की है। माओवादियों के कुछ रटे रटाये प्रतिबद्ध तर्क हैं कि संविधान और लोकतंत्र को व्यापक तथा अंतर्निहित जनसमर्थन नहीं है। वे कहते हैं कि संविधान एक जन-दस्तावेज नहीं है।

वह आज़ाद भारत में पूंजीपतियों, सामंतों और बूर्जुआ तत्वों का ही प्रलाप है। इसलिए ऐसे संविधान और लोकतंत्र से सर्वहारा की समस्याओं को हल करने की सर्वांगीण उम्मीद करना अनावश्यक है। अरुंधति इसके समानांतर यह कहती हैं कि आजाद होने के बाद भारत में एक ऐसा शासनतंत्र उभरा जो एक तरह की सरकारी हिंसा में विश्वास करता रहा है। वह हर कीमत पर जनआंदोलनों को राज्य की हिंसा के जरिए कुचल देना चाहता है। उन्हें नागालैंड, मणिपुर, गोआ, तेलंगाना, लालगढ़, छत्तीसगढ़, ओड़िसा, पंजाब और यहां तक कि कश्मीर में कथित उग्रवादियों को कुचलने के नाम पर सरकारी सैन्य ताकत के प्रयोग पर एक ही सांस में गुरेज है।

कश्मीर से छत्तीसगढ़ वगैरह की ऐतिहासिक यात्रा में साठ वर्षों से ज्यादा का अंतराल है। इन राजनीतिक घटनाओें के भौगोलिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अंतर है। असम सशस्त्र बल अधिनियम, 1958 निःसंदेह एक अमानवीय कानून है। वह प्रकटतः संविधान के अनुच्छेद 21 में नागरिकों को दी गई जीवन की सुरक्षा और गरिमा की गारंटियों के खिलाफ है। कानून के किसी विद्यार्थी द्वारा उसकी जनस्वीकार्यता का फतवा जारी नहीं किया जा सकता। देश के तमाम प्रतिबंधात्मक कानूनों की वैधता पर लेकिन संविधानसम्मत संस्था सुप्रीम कोर्ट ने समय समय पर ऐसे विधायन के पक्ष में निर्णय किए हैं। सुप्रीम कोर्ट राजनीतिक घटनाओं के ऐतिहासिक समसामयिक आकलन करने की विधि द्वारा गठित कोई अकादमिक जवाबदेह संस्था नहीं है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की जनचर्चाओं में आलोचना भी की जा सकती है। यद्यपि उनके अमल की अनदेखी नहीं की जा सकती।

लालगढ़, छत्तीसगढ़, ओड़िसा, आंध्र, बिहार, झारखंड या बंगाल वगैरह में माओवाद के चिंताजनक फैलाव की दार्शनिक जांच के पैमाने हैं। वे अलबत्ता ठीकठाक लगते हैं। संविधान सभा को बहुत से वायवी सैद्धांतिक मामलों तक पर बहस करने का पर्याप्त समय और उत्साह मिला। मूल अधिकारों और रिट याचिकाओं के माॅडल उसे अमेरिका और इंग्लैंड से मिल ही गए थे। लगभग बीस प्रतिशत दलित-आदिवासी जनता की सदियों पुरानी जीवन सड़ांध को खुशबू में बदलने के लिए संविधान निर्माताओं ने वांछित धैर्य और श्रम का प्रदर्शन नहीं किया। उस अभाव को इतिहास की चूक के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए। गांधी जैसे शिखरपुरुष ने खुद को संविधान सभा से अलग रखा। सभा ने भी गांधी-विचारों को तरजीह नहीं दी। गांधी को मलाल था कि आदिवासियों की समस्याओं के लिए जितना ध्यान देना था, उसके लिए उन्हें वक्त ही नहीं मिल पाया। संविधान का अजूबा है कि आदिवासियों की समस्याओं और अधिकारों को उनके परंपरागत प्राकृतिक अधिकारों के संदर्भ में रेखांकित नहीं किया गया। यह सुरक्षा जरूर ढूंढ़ ली गई कि राज्यपालों को यह अधिकार होगा कि वे मंत्रिपरिषदों से सलाह किए बिना यह तय करें कि संसद और विधानसभाओं में रचे गए अधिनियम और कानून आवश्यकतानुसार अनुसूचित आदिवासी क्षेत्रों में लागू ही नहीं किए जाएं। राज्यपालों को ये अधिकार भी दिए गए कि वे ऐसे इलाकों के लिए विधायिका की मदद के बिना कानून गढ़ सकते हैं।

यह केन्द्रीय चिंता है कि सभ्य नागरिक समाज को गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि आदिवासियों को खानाबदोश बना दिए जाने से नागर सभ्यता पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा। यह रोमानी आत्मविश्वास भी उभरता रहता है कि आदिवासी इस लड़ाई में कभी पराजित नहीं होंगे। बेहद महत्वपूर्ण है कि विश्व पूंजीवाद के दानव से लड़ने का सबसे बड़ा साहस आदिवासी दिखा रहे हैं। वे नहीं जानते कि पूंजीवाद क्या है। वे राजनीतिक व्यवस्थाओं को नहीं जानते। उन्हें नहीं मालूम है कि भारत क्या है और उसकी भौगोलिक सीमाएं क्या हैं। वे यह जरूर जानते हैं कि जंगल उनका है। नदियां, पहाड़, पशु पक्षियों का कलरव, रत्नगर्भा धरती के अवयव, ग्राम्य जीवन की लाक्षणिकताएं-सब कुछ उनकी हैं। बड़े कारखानों, खदानों, उद्योगपतियों, सरकारों, नेताओं, नौकरशाहों, व्यापारियों और बुद्धिजीवियों के जरिए उनका विकास हो सकता है-ऐसा वे नहीं मानते। संविधान, लोकतंत्र, चुनाव, मंत्रिपरिषद, न्यायपालिका, पुलिस मशीनरी वगैरह की मदद से यदि उनके जीवन में कोई ढांचागत परिवर्तन किया जाएगा तो वे किसी भी हालत में अपने अधिकारों के लिए आखिरी सीमा तक लड़ने मरने को प्रतिबद्ध रहेंगे। अंतरात्मा का इतना संदेश वे अब भी बूझते समझते हैं।

यदि आदिवासियों ने ठान लिया कि उन्हें उनकी जड़ों से उखाड़ा नहीं जा सकता तो वैश्विक बाजारवाद या किसी सरकार की ताकत आदिवासियों को पराजित नहीं कर सकेगी। माओवादियों में लड़ने का क्रांतिकारी जज्बा तो है लेकिन उनमें क्रांतिकारी दृष्टिकोण या समझ नहीं है। माओवादियों की खनिज नीति भी राज्य की खनिज नीति से जुदा नहीं है। वे भी बाॅक्साइट का खनन करने के पक्ष में हैं। उसे पहाड़ियों में छोड़ देने के पक्ष में नहीं जो आदिवासी चाहते हैं। माओवादियों के प्रवक्ताओं ने यह बार बार कहा है कि आदिवासी इलाकों में खनिजों का उत्खनन होना चाहिए, लेकिन कारपोरेट घरानों के बदले सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा। विस्थापित आदिवासियों को भूमियों का पर्याप्त मुआवजा भी दिया जाना चाहिए। उनकी बसाहट का पर्याप्त इंतजाम भी किया जाना चाहिए। माओवादियों का यह नजरिया आदिवासी विकास विरोधी है बल्कि विनाश समर्थक है? यदि रत्नगर्भा धरती को इसी दशक में पूरी तौर पर खोद दिया जाएगा तो भविष्य बांझ, ठूंठ बल्कि मुर्दा हो जाएगा। एक परिपूरक सवाल यह भी है कि कारखानों के लिए जितनी जमीनें जबरिया अधिग्रहित की जा रही हैं, क्या उतनी जमीनों की आधुनिक तक्नालाॅजी के चलते जरूरत भी है। ये भूमियां हड़पने के बाद वहां विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) घोषित करवाने के लिए पहल भी तो हो ही सकती है।

नक्सलियों ने राज्य को लिखकर कभी नहीं कहा कि संविधान की पांचवीं अनुसूची के अनुरूप संसद और विधानसभाओं के उन बहुत से कानूनों को अनुसूचित क्षेत्रों में लागू नहीं किया जाए, जो आदिवासियों का शोषण करते हैं। राज्यपाल तो ऐसे इलाकों में कानून बनाने के अधिकार का इस्तेमाल भी करें। राज्यपाल चाहें तो आदिवासियों की निजी भूमियों को छिनने से रोकें। वे चाहें तो कई अधिसूचनाएं और विनियम भी जारी कर सकते हैं जिससे आदिवासी के लिए जल, जंगल और जमीन सुरक्षित रहे। यदि ये ऐसा कर देते हैं तो आदिवासियों की आधी चिंताएं अपने आप दूर हो सकती हैं। हथियारों से खाद्य पदार्थ, फल या परिणाम नहीं झरते। नक्सली संविधान में विश्वास नहीं करते, न लोकतंत्र में और न ही वन्य परंपराओं में। आदिवासी इलाकों में उनकी जमीनें छिनने से रोकना एक संवैधानिक हथियार है। उसे चलाने से नक्सलियों को संविधान भी नहीं रोकता। तोप, गोला, बम, बारूद या लैंडमाइन संवैधानिक हथियार नहीं हैं। संविधान अधिकारों की परिभाषा देता है। उनको बचाने के लोकतंत्रीय रास्ते भी सूचीबद्ध करता है। यदि ये रास्ते कारगर नहीं हों तो फिर इनको ही सुधारने की बात हो सकती है। संवैधानिक उपचारों का विकल्प हथियार नहीं होते। हथियारों के उपयोग को खत्म या न्यूनतम करने के लिए ही तो संविधान और लोकतंत्र आए हैं।

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