मोदी जीते तो काशी हार जाएगी फिर काशी के पास बचेगा बस पछतावा, कड़ुवाहट और अफसोस

मशहूर साहित्यकार काशीनाथ सिंह काशी से नरेंद्र मोदी के चुनाव लड़ने से बेहद व्यथित हैं। इतना व्यथित कि पूर्व में अपने लिखे से पल्ला झाड़ने की मन:स्थिति में आ गए हैं। कहते हैं, ‘अपने ही लिखे ‘काशी का अस्सी’ को अब नकारता हूं। उसे इतिहास के तौर पर देखा जाना चाहिए, वर्तमान तो कुछ और है, जिस पप्पू की दूकान पर वह उपन्यास केंद्रित था, उस दूकान पर जाना ही बरसों से छोड़ दिया है। अब वहां वह ख्यालों की अलमस्ती, विचारों की बेबाकी और उसमें से कुछ नहीं बचा है, जिसके आधार पर उपन्यास लिखा गया था।’ 

‘रेहन पर रग्घू’ उपन्यास के लिए प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे गए काशीनाथ सिंह इतने पर ही नहीं रुकते। माथे पर हाथ रखकर कहते हैं कि अगर नरेंद्र मोदी वाराणसी से चुनाव जीत गए तो काशी हार जाएगी। चुनावी घमासान के बीत छोटी सी बातचीत के प्रमुख अंश…विज्ञापन

गहरे संकट में काशी की परंपरा और संस्कृति

प्रश्न: काशी के चुनावी परिदृश्य को कैसे देखते हैं।
उत्तर: काशी की परंपरा और संस्कृति पर गहरा संकट देख रहा हूं। दरअसल काशी हिन्दुओं का तीर्थ अवश्य रही है पर कभी हिन्दुत्ववादी नहीं रही। हिन्दुओं के सैकड़ों मठ, अखाडे़-आश्रम और मंदिर हैं पर कट्टरता नहीं थी। हिन्दुत्व के लिए स्वामी करपात्री ने रामराज्य पार्टी बनाई थी पर विधर्मियों के लिए तल्खी नहीं थी। पर अब जो माहौल बनाया जा रहा है उसको देखकर लगता है कि धार्मिक उदारता को नेपथ्य में धकेल दिया जाएगा। 

प्रश्न: काशी की संस्कृति से अभिप्राय.


उत्तर: अलमस्ती, फक्कड़ी, वैचारिक खुलापन और ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर वाले भाव पर टिकी जीवनशैली।

‘काशी ने जियो और जीने दो की संस्कृति पर विश्वास किया’

प्रश्नः चुनाव से इस संस्कृति को आघात कैसे पहुंच रहा है।

उत्तर: देख नहीं रहे हैं, राजनीतिक विरोधियों पर किस तरह के हमले हो रहे हैं। मुंह पर गंदगी फेंकी जा रही है, जानलेवा हमले हो रहे हैं, विरोधी दलों के कागजात छीनकर फाड़े जा रहे हैं। काशी ने जियो और जीने दो की संस्कृति पर विश्वास किया है। मंडन मिश्र यहीं के थे। शंकराचार्य को एक चाण्डाल तक ने चुनौती दी थी। स्वामी दयानंद सरस्वती ने यहीं दुर्गाकुंड में विरोधी मान्यता वाले लोगों से शास्त्रार्थ किया था। काशी असहमति का भी सम्मान करती रही है। कामरेड रुस्तम सैटिन नामांकन दाखिल करने कांग्रेसी दिग्गज संपूर्णानंद से आर्शीवाद लेकर जाते थे। पर चुनाव के दौरान बराबर मंच लगाकर उनके खिलाफ झन्नाटेदार भाषण देते थे। कमलापति त्रिपाठी व समाजवादी राजनारायण के बीच भी ऐसा ही रिश्ता रहा। राजनारायण कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोलने में कभी कोर कसर नहीं छोड़ते थे पर चुनाव के समय जब कभी पैसों की कमी महसूस करते थे तो कमलापति के पास जाते थे और कमलापति मदद भी करते थे। यह परंपरा बुद्ध के समय से चली आ रही है पर अफसोस है कि इस परंपरा को अब दाग लग रहा है। पिछले दिनों भाजपा के मुरली मनोहर जोशी और शंकर प्रसाद जायसवाल यहां से सांसद हुए, पर अपने विरोधियों के प्रति उनका भी व्यवहार इतना अलोकतांत्रिक और असभ्य नहीं था। पहली बार काशी में यह देखने को मिल रहा है कि जिससे वैचारिक असहमति हो उसका जबरिया मुंह बंद कर दो, अपनी गली मुहल्लों में आने न दो और न माने तो उसके हाथ-पैर तोड़ दो।

‘काशी की आत्मा को जगाने सड़कों पर उतरूंगा’

प्रश्नः ड्राइंग रूम में बैठकर ही आंसू बहाएंगे।
उत्तर:हरगिज नहीं। काशी की आत्मा को जगाने सड़कों पर उतरेंगे। काशी की आत्मा व संस्कृति को बचाने की गुहार करूंगा।

प्रश्नःअगर मोदी जीतते हैं तो चुनाव बाद काशी की क्या तसवीर देखते हैं।
उत्तर: बस, पछतावा, कड़वाहट और अफसोस के सिवा कुछ न होगा।

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