विपक्ष नहीं विकसित कर सका कोई नरेटिव

महेंद्र मिश्र

रुझान बताते हैं कि बीजेपी बंपर बहुमत से सरकार में आ रही है। और इसका पूरा श्रेय पीएम मोदी और उनके करिश्माई नेतृत्व को जाता है। रुझान को देखकर कहा जा सकता है कि इस बार 2014 से भी बड़ी लहर थी। यह बात अलग है कि वो दिखी नहीं। एक तरह से बीजेपी के पक्ष में अंडर करेंट की सुनामी थी। यही वजह है कि औसत सीटों पर 50 से लेकर 60 फीसदी तक मत बीजेपी के प्रत्याशियों को मिलते दिख रहे हैं। 

राष्ट्रवाद और पुलवामा के बहाने बालाकोट में एयरस्ट्राइक सबसे बड़े मुद्दे के तौर पर सामने आए हैं। जिसमें देश के आम नागरिक को लगा कि मोदी ही वह शख्स है जो दुश्मन को उसकी भाषा में जवाब दे सकता है। और इस समय वही देश की जरूरत है। राष्ट्रवाद के इस तात्कालिक दावानल में वह अपनी भूख और दूसरी जरूरतों को भी स्वाहा करने के लिए तैयार हो गया। इसके साथ ही मोदी एक ऐसे चेहरे के तौर पर सामने आए जो राष्ट्रवादी है। 

विकास की बात करता है। उसने दुनिया के पैमाने पर भारत को न केवल स्थापित किया बल्कि उसे नई पहचान दिलायी। वह पिछड़ा होने के साथ ही देश के अल्पसंख्यकों को भी काबू में रखने की ताकत रखता है। लिहाजा एक शख्स में अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से लोगों ने अपने-अपने अक्स देखे। जो किसी और विपक्षी नेता में संभव नहीं था। अगर नटसेल में कहें तो राष्ट्रवाद के एक बड़े नरेटिव के साथ भीमकायी नेतृत्व और कारपोरेट की खुली थैली तथा संगठन की ताकत के बल पर बीजेपी ने इस सफलता को हासिल की है।

उसके बाद एक कारगर गठबंधन बनाकर उसका सफलतापूर्वक संचालन उसकी जीत को सुनश्चित करने के लिए काफी था। जिसमें अपने तो अपने जरूरत पड़ने पर बाहर के दल मसलन टीआरएस से लेकर बीजेडी और जगन रेड्डी तक को मैनेज कर लेने की भविष्य की योजना शामिल थी।

दूसरी तरफ विपक्ष के पास उसके सामानांतर न तो कोई नरेटिव था। न ही उसकी कोई सोच बन पा रही थी। इसमें गणित तो थी लेकिन कोई विजन नहीं था। वह शुद्ध रूप से बीजेपी और मोदी विरोध पर टिका हुआ था। राफेल से लेकर किसानों और बेरोजगारों के तमाम मुद्दे उठाने की कोशिश जरूर की गयी लेकिन वो जनता में कोई जुंबिश नहीं पैदा कर सके। न्याय और 22 लाख सरकारी पदों की भर्ती का एजेंडा जरूर था लेकिन उन्हें जमीनी प्रचार का हिस्सा नहीं बनाया जा सका। सामानांतर और वैकल्पिक नरेटिव खड़ा करने की जगह जनेऊ पहनकर मंदिर-मंदिर घूमने का राहुल गांधी का तरीका भी विकल्प की बजाय कांग्रेस को बीजेपी की बी टीम ज्यादा साबित कर रहा था। 

और यह बात उसे वैचारिक दिवालियाएपन के कगार पर खड़ा कर देती है। कांग्रेस का अपने परंपरागत नेहरूवियन सेकुलर, डेमोक्रेटिक मॉडल से इतर किसी साफ्ट हिंदुत्व के प्लेटफार्म पर उतरने का फैसला हिंदू खेमे से कोई लाभ तो नहीं ही दिला सका। अल्पसंख्यकों के साथ विश्वास की डोर को उसने जरूर कमजोर कर दिया। इसके इतर सारी विपक्षी राजनीतिक पार्टियों को गोलबंद करने की जो ऐतिहासिक जिम्मेदारी पार्टी पर थी उसने 2019 की बजाय 2024 को लक्ष्य कर चुनाव लड़ने के अपने फैसले के जरिये उसको भी अपने कंधे से उतार फेंका। लिहाजा सांगठनिक तरीके से देश के स्तर पर बीजेपी के खिलाफ एक बड़े मोर्चे के गठन की जो संभावना थी वह भी जाती रही।

लेकिन एक बात तय है कि बीजेपी को यह जनादेश जनता के किसी खास मुद्दे और उसके बुनियादी सवालों की बजाय उनसे इतर कुछ भावनात्मक मुद्दों पर मिला है। दूसरे शब्दों में इसे जनादेश के अपहरण की संज्ञा भी दी जा सकती है। लिहाजा जैसे ही माहौल सामान्य होगा और जनता को अपनी जिंदगी के सवालों से दो चार होना पड़ेगा तब उसका सामना सीधे सरकार और उसकी नीतियों से होगा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि 1971 में गरीबी हटाओ के नारे पर बंपर बहुमत से जीत कर आयी इंदिरा सरकार के नाकाम होने पर तीन सालों के भीतर ही उसके खिलाफ विक्षोभ उठ खड़ा हुआ था और फिर दबाने के लिए उन्हें इमरजेंसी तक का सहारा लेना पड़ा था। लिहाजा आने वाले दिनों में खेती से लेकर किसानी और बेरोजगारी से लेकर शिक्षा के सवालों को अगर कारगर तरीके से हल नहीं किया जा सका तो नई मोदी सरकार के लिए भी ये मुद्दे भारी पड़ सकते हैं। 

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