आज की कविता : शहीद गिरिजा रैना का पोस्टमार्टम

( आज कवि दिलीप कुमार कौल का जन्म-दिन है । जन्म-दिन की हार्दिक बधाई के साथ उन की एक मशहूर कविता पेश है : इसे आज दिनेश कुमार गर्ग ने बौद्धिक चर्चा वाट्सग्रुप में पोस्ट किया है )

दिलीप कुमार कौल

सर के बीचों बीच
चलाई गई है आरी नीचे की ओर
आधा माथा कटता चला गया है
आधी नाक
गर्दन भी आधी क्षत विक्षत सी
बिखर सी गई हैं गर्दन की सात हड्डियां
फिर वक्ष के बीचों बीच काटती चली गई है नाभि तक आरी
दो भगोष्ठों को अलग अलग करती हुई
दो कटे हुए हिस्से एक जिस्म के
जैसे एक हिस्सा दूसरे को आईना दिखा रहा हो
……………..
दोनों हिस्सों पर
एक एक कुम्हालाया सा वक्ष है
जैसे मुड़ी तुड़ी पॉलिथीन की थैली
नहीं जैसे एक नवजात पिल्ले का गला घोंटकर
डाल दिया गया हो
एक फटे पुराने लिहाफ़ से निकली
मुड़ी तुड़ी रुई के ढेर पर …
…………….
एक हिस्से की एक आंख में भय है
और दूसरे हिस्से की एक आंख में पीड़ा….”
………………..
देखो यह शव परीक्षण की भाषा नहीं है
यहां उपमाओं के लिए
कोई स्थान नहीं है…
पर क्या करें जब बीच से दो टुकड़ों में बंटा शव हो
तो इच्छा जागृत होती ही है समझने की कि
कैसा लगता होगा वह अस्तित्व
दो टुकड़ों में बंटने से पहले
कल्पनाएं खुद ही उमड़ पड़ती हैं
और भाषा बाह्य परीक्षण और आंतरिक परीक्षण की शब्दावलियों को लांघ कर
उपमाओं के कवित्व को छूने लगती है
………………..
हां परन्तु यह कर्तव्य नहीं है
न ही वांछित है
क्षमा करें
तो फिर व्यावसायिक प्रतिबद्धता की ओर लौटता हूं
आता हूं बाह्य परीक्षण की ओर
परन्तु भाषा की तटस्थता का वादा नहीं कर सकता
यह औरत है,
क्षमा करें औरत थी,
बीस बाईस साल की
इस के कान ऊपर की ओर भी छिदे हुए हैं
सुहाग आभूषण अटहोर पहनने के लिए
(अटहोर ज़ोर से खींच लिया गया है क्यों कि कानों के ऊपरी छेद
कट कर लंबे हो गए हैं।)
कोष्ठक में मेरी यह व्यावसायिक टिप्पणी है परन्तु
कल तक सब के साथ इन कानों को भी फाड़ती थीं भुतहा चिल्लाहटें
“ हम क्या चाहते आज़ादी”
और दोनों कानों के श्रवण स्नायुओं से होते हुए
इन चिल्लाहटों का आतंक पहुंच गया होगा
मस्तिष्क के दोनों गोलार्द्धों में
जो कि अब अलग अलग पड़े हैं
खोपड़ी के दो अलग अलग हिस्सों में
हर गोलार्द्ध में अपने अपने हिस्से का आतंक है
पीड़ा है
लेकिन मैं यक़ीन से कह सकता हूं कि
आरे पर काटे जाने से पहले ही वह मर चुकी थी
क्यों कि जिस्म के कटे हुए हिस्सों से
ख़ून ही नहीं बहा
हृदय का धड़कना तो पहले ही बंद हो चुका था
उसको महसूस ही नहीं हुई होगी वह असीम पीड़ा..
…………….
मूर्ख हो तुम
उसे तो दो टुकड़ों में काटा ही इस लिए गया था
कि पीढ़ियों तक बहती रहे यह पीड़ा
तुम बोलो न बोलो
कान सुनें न सुनें
आरी चलती रहे खोपड़ी को बीच में से काट कर पहुंचे भगोष्ठों तक
कि तुम्हें याद रहे
मातृत्व का राक्षसी मर्दन
…………
हां कटी हुई अंतड़ियों के छेद को दबाया तो
हरे साग और भात के अंश मिले
घर से खाना खा कर निकली थी यह
कि शाम को वापस आएगी,
देखो अलग अलग पड़े दोनों हिस्सों के
अलग अलग भगोष्ठों को देखो
देखो जमे हुए काले पड़ रहे रक्त के साथ मिला हुआ
श्वेत द्रव्य
मध्य युगीन रेगिस्तानी वासनाओं का
विक्षिप्त, नृशंस वीर्य
चिल्लाता हुआ ऐ काफ़िरो ऐ ज़ालिमो
किसी को सज़ा नहीं मिलेगी
……………
बस तुम्हें यह आरी काटती रहेगी खोपड़ी के बीच से भगोष्ठों तक
इस पोस्टमार्टम के बाद
पुरुष होते हुए भी
तुम्हारे वक्ष उभर आएंगे
परिवर्तित हो जाएंगे तुम्हारे सभी अंग
आत्म परीक्षण हो जाएगा
यह शव परीक्षण
जो भी हो चलो
अभी इतना तो किया ही जा सकता है कि
बीच से कटे हुए इस जिस्म के दोनों हिस्सों को
एक दूसरे से जोड़ कर सिल दिया जाए
एकता और अखंडता के साथ
कम से कम अंत्येष्ठि तो होगी
अग्नि की भेंट चढ़ने तक ही सही
शव परीक्षक की सिलाई
कम से कम इस काम तो आएगी कि
राख होने तक भ्रम बना रहे कि
दोनों टुकड़े
एक दूसरे के अभिन्न अंग हैं।

दीपक कुमार कौल

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