छत्तीसगढ राज्य और इसकी जनता का मजाक उड़ा रहे हैं मुख्यमंत्री और राज्यपाल

संविधान और कानूनी प्रक्रिया की बेईज्जती के रोज बन रहे नए प्रतिमान

रायपुर । गुरुवार 9 फ़रवरी को राजभवन सचिवालय ने बिलासपुर हाई कोर्ट में राज्य शासन की याचिका पर सोमवार को जारी किए गए नोटिस को वापस लेने की मांग की है| यह एक बेवकूफ़ाना हरकत का और बेवकूफ़ाना जवाब है| राजभवन सचिवालय की ओर से अनुच्छेद 361 का तर्क दिया गया है जिसके अधीन राज्यपाल को पदीय कर्तव्यों के मामले में न्यायालयीन प्रक्रिया से निजी सुरक्षा दी गई है| सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ 2006 के रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ फ़ैसले में पहले ही साफ़ कर चुकी है कि अनु.361 राज्यपाल के पदीय कृत्यों की वैधता की न्यायालयीन जांच करने से नहीं रोकता| ध्यान रहे कि हाई कोर्ट के द्वारा सचिव-राज भवन को नोटिस जारी किया है न कि राज्यपाल को, लेकिन इस बारीकी को समझने के लिए न राजभवन तैयार है और न ही राज्य शासन की रिट याचिका में ऐसी समझदारी दिखती है|

राजभवन के पास राज्य शासन की रिट याचिका पर जवाबी हमला करने के लिए विधि-सम्मत बहुत सारे तर्क थे लेकिन जल्दबाजी और राजनैतिक बेचैनी का ज्यादा असर हुआ| आरक्षण मुद्दे पर हाई कोर्ट बार के कुछ वरिष्ठतम अधिवक्ताओं की नालायकी ड्राफ़्टिंग और जिरह दोनों में नजर आई है लेकिन राज्य शासन की रिट याचिका 595/2023 ने मूर्खता के नए प्रतिमान बनाए हैं| आश्चर्य है कि जब शासन ने दिल्ली से सम्मानित अधिवक्ता कपिल सिब्बल को जिरह के लिए बिलासपुर बुलाना ही था तो याचिका के ड्राफ़्ट की उनसे वेट्टिंग क्यों नहीं करवाई गई| इस पूरे विवाद में कई कानूनी पेचीदगियां तो हैं लेकिन यह अधकचरा काम करने का बहाना नहीं हो सकता बल्कि इन हालात में और गहरी मेहनत की जानी चाहिए|

राजभवन की ओर से यह तर्क दिया गया कि अनु.200 में राज्यपाल पर उसके समक्ष पेश किए गए विधानमंडल से पारित विधेयक पर निर्णय लेने की कोई समय सीमा नहीं है| यह एक मात्र तर्क है जिसका सरल-सटीक जवाब राज्य शासन की रिट याचिका में “अनिर्णय कोई उपाय नहीं” के रुप में दिया गया है| बाकी याचिका कहीं अधूरी और ज्यादातर पूरी बकवास से भरी हुई है| इस याचिका के 22 पृष्ठों में बताने की तकलीफ़ ही नहीं उठाई गई कि प्रतिवादी क्र. 2 सचिव-राज भवन प्रकरण से किस तरह संबद्ध है| पूरी याचिका में प्रतिवादी क्र.1 सचिव- विधि मंत्रालय, भारत शासन के लिए तो एक अदद लाईन तक नहीं लिखी गई है| याचिका में सभी चार प्रार्थनाएं प्रतिवादी क्र. 2 के संदर्भ में की गई हैं| विधेयकों पर अनुमति देने से संबद्ध सभी दस्तावेज उपलब्ध कराना तो ठीक है लेकिन यह विधिक तर्क के परे है कि विधेयकों पर अनुमति लंबित रखने के खिलाफ़ हाई कोर्ट के निर्देश और घोषणाएं उस पर कैसे आयद होगी जबकि अनु.200 में प्रतिवादी क्र. 2 की कोई जिम्मेदारी ही नहीं! याचिका लिखते/जांचते हुए महाधिवक्ता को ध्यान ही नहीं रहा कि राज्यपाल के कृत्यों का जिक्र करने के लिए बार-बार प्रतिवादी क्र. 2 का नाम लेना जरुरी नहीं है| महाधिवक्ता ने संवैधानिक मर्यादा का भी ध्यान नहीं रखा कि राज्यपाल के पदीय कृत्यों की निरपेक्ष विधिक समीक्षा में तो वह हिस्सा ले सकते हैं लेकिन राज्यपाल के निजी और राजनैतिक व्यवहार पर आक्षेप की किसी भी परियोजना का वह हिस्सा नहीं हो सकते| अनुच्छेद 165 की मर्यादा महाधिवक्ता पर है, जबकि उसी कार्यालय के अन्य विधि अधिकारी उतने उत्तरदायी नहीं होंगे|

इस याचिका में साफ़ तौर पर दावा किया गया है कि लंबित आरक्षण विधेयक क्वांटीफ़िएबल डाटा आयोग की रिपोर्ट पर आधारित हैं और आरक्षण का प्रावधान जनसंख्या हिस्सेदारी पर तय किया गया है| राज्यपाल द्वारा शासन से पूछे गए लंबित आरक्षण विधेयक संबंधी 10 सवालों का भी विस्तार से जिक्र कर दिया गया है| जाहिर है कि अब अनु. 166 के अधीन जारी शासन के कार्यपालिक नियमों का संदर्भ आना तय है| अपनी इस नादानी से राज्य शासन ने लंबित आरक्षण विधेयक की वैधता का प्रश्न अपरोक्ष रूप से घसीट लिया है जबकि यह अब तक अधिनियम भी नहीं बना| हाई कोर्ट के नियमों के मुताबिक किसी भी अधिनियम अथवा नियम की वैधता का प्रश्न समाहित करने वाली रिट याचिका डिविजन बेंच द्वारा सुनी जाएगी|

पहले ही बताया जा चुका है कि कोई राज्य सरकार किसी व्यक्ति की तरह रिट याचिका दायर कर सकती है, यह सवाल कुछ धुंधला हुआ है लेकिन उठेगा जरूर| रिट का सिद्धांत है कि हाई कोर्ट तथ्य के प्रश्न की जांच कर तो सकता है लेकिन ऐसे प्रकरण टालने चाहिए| क्वांटीफ़िएबल डाटा आयोग की रिपोर्ट विधानसभा के पटल पर नहीं रखी गई थी और बाद में राज्य शासन ने इसे सार्वजनिक करने तक से इनकार किया है| यह इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इंद्रा साहनी फ़ैसले में कहा गया था कि आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं बनाया जा सकता जब तक कि राज्य प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता को लेकर संतुष्ट न हो जाए| प्रबोध वर्मा बनाम उत्तर प्रदेश फ़ैसले में कहा गया है कि रिट का निपटारा सभी प्रभावित पक्षों को पक्षकार बना कर सुनने का अवसर दिए बगैर नहीं किया जा सकता| इस प्रकरण में चूंकि अ.जा., अ.ज.जा. अ.पि.व. और अनारक्षित वर्ग के हित टकरा रहे हैं इसलिए पक्षकार किस किस को बनाया जाए इस सवाल से भी हाई कोर्ट को जूझना होगा!

संविधान विशेषज्ञ बी के मनीष

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