फंस गए टाॅल्स्टाॅय पुलिसिया चक्कर में ?

अखबारों और वकीलों पर भरोसा किया जाए तो एलगार परिषद-भीमा कोरेगांव प्रकरण में तथाकथित अर्बन नक्सलों की जमानत की सुनवाई के वक्त बम्बई हाईकोर्ट के जज सारंग कोतवाल ने संभवतः एक अजीब टिप्पणी कर दी । वह मनोरंजक, चिंताजनक, हास्यास्पद और न्याय प्रक्रिया की दार्शनिक समझ को लेकर सवाल उठाती है। अंगरेजी बुद्धिराज की भारतीय पुलिस तो महान है। वह अपनी महानता से आगे भी वंचित होने वाली नहीं है। जब नागरिक आजादी पर हमला करना होता है। तब पुलिस को बल्कि सीबीआई तक को सुप्रीम कोर्ट के जुमले में पिंजरे का तोता बनना पड़ता है।

भीमा कोरेगांव के कथित अर्बन नक्सलों के खिलाफ वैचारिक साक्ष्य लाने की बौद्धिक कूबत सरकार और पोलिस में कहां होती है। तोतों को जितना पढ़ाया जाता है। वे उतना ही बोल पाते हैं। उन्हें समझाया गया होगा जहां कहीं युद्ध, हिंसा, प्रतिरोध, दमन, सिविलनाफरमानी, असहयोग, मार्क्स, लेनिन, इंकलाब, आजादी, जिंदाबाद, जैसे शब्द मिलें। उस साहित्य और व्यक्ति को दबोच लो जिसके पास इन शब्दों को लिखता सोचा साहित्य किताबों या परचों के रूप में मिले। भीमा कोरेगांव के प्रकरण में भी यही हुआ। कबीर कलामंच द्वारा प्रकाशित राज्य दमन विरोधी, जयभीम काॅमरेड, मार्क्सवादी आर्काइव्स वगैरह प्रथम दृष्टि में पुलिसिया कान खड़े करने वाले प्रकाशनों के साथ एक भारी भरकम आकार और संघर्षशील टाइटिल वाली किताब ‘वार एण्ड पीस‘ याने ‘युद्ध और शांति‘ पुलिस की अचूक दृष्टि से पकड़ में आ ही गई।

बाकी जो अदालती कार्यवाही में हुआ सो हुआ होगा। कथित तौर पर न्यायाधीश ने पूछा कि ‘वार एण्ड पीस‘ जैसी किताब जिसे लियो टाॅल्स्टाॅय ने लिखा है वह किसी दूसरे देश के युद्ध से संबंधित है। उस आपत्तिजनक वस्तु को घर पर रखने के क्या आशय हैं। बौद्धिक संवदेना का यही वह बिंदु है जहां संसार के सबसे बड़े उपन्यासकारों में एक और आला दर्जे के इंसान टाॅल्स्टाॅय बहस के केन्द्र में आ जाते हैं। साहित्य के इलाके को छोड़ भी दें, तो दरअसल भारत में टाॅल्स्टाॅय को प्रचारित करने में एक और आदमी का हाथ है जो इस साल 2 अक्टूबर 2019 को 150 साल का होने वाला है। उसका नाम है मोहनदास करमचंद गांधी। हमारे हाईकोर्ट में जज बनते उम्मीदवार सामाजिक विज्ञानों और समकालीन विश्वस्तर के चिन्तकों के नाम तथा काम से वंचित रखे जाते हैं। उसका यह भी एक यादध्यानी उदाहरण है।

ये0 चेलिशेव तथा अ0 लीतमान ने अपनी पुस्तक ‘सोवियत-भारतीय मैत्री के स्त्रोत में गांधी-टाॅलस्टाॅय रिश्ते के क्रमिक विकास का संक्षिप्त प्रामाणिक इतिहास लिखा है। लेखकों के अनुसार गांधी के राजनीतिक जीवन में टाॅल्स्टाॅय के संबंधों का विशेष स्थान है। गांधी जी ने अपने ‘इंडियन ओपिनियन‘ अखबार में टाॅल्स्टाॅय के जीवन और कृतित्व के बारे में एक लेख लिखा। उसका शीर्षक था‘ काउन्ट टाॅल्स्टाॅय। लेख में उन्होंने कहा थाः ‘पश्चिमी जगत में काउन्ट टाॅल्स्टाॅय जैसा प्रतिभाशाली और मेधावी व्यक्ति, उन जैसा ऋषि कोई दूसरा नहीं है।…लोगों की नैतिकता को ऊंचा उठाने के लिए उन्होंने कुछ उपन्यास लिखे जिनमें यूरोपीय लेखकों की इनी-गिनी कृतियों की ही तुलना की जा सकती है। अपनी इन सभी पुस्तकों में उन्होंने जो दृष्टिकोण व्यक्त किया, वह इतना प्रगतिश्रील था कि रूसी गिरजे ने गुस्से से बौखलाकर उन्हें चर्च से निष्कासित कर दिया। लेकिन इसकी ओर कोई ध्यान न देते हुए उन्होंने अपनी कोशिशें जारी रखीं।……दौलत को उन्होंने ठोकर मार दी और गरीबों की जिन्दगी बिताने लगे।…..लाखों रूसी किसान उनकी अपीलों और आदेशों को मानने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।‘

कुछ वर्षों पहले छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में विनायक सेन की जमानत की पैरवी करते मुझे जानकारी हुई कि पुलिस ने उनके पास से कुछ ऐसा साहित्य बरामद किया है जो कथित तौर पर नक्सली तो है लेकिन वह बाकायदा सरकारी अधिनियमों के तहत अनुमति और पंजीयन के आधार पर प्रकाशित हुआ है। मैंने तो जज साहब से यह भी कह दिया ऐसा पूरा साहित्य मेरे पास भी है। क्या मुझे भी पकड़ लिया जाएगा। वह पूरा साहित्य कानूनन प्रकाशित हुआ है और यदि उसे आपत्तिजनक समझा जाता तो पुलिस के बदले अन्य विभागों को भी कार्यवाही करनी थी।

गांधी ने अपनी क्लासिक ‘हिन्द स्वराज‘ 1909 में लिखी। उसमें उन्होंने अठारह विदेशी लेखकों की किताबें और दो भारतीयों दादा भाई नौरोजी और रमेशचंद्र दत्त की किताबें पढ़ने की सलाह दी। इन बीस पुस्तकों में छह पुस्तकें टाॅल्स्टाॅय की हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण है। कल्पना करें यदि गांधी को इन अर्बन नक्सलों की पैरवी करने कहा जाता तो कितना मनोरंजक दृश्य उपस्थित हो जाता। गांधी ने लिखा था कि यह जानना जरूरी है कि टाॅल्स्टाॅय के विचारों से सीधे-सीधे मेल खानेवाली एक और बात है। ‘निष्क्रिय प्रतिरोध‘ की अवधारणा को संसार में प्रचार के लिए गांधी एकदम जरूरी समझते थे। 10 नवंबर, 1909 के पत्र में उन्होंने टाॅल्स्टाॅय से अनुरोध किया कि वे दक्षिण अफ्रीकी आंदोलन का समर्थन और प्रचार करने के लिए अपनी प्रतिष्ठा और प्रभाव का उपयोग करें। उन्होंने लिखाः ‘अगर यह सफल होगा तो न केवल अविश्वास, घृणा और झूठ पर विश्वास, प्रेम और सत्य की विजय होगी, बल्कि बहुत संभव है कि हिन्दुस्तान और संसार के दूसरे भागों के करोड़ों लोगों के लिए, उत्पीड़कों के बूटों के नीचे दाबे जा सकने वाले लोगों के लिए उदाहरण बन जायेगा। हिंसा के ठेकेदारों की हार, कम से कम हिन्दुस्तान में उनकी हार में यह निश्चय ही बड़ी मदद देगा। अगर हम आखिर तक डटे रहेंगें, और मैं समझता हूं कि हम डटे रहेंगे, तो अंतिम जीत के बारे में मुझे तिल भर भी शुबहा नहीं है।‘

टाॅल्स्टाॅय ने अपने पत्र में भारतीयों को सलाह दी थी कि अंगरेजों से अहिंसा के आधार पर ही लड़ें। मनुष्य जाति को एक नए तरह का संघर्ष-बोध पैदा करना चाहिए। गांधी ने टाॅल्स्टाॅय से प्रेरणा लेकर ही यह लिखा था कि अंगरेजों ने भारतीयों को गुलाम नहीं बनाया है। यह तो भारतीय खुद हैं जिन्होंने अंगरेजों को न्यौता दिया है। 11 नवंबर 1909 को गांधी ने उन पर उनके मित्र जोसेफ डोक द्वारा लिखित जीवनी टाॅल्स्टाॅय को भेजी। टाॅल्स्टाॅय ने 7 सितंबर 1910 को उस पुस्तक को लेकर अपना पत्र भेजा। वह शायद गांधी के लिए टाॅलस्टाॅय का अंतिम पत्र था। टाॅल्स्टाॅय ने गांधी के द्वारा ट्रांसवाल में चलाए जा रहे अहिंसक आंदोलन की तारीफ की थी। 20 नवंबर 1910 को अपनी मृत्यु के पहले टाॅल्स्टाॅय ने गांधी को अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

कनक तिवारी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!