फ़र्जियों की बर्खास्तगी का जुमला दुहरा दिया, बस मीडिया गदगद, और सामाजिक चमचों ने सोशल मीडिया रंग दिया

योगेश सिंह ठाकुर

रायपुर । फ़र्जी जाति प्रमाणपत्र मामले को लेकर एक और शिगूफ़ा छोड़ दिया मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने, किस-किस विभाग में कितने, राज्य निर्माण के बाद कुल कितने फ़र्जियों के आधिकारिक मामले आए यह बता कर एहसान किया । जैसे हर साल दो बार विभागीय सचिव को सख्त कार्रवाई का पत्र जारी होता है, वैसे ही इस बार मुख्यमंत्री जी ने फ़र्जियों की बर्खास्तगी का जुमला दुहरा दिया, बस मीडिया गदगद, और सामाजिक चमचों ने सोशल मीडिया रंग दिया ।

ज्ञात हो कि मुख्यमंत्री ने 12 नवंबर को फर्जी प्रमाणपत्रों ( जाति ) के आधार पर कार्य कर रहे शासकीय कर्मचारी अधिकारियों पर तत्काल कार्रवाही करने का आदेश जारी किया है, जिसके अंतर्गत प्रदेश मे ऐसे मामलों में न्यायालय से स्थगन प्राप्त करके जॉब कर रहे 267 अधिकारी, कर्मचारियों पर बर्खास्तगी की कार्रवाही होने वाली है, कल ही किसी पुराने मामले में पर्यटन मण्डल के महाप्रबंधक स्तर  के बड़े अधिकारी को निलंबित करके 2007-08 के भ्रष्टाचार की जांच का आदेश जारी हुआ है ।

बीस साल में छत्तीसगढ के तीनों मुख्यमंत्रियों ने साबित करके दिखाया कि आदिवासियों को कैसे बहलाया फुसलाया जा सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि सिर्फ़ आदिवासी जन-प्रतिनिधि ही नहीं, इन बीस सालों के सभी सामाजिक संगठन पदाधिकारियों ने भी समाज का हित देखने के बजाए सत्ता की पैरवी करने में जान लगाई है ।

भूपेश बघेल के फ़टाफ़ट कार्रवाई के वादे का सवा साल हो गया लेकिन आज तक कोई प्रतिनिधि मुख्यमंत्री से उनकी नाकामी पर सवाल पूछने को तैयार नहीं है । समाज के दलालों की नादानी और स्वार्थ तो अपनी जगह है ही लेकिन उनकी जिद्द भी कमाल है कि इतने जटिल-संवैधानिक मुद्दे को समझने के लिए असली जानकारों से जरा भी ट्रेनिंग लेने को तैयार नहीं हैं । इस बहाने की असली वजह यह है कि क्योंकि न तो वे बुजुर्गों/सीनियर से तीखे सवाल पूछेंगे और न ही पढाई करने के लिए जोर देंगे । केटेगरी छोड़ो, अनारक्षित वर्ग से भी देश भर में इस मुद्दे पर एक-दो ही मजबूत कानूनी जानकार हैं । 1985 से लेकर 2020 तक दर्जनों मुकद्दमों में किसी भी वकील ने पचास साल पुराने तीन जजों के लक्ष्मण सिद्दप्पा नाईक बनाम कट्टमणि फ़ैसले को खोज कर उसका संदर्भ नहीं दिया था । बोलना तो दूर कोई लिख तक नहीं पाया कि सुप्रीम कोर्ट को अनुच्छेद 142 के सहारे फ़र्जियों की नौकरी संरक्षित करने का अधिकार नहीं है । हल्बा समाज के दो बुद्दिमानों ने असली कानूनी जानकार पर भरोसा किया और इस मुद्दे पर सबसे तेज नतीजा सबसे किफ़ायती तरीके से हासिल करने का रिकार्ड बन गया । सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मुकद्दमा लगा कर डीओपीटी भारत सरकार को जुलाई 2020 में अपना मेमोरेंडम वापस लेने पर मजबूर कर दिया गया । फ़िर भी छत्तीसगढ के सामाजिक दलालों ने सिर्फ़ आलोचना ही की। खुद तो इनको अंग्रेजी में एक याचिका लिखनी नहीं आती, लीगल रिसर्च की स्किल और जरूरत का अता पता भी नहीं| लेकिन फ़िर भी असली कानूनी जानकार से सहयोग नहीं करेंगे क्योंकि इनको मुद्दा निपटने से नहीं अपनी दुकानदारी से मतलब है । छग में सिर्फ़ 268 ही फ़र्जी जाति प्रमाण पत्र वाले कर्मचारी मौजूद हैं क्या ? 3 जून का सामान्य प्रशासन विभाग का फ़र्जियों को संरक्षण का सर्कुलर कब और कैसे वापस ले रहे हैं भूपेश जी? मुख्यमंत्री के निर्देश पर महाधिवक्ता (कार्यालय) द्वारा अर्जेंट हियरिंग का निवेदन करने भर से नौकरी सुरक्षा का स्टे वेकेट हो जाएगा ? इसके लिए लीगल ग्राउंड भी बता देते …दो-जजों की बेंच के फ़र्जियों को सुरक्षा देने वाले आधा दर्जन फ़ैसले पलटे बगैर सर्विस रिट की सिंगल बेंच से कैसे इंसाफ़ दिला देंगे इसका भी कोई इशारा कर देते!!! फ़र्जी जाति प्रमाणपत्र कोई झूठी गवाही या जाली वसीयत जितना सिंपल मामला नहीं है । संविधान पीठ के आधा दर्जन से ज्यादा और तीन जजों की बेंच के पांच जजमेंट (जुलाई 2017 का बहिरा फ़ैसला शामिल) होते हुए भी आज तक सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स से फ़र्जियों को राहत मिल ही रही है । अगर समाज इस मुद्दे पर काम करने के तरीके की अपनी गलती नहीं सुधारेगा तो नतीजा भी वही का वही रहेगा । खुली सामाजिक बहस में कानूनी बारीकियों पर बहस से मुंह चुराने वालों को पहचान लीजिए ।

( इस टिप्पणी के लेखक योगेश सिंह ठाकुर आदिवासी छात्र संगठन के छत्तीसगढ़ प्रदेश अध्यक्ष हैं )

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