लंबित आरक्षण संशोधन विधेयकों पर शासन ने अनुच्छेद 166 के “कार्य नियमों” के किए गंभीर उल्लंघन| संविधान का अनुपालन कराने के अपने कर्तव्यों की राज्यपाल ने की अवहेलना|

छत्तीसगढ के आरक्षण संशोधन विधेयकों पर जारी विवाद के बीच नई और चौंकाने वाली जानकारी सामने आई है| अब तक इस मुद्दे पर सारी बहस सिर्फ़ संविधान के प्रावधानों और सुप्रीम कोर्ट की उन पर दी गई व्याख्या पर आधारित थी| अब संविधान जानकार बी.के. मनीष ने संविधान के अनुच्छेद 166 के अधीन बनाए गए छग शासन के “कार्य नियमों” के गंभीर उल्लंघन की ओर ध्यान दिलाया है| मंत्रि-परिषद और राज भवन ने अब तक संविधान के विशिष्ट प्रावधानों के अधीन कार्रवाई को टाला है| अनुच्छेद 163 के अधीन मंत्रि-परिषद ने अब तक विधेयकों पर अनुमति देने संबंधी घोषणा के लिए राज्यपाल को किसी समय सीमा का सुझाव नहीं दिया है| राज्यपाल ने भी अनुच्छेद 200 के परंतुकों के तहत कोई कार्रवाई नहीं की है| इसलिए राजनैतिक पहेली का हल अब “कार्य नियमों” में खोजना होगा|

“कार्य नियमों” के प्रावधानों की रोशनी में मुख्यमंत्री और राज्यपाल के कई दावे पहली नजर में गलत साबित होते हैं| बी.के. मनीष ने अपनी व्याख्या में कहा है वैसे तो इन “कार्य नियमों” के कुछ प्रावधान असंवैधानिक प्रतीत होते हैं जैसे कि नियम 5 और 9 में भारसाधक मंत्री द्वारा सीधे राज्यपाल को सुझाव देने की व्यवस्था| इसी तरह अर्जुन सिंह काल के निर्देश (अधीन नियम 7) जिनमें मंत्रि-परिषद के अनुमोदन की आशा में मुख्यमंत्री द्वारा सुझाव/आदेश दिए जाने की व्यवस्था है भी पहली नजर में असंवैधानिक दिखते हैं| क्योंकि सीमित समय के लिए भी मंत्रि परिषद से स्वतंत्र मुख्यमंत्री का कोई विशेषाधिकार संवैधानिक लोकतंत्र की परंपरा के खिलाफ़ है और यह निराधार अनुमान करता है कि मंत्रि परिषद मुख्यमंत्री के लिए गए फ़ैसलों का अनुमोदन करने को बाध्य है| नियम 10 के अधीन जारी निर्देश 3(12) में विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक राज्यपाल की अनुमति के लिए मुख्यमंत्री द्वारा भेजने का प्रावधान विधायिका के संवैधानिक क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण है| नियम 2 के अधीन इन कार्य नियमों में राज्यपाल के नाम पर मंत्रि-परिषद कभी भी विशेष आदेश द्वारा नियम पालन का बंधन हटा सकती है, और तकरीबन हर दो-पांच सालों में इनमें संशोधन किया ही गया है| बी.के. मनीष के मुताबिक चूंकि संविधान का प्राथमिक उद्देश्य ही विधि-नियम द्वारा अभिशासन का नियंत्रण करना है इसलिए कार्य नियमों का उल्लंघन संविधान का उल्लंघन भी है| नियम 13 के अधीन जारी अनुपूरक अनुदेश 48 के अनुसार कार्य नियमों के अनुपालन की जिम्मेदारी विभागीय सचिव की है| लेकिन संवैधानिक नजरिए से कमलप्रीत सिंह भर ही नहीं, मुख्य सचिव, मुख्यमंत्री और राज्यपाल भी इन उल्लंघनों के लिए जिम्मेदार हैं| मुख्यमंत्री ने संवैधानिक लोकतंत्र को कमजोर किया है, और राज्यपाल इसे ठीक करने में अब तक विफल रही हैं|

मंत्रि-परिषद के अधिकारों का हनन|
आरक्षण संशोधन विधेयकों के बनाने के लिए नीतिगत निर्णय मंत्रि-परिषद को लेने ही नहीं दिया, सीधे विधेयकों का प्रारूप ही मंत्रि-परिषद के सामने 24 नवंबर को प्रस्तुत किया गया| कार्य नियम 13 के अधीन जारी किए गए अनुपूरक निर्देशों की कंडिका 36 के मुताबिक प्रशासकीय विभाग को मंत्रि परिषद से अनुमोदन पूर्व मुख्यमंत्री की अनुमति के लिए पहले विधि विभाग से [विधान की जरुरत] और [विधायिका की सक्षमता] पर अभिमत लेना था| विधान पर नीतिगत निर्णय लिए जाने के बाद कंडिका 37 के तहत सभी दस्तावेज भेज कर विधि विभाग से विधेयकों का प्रारुप बनवा कर फ़िर मुख्यमंत्री की अनुमति से कंडिका 38 के अधीन मंत्रि परिषद से अनुमोदित कराना था| यद्यपि इस प्रकरण में भारसाधक मंत्री स्वयं मुख्यमंत्री ही हैं लेकिन विभागीय सचिव और मंत्रि-परिषद के सचिव (मुख्य-सचिव) अलग-अलग अधिकारी हैं|
यह सिर्फ़ तकनीकी आपत्ति नहीं इसके व्यावहारिक-लोकतांत्रिक पहलू भी हैं| यदि विधेयकों के प्रारूप के पहले विधान पर नीतिगत निर्णय लिया गया होता तो आर्थिक अशक्य प्रवर्ग के लिए मात्र शासकीय परिपत्र के माध्यम से आरक्षण की व्यवस्था की जा सकती थी| एससी-एसटी-ओबीसी आरक्षण के अलग-अलग प्रतिशत और 50% की सीमा लांघने पर भी स्वतंत्र विचार किया जा सकता था| मात्र एक घंटे की मंत्रि-परिषद बैठक में आठ प्रकरणों के बीच इतने जटिल मुद्दे पर विनिश्चय करना जाहिर तौर पर अनुचित है|

आरक्षण के प्रकरण में मंत्रियों को संक्षेपिका उपलब्ध न कराया जाना|
मंत्रि परिषद की कार्य योजना सामान्यत: कम से कम तीन दिन पहले मुख्यमंत्री की अनुमति से जारी की जाती है, जबकि उनकी ही पूर्व अनुमति से प्रस्तावित विषय पर संक्षेपिका मंत्रियों को जारी की जा चुकी हो (कार्य नियम 13 के अधीन जारी किए गए अनुपूरक निर्देशों की कंडिका 15)| सभी दस्तावेज मंत्रियों को बैठक से कम से कम 48 घंटे पहले मिलने चाहिए (कंडिका 22)| 21 नवंबर को ही छबिलाल पटेल आयोग की रिपोर्ट शासन को प्राप्त हुई| 24 नवंबर की मंत्रि-परिषद बैठक में आरक्षण संशोधन विदेयकों के प्रारूप प्रस्तुत कर दिए गए| जाहिर है कि न तो मंत्रियों को समय पर संक्षेपिका मिली और न ही राज्यपाल को| मंत्रि-परिषद के निर्णयों का रिकॉर्ड मुख्यमंत्री के अनुमोदन के बाद राज्यपाल को भी भेजना होता है| राज्यपाल ने विधान सभा द्वारा विधेयक पारित कर अनुमति के लिए प्रस्तुत किए जाने पर संक्षेपिका के बिंदुओं पर सवाल पूछे हैं| या तो संक्षेपिका समेत रिकॉर्ड समय पर राज भवन नहीं भेजा गया या फिर राज्यपाल ने सही समय पर आपत्ति नहीं उठाई|

विधि विभाग के अभिमत की लोकतांत्रिक आवश्यकता की अवहेलना|
विधि विभाग को नियमानुसार दो चरणों में इस गंभीर विषय पर विचार करने का अवसर नहीं दिया गया| मुख्यमंत्री का यह दावा कि विधि विभाग का अभिमत शासन का ही अभिमत होता है, सिरे से अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक है| सत्तासीनों की मनमानी रोकने के लिए ही संविधान और कार्य नियम बनाए गए हैं जिसके अलग अलग चरणों की कार्रवाई को टालना अनुच्छेद 14 का उल्लंघन माना गया है| मंत्रि परिषद से अनुमोदन के लिए मुख्यमंत्री की अनुमति से पूर्व प्रशासकीय विभाग को पहले विधि विभाग से [विधान की जरुरत] और [विधायिका की सक्षमता] पर कार्य नियम 13 के अधीन जारी किए गए अनुपूरक निर्देशों की कंडिका 36 के मुताबिक अभिमत लेना था| विधान पर नीतिगत निर्णय लिए जाने के बाद मुख्यमंत्री की अनुमति से कंडिका 38 के अधीन मंत्रि परिषद से अंतिम अनुमोदन कराने के लिए प्रशासकीय विभाग को कंडिका 37 के तहत सभी दस्तावेज भेज कर विधि विभाग से विधेयकों का प्रारुप बनवा कर प्रस्तुत करना था| यहां तक कि कंडिका 46 के मुताबिक आरक्षण संशोधन का मामला महत्वपूर्ण विधिक प्रश्न होने के कारण विधि विभाग से पूर्व-मंत्रणा भी जरुरी थी|

राज्यपाल की अनुमति के लिए भेजना मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी है तो राजभवन के सवाल जायज|
कार्य नियम 10 के अधीन जारी किए गए निर्देशों की कंडिका 3(12) के अनुसार विधान सभा द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपाल की अनुमति के लिए भेजना मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी है, न कि विधान सभा सचिवालय की| कार्य नियम 13 के अधीन जारी किए गए अनुपूरक निर्देशों की कंडिका (44क) के मुताबिक विधान सभा द्वारा पारित विधेयक का प्रशासकीय विभाग और विधि विभाग द्वारा परीक्षण किया जाएगा| तब राज्यपाल को विधेयक आवश्यकतानुसार ऐसे स्पष्टीकरण के साथ भेजा जाएगा कि क्यों उस पर अनुमति न दी जाए या राष्ट्रपति की अनुमति के लिए आरक्षित रखा जाए| जाहिर है कि इस प्रावधान की रोशनी में राज्यपाल द्वारा किए गए सभी सवाल जायज हैं| लेकिन इस प्रावधान से संवैधानिक वैधता के नए सवाल खड़े होते हैं| सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ 1955 के रामजवाया कपूर बनाम पंजाब राज्य फ़ैसले में कह चुकी है कि ब्रिटिश संसदीय परंपरा को अपनाते हुए भारतीय गणतंत्र में “राज्यपाल” पद का मतलब ही मंत्रि परिषद है| इस फ़ैसले में कहा गया था कि कैबिनेट में विधायी और कार्यपालिक शक्तियां संकेंद्रित हैं लेकिन अनुच्छेद 200 का जिक्र नहीं किया गया था, जबकि अनुच्छेदों 202-204 की व्याख्या शामिल थी| दूसरे शब्दों में इन बिंदुओं पर राज्यपाल को कोई विवेकाधिकार नहीं है| लेकिन सात जजों की संविधान पीठ ने 1958 के ‘इन रेफ़रेंस: केरल एजुकेशन बिल’ फ़ैसले में राज्यपाल द्वारा मंत्रि परिषद की राय के खिलाफ़ जब विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए आरक्षित रखे जाने पर कोई आपत्ति नहीं की थी| अनुच्छेद 200 और भाग 11 के प्रावधानों के नजरिए से देखा जाए तो विधेयकों पर अनुमति का प्रश्न राज्यपाल का विवेकाधिकार ही होना चाहिए नहीं तो वे सब बेतुके और विरोधाभासी होंगे|

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