उड़ीसा का मोदी सीधा सरल नही मोदी की तरह दंगा का आरोपी भी है

अगर सादगी का पैमाना मोदी-अमित है तो मंत्री पद उसी का ईनाम है

धीरेश सैनी

प्रताप चन्द्र षडंगी बड़े सादे हैं। उनके कपड़े देखिए, उनकी दाढ़ी देखिए। उनकी सादगी देखिए, उन्हें उड़ीसा का मोदी यूँ ही नहीं कहा जाता है।

ये सब टीवी चैनलों से निकल रहे वाक्य हैं जो फेसबुक पर भी तैर रहे हैं। तो पहले यह तय कर लीजिए कि सादगी का पैमाना किस के कपड़ों को बनाएं, षड़ंगी के या मोदी के.

चलिए, यह बताइए कि राजनीति में और मौजूदा राजनीति में, मौजूदा राजनीति के सबसे ज़्यादा कामयाब और लोकप्रिय लोगों के लिहाज से सादगी क्या वाकई बड़ा मूल्य है।

युवा पत्रकार प्रज्ञा श्रीवास्तव लिखती हैं, “जिस इंसान को ज्यादातर लोग जानते ही नहीं. उसके लिए सबसे ज्यादा तालियां क्यों बजीं! ओडिशा के बालासोर से सांसद और मोदी कैबिनेट में मंत्री पद का शपथ लेने वाले प्रताप षडंगी पर 7 क्रिमिनल केसेज हैं. ओडिशा में कुष्ठ रोगियों के लिए काम करने वाले ग्राहम स्टेन्स को 23 जनवरी 1999 को उनकी ही गाड़ी में जलाकर मार डाला गया था. उस वक्त गाड़ी में ग्राहम के दो मासूम बच्चे भी जलकर मर गए. ये मर्डर बजरंग दल वालों ने करवाया था. और उस वक्त ओडिशा में बजरंग दल के स्टेट को-ऑर्डिनेटर थे कल से लोकतंत्र की प्रतिमूर्ति बन गए प्रताप षडंगी. बीजेपी मीडिया मैनेजर को अच्छे से पता है कि लाइमलाइट कहां लेना है. अचानक से एक बंदे को हीरो बना दिया. खेल गए अच्छे से ये लोग. और हम सब बेवकूफ़ बन गए.”

जाने दीजिए, यह बताइए कि राजनीति में जो नीति शब्द है, उसका क्या मूल्य है। यह नहीं कहिए कि कोई मूल्य नहीं। जो क़ामयाब हो रही है, वह भी आख़िर एक नीति है। सोची-समझी नीति। यह बताइए कि साधारण कपड़े पहनकर साम्प्रदायिकता की नीति को समर्पित होकर खाद-पानी दिया जाता रहे तो इसे क्या कहा जाएगा? क्या साधारण कपड़ों पर इस राजनीति के दाग़ अच्छे कहलाएंगे। पहले तो यही बताइए कि साम्प्रदायिकता की राजनीति को आप दाग़ मानते भी हैं या नहीं।

कम पैसों का चुनाव! षड़ंगी जिस पार्टी में हैं, उसके पास जितना अकूत धन है और जिस तरह उसने चुनाव में खर्च किया है, कोई एंकर ही कह सकता है कि उस पार्टी ने सादगी से और सीमित संसाधनों से जैसे-तैसे चुनाव लड़ा। एंकर यह कहे, इस पर जो खर्च आता है, उस के बारे में कुछ बताइए। यूँ भी चुनाव, प्रत्याशी से पहले भाजपा का मैनेजमेंट और संघ का काडर लड़ रहा था।
नेहरू को जाने दीजिए। कहिएगा कि चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुए थे। यह तो सही है। पर बताइएगा कि क्या आप यह जानते हैं कि बाद में उनका जीवन क्या था और उनकी सम्पत्ति किस-किस काम आ रही थी और उनका अपना खर्च कितना था। जाने दीजिए रसने के लिए बहुत गप्प हैं कि उनके कपड़े पेरिस से धुलकर आते थे। कि विलायत में यूनिवर्सिटी के हर दरवाजे पर उनके लिए गाड़ी खड़ी रहा करती थी। अब तो वॉट्सएप पर नेहरू को लेकर झूठ के घिनौने कीर्तिमान गढ़े जा रहे हैं।

डॉ. आम्बेडकर के कोट-पैंट को लेकर भी कम वॉट्सएप नहीं घूम रहे हैं और गांधी की लँगोटी को लेकर भी। सवाल यह है कि लँगोटी और कोट-पैंट के अलावा क्या यह भी देखने की चीज़ है कि लँगोटी या कोट-पैंट या शेरवानी पहनकर राजनीति क्या की जा रही है। कि कन्सर्न क्या हैं। राजनीति समाज को जोड़ने की है या तोड़ने की? हाशिये के दलित-वंचित, अल्पसंख्यक, स्त्रियां, वो अंतिम व्यक्ति क्या वाकई आपके एजेंडे में शामिल है या फिर कॉरपोरेट के टूल बनकर साइन कर रहे हैं। 
मनमोहन सिंह बतौर प्रधानमंत्री उलझी दाढ़ी वाले तो नहीं थे। कोट-पैंट ही पहनते थे। अपेक्षाकृत सादगी का ही जीवन था पर काम कॉरपोरेट का ही करते थे। बताइए, क्या कहिएगा?

वैसे महाराष्ट्र में एक टोपी, कुर्ते-पाजामे वाले, उस शख्स की छवि भी याद होगी जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ नंगे पांव खड़ा हुआ था। उसकी सादगी को और उसकी राजनीति को याद कीजिए।
फिदा होइए पर ज़रा कपड़ों के साथ राजनीति भी देखिए। एंकर्स और काडर की ही तरह बिहेव करना है तो बात अलग है।

षंड़गी 2002 में अयोध्या मंदिर मांग को लेकर ओडिशा विधानसभा में घुसकर तोड़फोड़ मचाने के लिए 2002 में दंगा आरोपी के बतौर गिरफ्तार भी हुए थे. उन पर सात आपराधिक मामले हैं, जिनमें से दो 153A यानी मज़हबी/जातीय/भाषाई आधार पर विभाजन की कोशिश के हैं।

साभार : लोकवाणी डॉट इन

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