कौम के ग़म में हमारे विज्ञापनवीर (1)

कनक तिवारी
(1) लगभग दो वर्ष पहले सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मिली थी कि केन्द्र की मोदी सरकार ने विज्ञापनों में विशेषकर प्रधानमंत्री की छवि चमकाने के नाम पर पांच हजार करोड़ रुपये से ज्यादा सरकारी खजाने से खर्च कर दिया है। इसकी आधी राशि मनमोहन सरकार द्वारा दस साल में खर्च की गई थी। अभी इसी वर्ष छत्तीसगढ़ सरकार ने भी अचरज पैदा करते विधानसभा में विपक्षी नेता धरमलाल कौशिक के सवाल के जवाब में मान लिया कि सरकारी विज्ञापनों में लगभग 175 करोड़ रुपए खर्च कर दिए गए हैं। बेहद आपत्तिजनक और दुखद है कि लोकतंत्र में जनता के पसीने की गाढ़ी कमाई से अनावश्यक दरों पर सरकारों द्वारा वसूला गया टैक्स कुछ बड़े सत्तानशीन नेताओं के चेहरों को सुर्खरू बनाने में क्रूरता से खर्च कर दिया जाता है। नकाब ओढ़ा जाता है कि सरकारी योजनाओं की जानकारी दी जा रही है। जानकारी, योजनाएं, संकल्प, उपलब्धियां सब कुछ मोटे तौर पर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के रहमोकरम से उपजी दिखाई जाती हैं। ऐसा तो सिकंदर महान के समय से लेकर बादशाह अकबर तक भी किसी ने देखा और सोचा नहीं होगा। जनता को जानने का हक है कि सरकारी कर्म क्या हैं, लेकिन वह प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के रहमोकरम की मोहताज बना दी गई है।
(2) कई बार चुनौतियां दी गईं लेकिन संविधान न्यायालय इस मामले में जनप्रतिबद्ध फैसला करने के बदले धीरे धीरे याचिका की ही मुश्कें कसने की शैली के बावजूद अपने निर्णय सुधारते चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का आलम है कि उसके समझाइशी फैसलों पर अमल करना तो दूर उन पर कान धरना भी केन्द्र और राज्य सरकारों ने अपने शऊर में जज़्ब नहीं किया है। नेताजी के जन्म, विवाह, देशाटन और विदेश यात्राओं को लेकर समर्थकों द्वारा भी अखबारों को रंग दिया जाता है, ताकि जनता को मुनासिब समाचार तक पढ़ने को नहीं मिले। वह सब मोटे तौर पर काला धन उत्पादित करता है। इन्कम टैक्स और ईडी जैसे संस्थान आंखें बंद कर लेते हैं।

(3) फिर एक याचिका काॅमन काॅज़ बनाम यूनियन ऑफ इन्डिया पर विचार किया गया जिसे 2003 और 2004 में दाखिल किया गया था। उस पर भी फैसला देने में दस बरस लग गए। चीफ जस्टिस सदाशिवम की बेंच ने उम्मीद भरी तन्मयता से विचार करने के समानांतर सरकार पर ज़्यादा भरोसा किया जिसमें केन्द्र सरकार ने चलताऊ जवाब दिया था। यह कह दिया था कि विज्ञापन तो सरकार की नीति, क्रियाकलाप और संकल्पों की आम जानकारी देते हैं। वह कार्यपालिका का क्षेत्राधिकार है। उसे न्यायपालिका में चुनौती कैसे दी जा सकती है। हामी भरते रहने पर भी सुप्रीम कोर्ट को बताया गया कि सारी तथाकथित औपचारिक प्रशंसा के बावजूद दर्जनों, सैकड़ों ऐसे विज्ञापन होते हैं जो राजनीतिक लाभ उठाने के लिए सत्ताधारी पार्टी के चुनावी अवसरों को प्रोन्नत बनाते हैं। याचिकाकर्ता ने मोटे तौर पर आॅस्टेलिया की परंपराओं का उल्लेख करते कहा कि ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने माना कि विज्ञापन देने से राजनीतिक, भ्रष्टाचार और पक्षपात को बढ़ावा मिलता है। इसलिए इस संबंध में कड़े, पारदर्शी और वस्तुपरक आचरण करने की सरकार द्वारा ज़रूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि केवल डी.वी.ए.पी. और राज्य सरकारों के जनसंपर्क विभागों के विवेक पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने आॅस्ट्रेलिया के अनुभवों का उल्लेख करते नेशनल ज्यूडिशियल एकेडमी भोपाल के डाॅ. एन. आर. माधव मेनन, लोकसभा के महासचिव टी. के. विश्वनाथन और सीनियर एडवोकेट रंजीत कुमार की समिति बनाकर प्रस्तावित गाइडलाइन देने के लिए आग्रह किया।
(4) समिति की गाइडलाइन मिलने के बाद सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय बेंच में 13 मई 2015 को जस्टिस रंजन गोगोई ने फैसला सुनाया। मामले पर बात करते सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि समिति की व्यापक गाइडलाइन्स के खिलाफ मुख्यतः केन्द्र सरकार को चार बिन्दुओं पर गहरा ऐतराज है। एक तो यह कि विज्ञापनों पर नेताओं के फोटो क्यों नहीं छपने चाहिए। समिति ने अम्बुड्समान याने लोकपाल बनाने की सलाह दी थी। उसका विरोध किया गया। समिति की सिफारिश के प्रत्येक विभाग या मंत्रालय के खर्च का पृथक आडिट कराने का भी विरोध किया गया। चुनावों के ठीक पहले विज्ञापन नहीं दिए जा सकें का भी विरोध किया। सुप्रीम कोर्ट में अपने विचारण में कहा कि अनुच्छेद 12 में ‘राज्य‘ की परिभाषा में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों शामिल होने से जनहित के मामलों की एकतरफा उपेक्षा नहीं की जा सकती। जहां लगे कि हस्तक्षेप करने के लिए मुनासिब कानून के अभाव में स्पेस खाली है। सुप्रीम कोर्ट को संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत हस्तक्षेप का अधिकार होगा जिसमें कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट अदातलों की डिक्रियों और आदेशों वगैरह के संबंध में आचरण कर सकेगा जब तक कि संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाए और जब तक इस निमित्त इस प्रकार का उपबंध नहीं किया जाता। सुप्रीम कोर्ट ने औपचारिक किस्म के विज्ञापनों को लेकर ज्यादा टोकाटाकी नहीं की और उनके प्रसारण को लेकर ज्यादा जांच करने की जरूरत नहीं समझी। केन्द्र सरकार के द्वारा उठाई गई चारों आपत्तियों को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज नहीं किया, जबकि उस संबंध में ज़्यादा मुनासिब आदेश दिए जाने की संभावना याचिकाकार ने बनाई थी। फिर भी समिति के कई सुझावों को सुप्रीम कोर्ट ने अपने क्षेत्राधिकार में स्वीकार कर लिया।
(5) अदालत ने इसलिए मुख्यतः केनेडा, इंग्लैंड, न्यूजीलैण्ड और ऑस्ट्रेलिया में विज्ञापन नीति की यथास्थिति को विचारण में अलबत्ता लिया। कोर्ट ने कहा कि इन देशों में विज्ञापन के जारी होने के पहले के प्रतिमानों को लेकर पुनरीक्षण करने का प्रावधान है जिससे यक-ब-यक विज्ञापन नदी की बाढ़ की तरह उसमें कुछ भी नहीं बहा दें। इंग्लैण्ड और आॅस्ट्रेलिया में विज्ञापन पर इतना खर्च क्यों होना चाहिए, इस बारे में भी वस्तुपरक आकलन सक्षम व्यक्तियों द्वारा किया जाता है, ताकि फिजूलखर्ची नहीं हो। मसलन ऑस्ट्रेलिया में दस लाख डालर से अधिक के विज्ञापन खर्च होने पर पूरा परीक्षण विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है कि इन विज्ञापनों के मुकाबले कम खर्च पर वही मकसद क्यों नहीं हासिल किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि किसी नेता या मंत्री का लगातार विज्ञापनों में चेहरा छापने से साफ नजर आता है कि समूचा श्रेय उसके सिर माथे चंदन की तरह लीपा जा रहा है। यह भी कि जितनी योजनाएं, प्रकल्प और घोषणाएं हैं सब मानो उसी मंत्री के दिमाग की उपज हैं। इसलिए लगातार फोटो प्रहार से एक व्यक्ति के पक्ष में निजी कल्ट या उसकी प्रतिमा स्थापित की जाती है, जो लोकतंत्रीय मान्यताओं के बिल्कुल खिलाफ है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस, राज्यपाल और चीफ मिनिस्टर को छोड़कर बाकी पदधारकों और नेताओं के सरकारी विज्ञापनों में फोटो छापने पर पाबंदी लगा दी। हालांकि बाद में अपने इस हिस्से को सुधारते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह रियायत दे दी कि विभागीय मंत्री के भी फोटो छप सकते हैं। ( क्रमशः )

कनक तिवारी