छत्तीसगढ़ में पत्रकारों को दबाने व डराने के लिए अब छत्तीसगढ़ सरकार ने आयोग का शुरू किया इस्तेमाल

महिला आयोग के अध्यक्ष ने अधिकार से बाहर जाकर पत्रकार के खिलाफ पहले ही पेशी में किया एक पक्षीय फैसला

राज्य महिला आयोग की विश्वसनीयता खत्म कर उसे राज्य कांग्रेसी महिला आयोग बनाने का षड्यंत्र


पत्रकार को नियम विरुद्ध कर दिया पुलिस के सुपुर्द, पुलिस हस्तक्षेप अयोग्य धाराओं में एफ.आई.आर. दर्ज करने दिया निर्देश

रायपुर ( भूमकाल समाचार ) झूठे वादों के भरोसे सत्ता में आई कांग्रेस की सरकार अपनी पोल खुलते देखकर बौखला गई है और पिछली सरकार के भ्रष्ट अधिकारियों और भ्रष्टाचार को दिए जा रहे संरक्षण को लेकर लिखने वाले पत्रकारों के खिलाफ प्रताड़ना के नए-नए तरीके खोज रही है । ज्ञात हो कि पिछले 2 साल के भीतर ढाई दर्जन से ज्यादा पत्रकारों के ऊपर राज्य सरकार द्वारा फर्जी मामले पंजीबद्ध किए गए और कई जगह कांग्रेस के कार्यकर्ताओं, पुलिस व सरकारी संरक्षण प्राप्त लोगों ने पत्रकारों के साथ मारपीट भी की । इन घटनाओं से चिंतित कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता राहुल गांधी ने पिछले माह मुख्यमंत्री सहित राज्य के तीन प्रमुख मंत्रियों को स्थिति नियंत्रित करने के निर्देश भी दिए थे, मगर लगता नहीं कि छत्तीसगढ़ सरकार अपने प्रमुख नेता के आदेशों की परवाह कर रही है बल्कि उल्टे अब तो पत्रकारों को परेशान करने के लिए आयोगों के इश्तेमाल करने के मौलिक तरीके पर अमल की प्रक्रिया भी शुरू कर दी है ।

ज्ञात हो कि कांकेर के वरिष्ठ पत्रकार व पिछले 25 वर्षों से अधिक समय से प्रकाशित बस्तर बन्धु समाचार पत्र के संपादक सुशील शर्मा को समाचार प्रकाशन को लेकर ही पिछले 6 माह के भीतर जगदलपुर और रायपुर में अलग-अलग मामले दर्ज करा कर उन्हें गिरफ्तार करने से ही सरकार को संतोष नहीं हुआ, बल्कि उसी शिकायतकर्ता की शिकायत पर सुशील शर्मा जी के खिलाफ राज्य महिला आयोग में भी प्रकरण दर्ज कर विचारण फैसला पेपर का पंजीयन रद्द करने रजिस्टार को लिखने, पुलिस अभिरक्षा में सौंपने से लेकर छत्तीसगढ़ जनसंपर्क से विज्ञापन बन्द करने, भुगतान रोकने जैसे निर्णय लिए गए हैं। ठीक इसी तरह की एक शिकायत पर दर्ज एफआईआर के आधार पर उन्हें एक बार पहले 19 मई 2020 को खम्हारडिह थाना रायपुर की पुलिस पार्टी कांकेर जाकर गिरफ्तार कर जमानत मुचलके पर छोड़ा गया है, परन्तु आज तक न्यायालय में चालान पेश नहीं किया जा सका है । ज्ञात हो कि इस मामले पर राज्य महिला आयोग ने वरिष्ठ पत्रकार सुशील शर्मा को नोटिस जारी करते हुए पहले तो उनके खिलाफ शिकायत की कॉपी ही उन्हें नहीं दी बाद में उनके द्वारा आवेदन लिखकर शिकायत की कॉपी मांगेने पर कॉपी देते हुए उन्हें 10 नवंबर 2020 को पेशी पर बुला कर वकील के साथ आने की अनुमति भी नही दी, और उन्हें अपना पक्ष रखने के लिए भी पर्याप्त मौका दिए बगैर पहली ही सुनवाई में आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर हड़बड़ी में उन्हें पुलिस को सुपुर्द ( पुलिस अभीरक्षा )करते हुए उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 504, 509, 509 (3) , 354, 500, 501, 502, 503 जैसी धाराओं में प्रकरण पंजीबद्ध करने व प्रकरण दर्ज कर आयोग को 17 नवंबर तक सूचित करने के आदेश दिए गए, इस आदेश में यह भी स्पष्ट नहीं किया गया कि पुलिस अभिरक्षा की अवधि क्या रहेगी ? तेलीबांधा पुलिस ने अपने अभिरक्षा में लेकर वरिष्ठ पत्रकार सुशील शर्मा को खम्हारडीह पुलिस थाना को सौंप दिया। जहां वे सारे दिन रात्रि 8:00 बजे तक निरूद्ध रह मानसिक यंत्रणा झेलते रहे।

बाद में घंटों बिठाए रखने के बाद खम्हारडीह पुलिस ने वरिष्ठ अधिकारियों अधिवक्ताओं से सलाह लेकर पाया कि आयोग के आदेश पर इस तरह से किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया जा सकता और रिपोर्ट भी अभ्यर्थी द्वारा शिकायत किए जाने जाने पर ही लिखी जा सकती है ।

इसी आधार पर खम्हारडीह पुलिस थाना प्रभारी ने वरिष्ठ पत्रकार सुशील शर्मा को 17 नवंबर को प्रातः दस बजे थाना खम्हारडीह में उपस्थित होने का एक नोटिस थमा कर 10 नवंबर की रात्रि 8:00 बजे पुलिस हिरासत से जाने दिया गया । राज्य महिला आयोग के आदेश को देखकर ही समझा जा सकता है कि यह विद्वेष पूर्वक, पूर्वाग्रह प्रेरित होकर हड़बड़ी में पहले से तय करके प्रताड़ित करने की नियत से दिया गया आदेश है ।

*विद्वान अधिवक्ताओं से बातचीत करने के उपरांत ज्ञात हुआ कि महिला आयोग के आदेश में कई विसंगतियां हैं और कई त्रुटियां हैं और वह सब ऐसी है कि जिससे स्पष्ट होता है कि राज्य महिला आयोग राज्य सरकार से उपकृत शिकायतकर्ता के पक्ष में स्पष्ट रूप से खुलकर खड़ी हुई है, साथ ही पहले ही पेशी में केवल घंटा भर की सुनवाई में आनावेदक को सफाई का पर्याप्त मौका दिए बिना पुलिस जांच की प्रक्रिया को प्रभावित करने की नियत से पहले से ही कई ऐसी धाराओं में अपराध दर्ज करने का निर्देश दे दिया जिनमें अक्सर पुलिस हस्तक्षेप नहीं करती । विद्वान अधिवक्ताओं के अनुसार भारतीय दंड संहिता की धारा 501,502, 503 इत्यादि पुलिस हस्तक्षेप योग्य अपराध नहीं है और इन मामलों में अपराध पंजीबद्ध करने के लिए प्रार्थी को खुद ही न्यायालय में परिवाद दाखिल करना पड़ता है ।* *ज्ञात हो कि इसी मामले में प्रार्थिया की शिकायत पर ही पहले ही खम्हारडीह पुलिस थाना में दफा 509 और 504 भा.द.वि. के तहत मामला दर्ज किया जा चुका है, जिसमें वरिष्ठ पत्रकार सुशील शर्मा की गिरफ्तारी भी की जा चुकी है, जबकि 1 घंटे के सुनवाई के तुरंत बाद राज्य महिला आयोग ने इसी मामले पर चार अलग-अलग अंक को लेकर चार अलग-अलग प्रकरण दर्ज करने का निर्देश भी पुलिस को दिया है ।*

आश्चर्य की बात है कि आयोग ने अपने आदेश के संबंध में ही व्यक्तिगत रूप से राज्य के डीजीपी को एक पत्र लिखकर सूचित किया है कि आयोग ने बस्तर बंधु अखबार का पंजीयन निरस्त करने का निर्णय लिया है, जबकि इस संबंध में आयोग निर्णय करने के लिए अधिकार नहीं रखती बस रजिस्टार ऑफ न्यूज़ इंडिया ( RNI ) को सलाह दे सकती हैं । जबकि पत्रकार और किसी समाचार पत्र संस्थान पर कार्यवाही के लिए भारत सरकार द्वारा संवैधानिक प्रावधानों के तहत पहले से ही प्रेस काउंसिल आफ इंडिया का गठन किया गया है, जबकि आयोग के आदेश में प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया को संबोधित किया गया है जो कि केवल एक निजी समाचार एजेंसी है ।

*इस मामले की सुनवाई के दौरान पत्रकार सुशील शर्मा के अनुसार उनके साथ फैसला से पहले ही अपराधी जैसा व्यवहार किया गया । उन्हें बार-बार अपमानित किया गया, निरर्थक सवाल पूछे गए जैसे ” पत्रकारिता की डिग्री है क्या ?” अब ज्ञात हो कि राज्य महिला आयोग के अध्यक्ष स्वयं एक वरिष्ठ अधिवक्ता भी हैं पर उन्हें यह नहीं पता कि किसी भी व्यक्ति के पत्रकार होने के लिए अभी तक देश और किसी भी प्रदेश ने कोई ऐसा कानून नहीं बनाया है कि उसे पत्रकारिता की डिग्री लेना अनिवार्य हो । उन्हें तो शायद यह भी पता नहीं हो कि माखनलाल चतुर्वेदी के पास भी है डिग्री नहीं थी, 40 साल से अधिक समय से पत्रकारिता कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार सुशील शर्मा के पत्रकारिता में पदार्पण से कई वर्षों बाद तो प्रदेश में पत्रकारिता की डिग्री या डिप्लोमा का पाठ्यक्रम शुरू हुआ है फिर सुशील शर्मा जी बस्तर बन्धु के संपादक हैं जिसे इसी भारत सरकार के नियम और कानून के तहत रजिस्टर्ड किया गया है ।*

पत्रकार सुशील शर्मा ने यह आरोप भी लगाया है कि इस मामले मे जो सरकारी दस्तावेजों का प्रकाशन बस्तर बन्धु ने किया है, जिनके आधार पर महिला की  बर्खास्तगी पूर्व में की गई थी तथा वर्तमान सरकार के मंत्रिमंडल ने विशेषाधिकार का प्रयोग करके अन्य पद का सृजन करके नियुक्ति की है उसमें तथ्य है तथा इस संबंध मे मामले के उजागर होने के बाद भी कोई संज्ञान लेने की खबर नहीं है। किसी आपत्तिजनक खबर के प्रकाशन के पश्चात सिविल कोर्ट मे मामले चलाए जाने की प्रक्रिया के लिए हर कोई स्वतंत्र है किन्तु यहाँ अस्वाभाविक  तरीकों से नियुक्ति का प्रकरण होने की वजह से मामले को दबाने की कोशिश सक्षम अधिकारियों द्वारा जारी है।

दूसरी ओर महिला आयोग की विज्ञप्ति मे पत्रकार को आरोपी निर्धारित कर दिया गया है तथा अवैध नियुक्ति वाली महिला के बारे में मूल खबर का कोई जिक्र नहीं किया गया है जबकि खबर की बुनियाद वही है, इसके अंतर्गत  10/11/2020 को महिला आयोग ने  जो आदेश जारी किया है उसमें पी.टी.आई. (प्रेस ट्रस्ट आफ  इंडिया) जो एक न्यूज एजेंसी है को बस्तर बन्धु की मान्यता रद्द करने का अनुरोध किया गया है, यह बेहद हास्यास्पद है, हालांकि डी.जी.पी. को बाद में लिखे पत्र में कानून की धाराओं के अंतर्गत प्रकरण दर्ज करने का निर्देश देते हुए इस त्रुटि को सुधार लिया गया है । 

 *सुशील शर्मा पूछते हैं कि क्या हम पत्रकारों द्वारा अब यह मान लिया जाए कि सरकार ने जिन-जिन वर्गों हेतु आयोग बना रखे हैं, उस वर्ग के लोगों का भ्रष्टाचार इस सरकार में हम पत्रकार अब उजागर नहीं कर सकते? अनुसूचित जनजाति वर्ग का अधिकारी/कर्मचारी, अनुसूचित जाति वर्ग का, अल्पसंख्यक वर्ग का अथवा पिछड़ा वर्ग से आने वाले किसी भी अधिकारी/कर्मचारी के खिलाफ हम पत्रकारिता नहीं कर सकते ?*

यह शासन का हुक्म है कि हवाओं को रोक दो, पानी उधर ना बहे,मगर क्या हवाएं शासन का आदेश सुनती हैं, ,,? कमल शुक्ला

कांग्रेस सरकार की कैबिनेट द्वारा लिए गए गलत व विधि विरुद्ध निर्णय के खिलाफ छापे गए खबर को लेकर सरकार यदि महिला आयोग का इस तरह कांग्रेस की एक संस्था के रूप में प्रयोग करेगी तो आगे चलकर विपक्ष के सत्ता में लौटने पर महिला आयोग जैसी संस्था का यह दुरुपयोग कांग्रेस को भारी भी पड़ सकता है ।
जिस व्यक्ति को शासन की ओर से खैरात में बड़ी कुर्सी मिल गई हो, वह तो ऐसे शासन का आभारी रहेगा ही, उससे न्याय की आशा कैसे की जा सकती है ? क्योंकि वह तो हर मामले में खुद को खैरात देने वाले का, उसके विचारों का सबसे पहले ख्याल रखेगा ही।
हर एक संस्था,आयोग का एक कार्यक्षेत्र होता है और एक अधिकार क्षेत्र होता है, विधानसभा से पारित या लोकसभा से पारित अधिनियम के अंतर्गत बनाए नियमों के दायरे में ही ये काम कर सकते हैं। कोई भी आयोग नियमों से बाहर जाकर अपनी सीमाओं और अधिकारों के दायरे से बाहर जाकर काम नहीं कर सकता और न्यायालयीन अधिकारों के प्रकारों को अपने हाथ में नहीं ले सकता, जब तक कि यह विशिष्ट रूप से परिभाषित कर उस आयोग को प्रदत्त ना किए गए हों।
किसी सब इंस्पेक्टर को यह आदेश देना कि फलाँ फलाँ आदमी को बिना अपराध दर्ज किए या किये जाने तक पुलिस की अभिरक्षा में लें , या शासन के किसी जनसंपर्क विभाग को यह निर्देश देना कि फलाँ फलाँ समाचार पत्र को विज्ञापन ना दिया जाए और बंद कर दिया जाए, यह सब आयोग के किस अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आता है ? मात्र कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त करने से किसी को तानाशाही के अधिकार नहीं मिल जाते हैं।
यहां तक कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट निर्णय देते हैं और कोई निर्देश जारी करते हैं तो किसी अधिनियम और किसी नियम के अंतर्गत जब कोई विभाग काम नहीं कर रहा हो तो उसे उन्हीं अधिनियम और नियमों के अंतर्गत काम करने के बारे में निर्देशित कर सकते हैं या संवैधानिक व्यवस्था का उल्लंघन होने पर संविधान के प्रावधानों का पालन सुनिश्चित करने के लिए ही निर्देश जारी कर सकते हैं।

आइए इस प्रकरण के बहाने राज्य सरकार द्वारा बनाए गए तमाम प्रकार के आयोग को लेकर समझे कि इन आयोग और मंडल का उद्देश्य किसी महिला, अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग के अधिकार की सुरक्षा करना है नही बल्कि जनता के हक के अरबों रुपयों का दुरुपयोग कर किन्ही नेताओं का घर आबाद करना ही है । अगर यह सब बहुत जरूरी है तो राज्य सरकार के गठन होने के तत्काल बाद इन आयोगों का गठन क्यों नहीं हुआ ? क्या तब प्रदेश की महिलाओं व अन्य प्रताड़ित वर्गों को न्याय की जरूरत नहीं थी ? पिछली सरकार के भी 15 साल के कार्यकाल के दौरान इन आयोगों के माध्यम से कितने वंचित और पिछड़े तबकों को न्याय मिल पाया क्या इसका ब्यौरा राज्य सरकार प्रस्तुत करेगी ? भारतीय संविधान में तमाम प्रकार के नियम कानून और अधिकार के रहते वाह भारतीय दंड विधान की संहिता के तहत समस्त प्रकार के अन्याय के विरुद्ध न्यायालय शक्ति होने के बाद भी यह राज्य सरकारों द्वारा केवल अपने खास कार्यकर्ता या नेता को उपकृत करने के लिए जनता के पैसे का दुरुपयोग मात्र है ।

सत्ता पक्ष की कृपा मात्र से आयोगों के अध्यक्ष बने हुए लोगों को यह समझना जरूरी है कि वे कोई विषय विशेष की महारत रखते हुए या कोई योग्यता रखते हुए इन पर नियुक्त या आसीन नहीं हुए हैं, वह मात्र सत्ता पक्ष की कृपा से सत्ता पक्ष को ही फायदा पहुंचाने के लिए बनाए गए हैं। और ऐसी नियुक्ति के साथ वह सत्ता पक्ष के मनमाने और निरंकुश और तानाशाही भरे निर्णय के संबंध में अपने पद का दुरुपयोग करते हुए कितना भी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर निर्णय ले, निर्देश दे, पर उन्हें यह याद रखना होगा कि वे भी संवैधानिक व्यवस्था से बाहर नहीं हैं और इस संबंध में एक आम नागरिक भी उनके बराबर की हैसियत और अधिकार रखता है । पत्रकार तो फिर भी आम नागरिक के लिए अपना पक्ष रखने के लिए एक जरिया है और उसे दबा कर, धमका कर, डराकर वास्तव में सिर्फ आम नागरिक के अधिकारों का हनन अगर आप कर लेंगे और सिर्फ सत्तापक्ष से जुड़े हुए खास दलालों और अनियमितता भरी सुविधा प्राप्त करने वालों को कैबिनेट स्तर से निर्णय करा क्यों न उपकृत कर रहे हों, उन्हें ही बचाने का उनका दायित्व है, ऐसा सोचते हैं तो यह उनकी बहुत बड़ी भूल है।

यह ध्यान रहे कि “भूमकाल समाचार” पत्रकारिता की भाषा में गरिमा और मर्यादा का समर्थन करता है । किसी भी पत्रकार को पत्रकार होने के नाते एक आम नागरिक जितना ही अधिकार है उससे ज्यादा नहीं । मगर पत्रकार द्वारा प्रकाशित प्रसारित किसी खबर में केवल भाषा की शुद्धता और अशुद्धता के आधार पर उसमें प्रस्तुत प्रमाणित तथ्यों को नकारा नहीं जा सकता । इसी “बस्तर बंधु” की कई खबरों के आधार पर कई बड़ी कार्यवाही हुई हुई है इसलिए किसी एक खबर की भाषा को लेकर हुई शिकायत के आधार पर उनकी पूरी पत्रकारिता पर संदेह व्यक्त नहीं किया जा सकता । इस मामले में भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि शिकायत कर्ता जिस पद से एक बार पूर्व में बर्खास्त हुई हैं व इस मामले में उस पद पर उन्हें बिना निर्धारित योग्यता के पुनः छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा कैबिनेट की आड़ लेकर नियुक्ति करने का तथ्यात्मक खबर बस्तर बंधु ने प्रकाशित किया है, कार्यवाही तो उस खबर पर भी बनती है, मगर इस मामले में स्पष्ट है कि राज्य सरकार अपनी खुद की गलती छुपाने के लिए ही महिला आयोग का इस्तेमाल कर पत्रकार को प्रताड़ित करने में लगी हुई है यह घोर निंदनीय है ।

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