भारत-चीन संबंध में दरार की पृष्ठभूमि :

हमारे देश के शासक वर्ग के नेताओं का सबसे बड़ा संकट यह है कि वे तनाव की इस घटना को या तो चीन के विश्वाघात के चश्मे से देखते हैं या थोथी देशभक्ति के रंग में रंगकर. इसीका नतीजा है कि एक तरफ भाजपा के नेता कांग्रेस के नेताओं, खासकर राहुल गाँधी को देशद्रोही घोषित करने में व्यस्त हैं तो कोंग्रेसी नेता भाजपा सरकार पर चीन के खिलाफ कार्रवाई करने की जगह जनता से सच्चाई छुपाने व डरपोक होने का आरोप लगा रहे हैं. बाकी के विपक्षी दल मौन साधकर स्थिति का आकलन कर रहे हैं. कोई पूंजीवादी पार्टी पिछले चालीस वर्षों में विश्व परिस्थिति में आये बदलाव और भारत-चीन संबंध पर उसके प्रभाव के विश्लेषण के लिए तैयार नहीं है जबकि मामले को समझने की कुंजी इसमें छुपी है. वे ऐसा कर भी नहीं सकते क्योंकि इससे उन सबकी देशभक्ति की पोल खुल जायेगी.

चीन ने जब कम्युनिस्ट सिद्धांत से गद्दारी कर पूंजीवादी दुनिया में प्रवेश किया था तो सभी साम्राज्यवादी देशों और उनके दलालों की बांछे खिल गयी थीं. इसके दो कारण थे. उन्हें लगा था : सर्वहारा का अंतिम दुर्ग भीतर से ढह गया और विकास के नाम पर लूटने के लिए एक बड़े देश का दरवाजा खुल गया. हमारे देश का पूँजीपति वर्ग भी अपने आकाओं की खुशी में शामिल था और 1962 का रोना धोना भूल गया था. उस समय चीन न तो अमेरिका के लिए कोई आसन्न खतरा था और न भारत के लिए. उल्टे उन्हें लगा था कि साम्राज्यवादी पूंजी के दबाव में वह उनकी चुनावी पद्धति भी अपना लेगा. लेकिन शेनमेन स्क्वायर (1989) के प्रदर्शन पर अमानवीय दमन से चीन सरकार ने बता दिया कि उसे अपनी इच्छानुसार चलाना अमेरिका व यूरोप के लिए आसान नहीं होगा.

अपनी तेज विकास दर के कारण 21वीं सदी आते-आते उसने दिखा दिया कि उसकी आकांक्षा पूरी दुनिया में पाँव पसारने की है. 2001 में विश्व व्यापार संगठन उसके लिए उपयुक्त मंच भी मिल गया. 2010 में वह जापान को पछाड़कर दुनिया की दूसरी बड़ी आर्थिक ताकत बन गया. अब दुनियाभर के पूंजीवादी विचारक इस चिंतन मंथन में लग गये कि क्या चीन अमेरिका को भी पछाड़ देगा? और इस तरह की भविष्यवाणी भी की जाने लगी. अब वह अमेरिका को संभावित खतरा लगने लगा था. इससे निबटने के लिए उसने आर्थिक से लेकर सैन्य क्षेत्र में नए-नए गठबंधन और समझौतों का सूत्रपात किया और भारत सरकार आर्थिक मोर्चे पर चीन के साथ मधुर संबंध तो बनाए रही लेकिन अमेरिका के साथ उसके नए सैन्य समझौते भी होते रहे. सत्तासीन पार्टी बदलने से इस नीति में कोई बदलाव नहीं हुआ. इससे भारत चीन संबंध में अविश्वास पैदा होने और दरार पड़ने का नया दौर शुरू हो गया था जिसकी पराकाष्ठा आज दिखाई पड़ रही है. अमेरिका चीन के बढ़ते प्रभुत्व और विस्तार को रोकने के लिए भारत का इस्तेमाल वैसे ही करना चाहता है जैसे पाकिस्तान का इस्तेमाल उसने अफगानिस्तान में सोवियत प्रभुत्व को मिटाने और बाद में इस्लामी आतंकवाद को रोकने के नाम पर किया था.

कवींद्र

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