पेप्सो का साथ किसानों का विनाश


◆ जिस गुजरात राज्य को भाजपाई विकास के मॉडल के रूप में पेश किया जाता है, वहीं से खबर आई है. खबर यह है कि बहुराष्ट्रीय कंपनी पेप्सिको ने वहां के 9 गरीब किसानों पर उसके द्वारा रजिस्टर्ड आलू बीज से आलू की ‘अवैध’ खेती करने के लिए 5 करोड़ रुपये मुआवजे का दावा ठोंका है और व्यापारिक मामलों को देखने वाली गुजरात की कोर्ट पेप्सिको के साथ खड़ी है. इस प्रकार गुजरात राज्य किसानों के विनाश का भाजपाई मॉडल बनकर उभरा है.

◆ आलू के बीज की एक किस्म है, जिसका नाम है एफएल-2027. एफसी-5 के नाम से इसका व्यावसायिक ट्रेडमार्क है और पेप्सिको ने वर्ष 2016 में इसका पेटेंट करवाकर रजिस्ट्रेशन प्राप्त कर लिया है और वर्ष 2031 तक उसका इस बीज पर एकाधिकार हो गया है. यह सब संभव हुआ विश्व व्यापार संगठन के दबाव में TRIPS समझौते के तहत, जिसका देश के सभी किसान संगठनों ने विरोध किया था. यह समझौता हमारे देश के किसानों का बीजों पर अधिकार और नियंत्रण ही खत्म कर देता है. किसान संगठनों ने तब भी किसानों के विनाश की आशंका जाहिर की थी, जिसकी पुष्टि आज गुजरात से हो रही है.

◆ गुजरात के बहुत से किसानों ने इस बीज से आलू की खेती की है. अब पेप्सिको ने गुजरात के 9 किसानों पर 5 करोड़ रुपये मुआवजे का दावा ठोंका है. खबर है कि आलू की खेती करने वाले किसानों के खेतों पर पेप्सिको छापामारी कर रहा है, उनके द्वारा उत्पादित आलू के नमूने इकट्ठा कर रहा है और एफसी-5 आलू मिलने पर मुकदमे ठोंक रहै. वर्ष 2018 में 18 किसानों पर मुकदमा दर्ज करने की खबर आई है.

◆ पेप्सिको किसानों पर दबाव डाल रहा है कि यदि वे एफसी-5 बीज से आलू की खेती करना चाहते हैं, तो उसके साथ समझौता करे. समझौते की शर्तें भी पेप्सिको ही तय करेगा. इन शर्तों के तहत किसानों को पेप्सिको से ही बीज खरीदना होगा, उसके बताए अनुसार ही खेती करनी होगी और उत्पादित फसल को पेप्सिको द्वारा ही तय कीमत पर उसे ही बेचना होगा. यह सार-रूप में ठेका खेती ही है, जिसकी ओर पिछले पांच सालों में मोदी सरकार ने देश के किसानों को धकेलने की कोशिश की है. ठेका कृषि के जरिये देश के किसानों की तकदीर बदलने का दावा आज भी भाजपा कर रही है.

◆ स्पष्ट है कि ये शर्तें किसानों को लागत मूल्य की भी गारंटी नहीं देती, न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में लागत का डेढ़ गुना तो दूर की बात है, जिसके लिए देश का समूचा किसान आंदोलन संघर्ष कर रहा है. पेप्सिको की खरीदी दर अनिवार्यतः अंतरराष्ट्रीय बाजार की कीमतों से तय होगी, जो निश्चित रूप से गरीब देशों के किसानों के अनुकूल नहीं होती.

◆ पेप्सिको किसानों को कोर्ट में इसलिए घसीट रही है कि वे दबाव में आकर खेती-किसानी के अपने पुश्तैनी अधिकारों को छोड़ दे और पेप्सिको की गुलामी को मंजूर कर ले. इस मामले में हल्ला मचने पर कोर्ट के बाहर समझौता के लिए उसके रजामंद हो जाने की पेप्सिको की बात से भी यही जाहिर होता है.

◆ इस मामले का सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि गुजरात की व्यापारिक कोर्ट, जिसकी नैतिक जिम्मेदारी हमारे देश के हितों और नागरिकों के अधिकार की हिफाजत करना है, वह पेप्सिको के साथ खड़ी है और उसने “प्रथम दृष्ट्या” पेप्सिको के इस दावे को स्वीकार कर लिया है कि गुजरात के किसान एफसी-5 आलू की “अवैध खेती” कर रहे है और उनके द्वारा उत्पादित इस फसल को बेचने के उनके अधिकार पर ही फिलहाल रोक लगा दी है. जबकि जैव विविधता संरक्षण और कृषक अधिकार अधिनियम, 2001 स्पष्ट रूप से ब्रांडेड बीजों को बोने, उत्पादन करने, बीजों का आदान-प्रदान करने, उनका संरक्षण करने का अधिकार देता है. उन्हें इस बीज को केवल बेचने का अधिकार नहीं है. एफसी-5 आलू बीजों के मामले में यह स्पष्ट है कि इन बीजों को बेच नहीं गया है और पेटेंटेड होने के बावजूद यह ब्रांडेड बीजों की श्रेणी में नहीं आता.

◆ अखिल भारतीय किसान सभा सहित विभिन्न किसान संगठनों का प्रतिनिधित्व करने वाले 190 से अधिक किसान नेताओं ने पेप्सिको की कार्यवाही और इस पर सरकार के रूख की कड़ी निंदा की है और किसानों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए आवश्यक कदम उठाने की मांग की है. उन्होंने आलू चिप्स Lay सहित पेप्सिको के सभी उत्पादों के बहिष्कार का भी आह्वान किया है. छत्तीसगढ़किसानसभाइस मांग और आह्वान का समर्थन करती है. देश के सभी नागरिकों और जनतंत्र प्रेमी संगठनों को इसका समर्थन करना चाहिए, क्योंकि यह आग गुजरात के किसानों तक ही सीमित नही रहने वाली है. विश्व व्यापार संगठन और पेप्सिको-जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निशाने पर हमारे देश का समूचा किसान समुदाय, हमारी खाद्य सुरक्षा और आत्मनिर्भरता और पूरे नागरिक हैं. राजनैतिक शब्दावली में, हमारे देश की स्वाधीनता और संप्रभुता ही खतरे में है.

◆ विश्व व्यापार संगठन हमारे देश की सरकार पर ठेका-खेती का विस्तार करने के लिए दबाव डाल रहा है. भाजपा की सरकार ने इस दबाव पर पूरी तरह से घुटने टेक दिए है और गुजरात के किसानों के अधिकारोंके की रक्षा के मुद्दे पर चुप है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नियंत्रण में ठेका-खेती के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दुष्परिणाम देखने को मिलेंगे और किसंपन के सामूहिक विनाश और आत्महत्याओं का नज़ारा भी.

◆ बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने मुनाफे के विस्तार के लिए बर्बरता और क्रूरता की किस हद तक जा सकती है, यह उनके द्वारा किसानों पर ठोंके गए मुआवजा-दावों से स्पष्ट है. इन किसानों की सभी पीढ़ियों ने मिलकर भी 5 करोड़ रुपये नहीं कमाए होंगे. इस बर्बरता कस मुकाबला कॉर्पोरेटपरस्त सरकार को उखाड़कर और इन नीतियों के खिलाफ एकजुट साझा संघर्ष को संगठित करके ही किया जा सकता है.

संजय पराते

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