लोकतंत्र को तो कभी फुर्सत में बचाते रहिएगा ,अभी तो अपने अंदर के इंसान को बचाइए !

रुचिर गर्ग

टीवी पर एग्जिट पोल का मनोरंजन चल रहा था । नरेंद्र मोदी पर दांव लगाए हुए मित्र खुश थे । शर्त में कुछ हज़ार जीतने वाले हैं।

चुनावी गणित पर गंभीर विमर्श भी हो रहा था ।

पाव भाजी ,लड्डू और खोवे की जलेबी के बीच अचानक टीवी देखते एक मित्र की आवाज़ गूंजी – अब तो रवीश कुमार की मॉब लिंचिंग हो जाएगी !!!! ..और ज़ोर का ठहाका गूंजा ।

मैं सन्न था…शब्द अटक गए थे ! तब से वह वाक्य हथौड़े की तरह सिर पर बज रहा है ।

लगा कि मॉब लिंचिंग अपनी पूरी क्रूरता के साथ हमारी चेतना का हिस्सा बन गई है !

हम पाषाण युगीन लोगों ने मॉब लिंचिंग को क्या पूरी सहजता के साथ स्वीकार कर लिया है या ये उतनी ही गंभीर आशंका है कि विरोध के स्वर कुचले ही जाएंगे…और कुचलने के लिए मॉब लिंचिंग का मॉडल तो है ही !

क्या हमारी संवेदनाओं ने मॉब लिंचिंग के दर्द को अपना दर्द मानने से इनकार कर दिया है ?

क्या अख़लाक़ के परिवार को एक बार देश के हर शहर ,हर मुहल्ले और हर गली में घूम कर यह बताना होगा कि वो हर पल मार दिए जाने की दहशत में जिंदा हैं ?

वो बेटा आज भी कैसे सो पाता होगा जिसके पिता को एक हत्यारी भीड़ ने दरिंदगी के साथ मार डाला था ! क्या हर रात उसके कानों में अपने पिता की दर्द से भरी चीखें नहीं गूंजती होंगी ? उन चीखों पर ठहाके उस परिवार को किस लोकतंत्र पर गर्व करने का मौका देते होंगे ?

दरअसल इस देश की सामूहिक चेतना में नफरत इतनी सहजता के साथ भर दी गई है कि हमें अब इस बात का भान भी ना रहा कि हम सब आदिमयुगीन होते जा रहे हैं !

कोई हिंसक भीड़ रवीश कुमार की मॉब लिंचिंग कर जाए और हम सब इस बात पर बड़ी बहस का हिस्सा बनें कि सिनेमा घर में जब जन-गण-मन बजे तो हमें क्या करना चाहिए ? क्या हम ऐसा समाज होते जा रहे हैं ?

कोई हिंसक भीड़ मुझे ,मेरे परिजनों को या मेरे मुहल्ले में ,मेरी गली में ,मेरे शहर में ,मेरे राज्य में ,मेरे देश में किसी सड़क पर किसी नागरिक को मरते दम तक पीटती रहे ,नोचती रहे, पटकती रहे ,आंखें निकल दे,हाथ पांव तोड़ दे ,पेट चीर दे…लेकिन समाज उस दर्द को महसूस भी ना करे तो …???

रवीश कुमार या उन जैसे लोग क्या हम सभी से इतने दूर बसते हैं कि उन पर किसी हमले की आशंका हमें सहज लगे ?

और ऐसा क्यों कि किसी के मुंह से यह निकले कि अब तो रवीश की मॉब लिंचिंग हो जाएगी ???

उन ठहाकों से अलग सोचिए कि अब ये सब काल्पनिक नहीं है !

आपने वोट जिसे भी दिया हो सोचिए कि देश कहाँ आ कर खड़ा है और समाज की सामूहिक चेतना पर किस तरह हिंसक भीड़ ने हमला किया है !

चुनौती सरकार बनाना या बचाना नहीं है !

चुनौती है कि हम सभ्य बने रहें ,चुनौती है कि हमारी आने वाली पीढ़ी हमें हत्यारा ना कहे,चुनौती है कि हमारी आने वाली पीढ़ी हत्यारी भीड़ ना बन जाए ,चुनौती है कि इस देश की चेतना को नफरत और हिंसा से कैसे मुक्त रखें !

रवीश कुमार या विरोध के उन जैसे स्वरों ने इस हिंसक समाज में लड़ना और ज़िंदा रहना सीख लिया है । उनकी तादाद भी लगातार बढ़ रही है । चिंता करिए उस देश की जहां संविधान संकट में हो और लोकतंत्र के सारे औजार भोथरे कर दिए जा रहे हों !

वैसे सुनिए… लोकतंत्र को तो कभी फुर्सत में बचाते रहिएगा ,अभी तो अपने अंदर के इंसान को बचाइए !

रुचिर गर्ग

One thought on “लोकतंत्र को तो कभी फुर्सत में बचाते रहिएगा ,अभी तो अपने अंदर के इंसान को बचाइए !

  • May 21, 2019 at 5:57 pm
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    Desh me ek bhid taiyar ki ja rahi h jise rojagar se samaj se koi lena dena nahi bas unmad pada kiya jaraha h aap sach bolo to aap desh drohi ho

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