भीड़हिंसा एक राष्ट्रीय बीमारी का लक्षण : महात्मा गांधी

तबरेज़ को पीट-पीटकर मारनेवाली भीड़वादी मानसिकता पर मन-ही-मन क्रूरतापूर्वक मुस्कुरा रहे लोग खुद अपने लिए भी ऐसी ही मौत चुन रहे हैं। वे अपने मासूम बच्चे-बच्चियों के लिए भी ऐसी ही मौत चुन रहे हैं।

क्योंकि एक बार जब सांप्रदायिक भीड़ को सामुदायिक शह और सामाजिक वैधता हासिल हो जाती है, तो वह कभी भी किसी के भी खिलाफ शंका या द्वेष के आधार पर हिंसा करने लगेगी।

कानून-व्यवस्था झारखंड पुलिस की तरह ही या तो तबरेज़ों की कराह से अपनी सांप्रदायिक क्रूरता की तुष्टि-पुष्टि करती रहेगी या फिर असहाय होकर टुकुर-टुकुर ताकती रहेगी।

हम चिल्लाते रहेंगे कि अरे वह तबरेज़ या मोहशीन नहीं, बल्कि मेरा बेटा अरहान या अरमान है, ‘हिंदू’ है, ‘सवर्ण’ है, लेकिन हमारी स्वपोषित भीड़ उसे मार-मारकर खून से लथपथ कर रही होगी।

वह भीड़ किसी ‘हिंदू’ बेटी सानिया और रूहानी को भी मुस्लिम समझकर उनपर हिंसा कर रही होगी। तब हमें मंटो की कहानी ‘घाटे का सौदा’ याद आएगी और हम अपनी मूढ़ता और अमानवीयता पर शर्म करने लायक भी नहीं बचेंगे।

हमारा अपना हमजात पुलिसवाला चोरमूहें की तरह बगलें झाँक रहा होगा या बगल के चौक-चौराहे पर वाहन-चालकों के लाइसेंस टटोलकर पैसे ऐंठ रहा होगा। क्योंकि भीड़ से उलझने की उसकी नैतिक और नैष्ठिक शक्ति पूरी तरह खत्म हो चुकी होगी।

महात्मा गांधी ने सामूहिक हिंसा के दो रूप पहचाने थे— पहली, सरकार द्वारा की गई हिंसा और दूसरी, भीड़ द्वारा की गई हिंसा।

23 फरवरी, 1921 को यंग इंडिया में गांधी लिखते हैं—

“सरकारी आतंकवाद की तुलना में जनता [भीड़] का आतंकवाद लोकतंत्र की भावना के प्रसार में अधिक बाधक होता है। क्योंकि सरकारी आतंकवाद [जैसे डायरवाद] से लोकतंत्र की भावना को बल मिलता है, जबकि जनता [भीड़] का आतंकवाद लोकतंत्र का हनन करता है।

इससे पहले भी 28 जुलाई, 1920 को यंग इंडिया में गांधी ने लिखा था—

“मैं खुद भी सरकार की उन्मत्तता और नाराजगी की उतनी परवाह नहीं करता जितनी भीड़ के क्रोध की। भीड़ की मनमानी राष्ट्रीय बीमारी का लक्षण है। सरकार तो आखिरकार एक छोटा सा संगठनमात्र है। जिस सरकार ने अपने आपको शासन के लिए अयोग्य सिद्ध कर दिया हो, उसे उखाड़ फेंकना आसान है, लेकिन किसी भीड़ में शामिल अज्ञात लोगों के पागलपन का इलाज ज्यादा कठिन है।”

लेकिन ये अज्ञात लोग कौन हैं? हमारे ही बच्चे हैं, युवा हैं। उनके भीतर जो ऊर्जा है वह किसी-न-किसी दिशा में लगनी ही है। वह ऊर्जा देश को बनाने के काम में लगती तो कोई बात थी।

लेकिन हमने ऐसी व्यवस्था खड़ी की है जिसमें या तो वह नौकर, ग़ुलाम और शोषित बनेगा या फिर बेरोजगार, शोषक, गुंडा और मनोरोगी ही बनेगा।

रही-सही कसर हमारी वह खंडवादी मानसिकता पूरी कर देती है जिसमें हम जाति, नस्ल, भाषा, संप्रदाय और राष्ट्रीयता के आधार पर खंडित होते जाते हैं।

फिर हमारे निराश युवाओं को ‘ईश्वर’ और ‘धर्म’ की अनर्थकारी व्याख्याएँ भाने लगती हैं। हर संप्रदाय में यही हो रहा है। जो जहाँ बहुसंख्यक है, वह वहाँ अपने धर्म और ईश्वर का मूर्खतापूर्ण झंडा लहराते हुए अमानवीय हिंसा में लगा हुआ है।

हमारा ही बच्चा अब गुंडा बन चुका है। घर के भीतर भी सबको आँखें दिखा रहा है। हर तरह का नशा करता है। हमसे जबरन पैसे छीनता है। और बाहर जाकर धर्म, ईश्वर और दल के नाम पर हुल्लड़ मचाता है।

हमारी ही गलती से गुंडे बन चुके और बन रहे युवाओं के लिए गांधी ने 14 सितंबर, 1940 को ‘हरिजनसेवक’ में लिखा था कि गुंडई एक प्रकार की बीमारी है जिसके लिए सामाजिक तौर पर हम सब जिम्मेदार हैं।

त्वरित और अनियोजित भीड़ का रूप लेकर खूनी बनते जा रहे अपने बेटों-भाइयों की बीमारी का इलाज करने के बजाय हम मन-ही-मन मुस्कुरा रहे हैं कि इससे अमुक धर्म की जीत हुई, अमुक भगवान की श्रेष्ठता साबित हुई।

22 सितंबर, 1920 को गांधी ने ‘यंग इंडिया’ में लिखा था—

“केवल थोड़े से बुद्धिमान कार्यकर्ताओं की ज़रूरत है। वे मिल जाएँ तो सारे राष्ट्र को बुद्धिपूर्वक काम करने के लिए संगठित किया जा सकता है और भीड़ की अराजकता की जगह सही प्रजातंत्र का विकास किया जा सकता है।”

यह तभी हो सकता है जब हम सब घर के भीतर और बाहर अपने बच्चों से, किशोरों से, युवाओं से अभी से इसपर बात करना शुरू करें। उनकी हताशा, निराशा, हिंसकता और पंथमूढ़ता के मूल कारणों को समझें और उनका निदान करें।

सभी प्रकार के गलत कार्यों और धंधों में लिप्त हमारी संतानें, संगठन और राजनीतिक दल जब अपने दूषित मुँह से ‘संप्रदायार्थक धर्म’, ‘दुर्व्याख्यायित भगवान’और ‘ख्याली राष्ट्र’ की जय-जयकार करें, तो उसे अपनी जीत मानकर लहालोट मत हों।

पहले तो जन्मदाता अभिभावक ही इस बीमारी से उबरें। क्योंकि स्वस्थ माता-पिता ही स्वस्थ संतानों की जन्म दे सकते हैं और उन्हें सच्चा मनुष्य बना सकते हैं।

पहले हम स्वयं पंथमूढ़ता की खूनी बीमारी से ग्रस्त हुए, और अब हमारी बीमार संतानें पथभ्रष्ट होकर जहाँ-तहाँ खूनी भीड़ में बदल रही हैं।

अव्यक्त के फेसबुक वॉल से

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