भूपेश बघेल और राज्यपाल की नूरा कुश्ती आदिवासी हितों के लिए घातक

हाई कोर्ट की राजभवन सचिवालय को जारी की गई नोटिस से कोई तात्कालिक लाभ नहीं, सिर्फ़ लंबी, बेमतलब लड़ाई की शुरुआत

रायपुर । सोमवार 6 फ़रवरी को हाई कोर्ट बिलासपुर ने छत्तीसगढ राज्य (जीएडी) बनाम सचिव, विधि मंत्रालय, भारत शासन एवं अन्य, सिविल रिट 595/2023 में राजभवन सचिवालय को आरक्षण संशोधन विधेयकों को अनावश्यक लंबित रखने पर नोटिस जारी किया है| छग. आदिवासी छात्र संगठन ने काफ़ी पहले राज्यपाल से निवेदन किया था कि वह आरक्षण संशोधन विधेयकों को राष्ट्रपति को अग्रेसित कर के सुप्रीम कोर्ट से अनुच्छेद 143 के तहत सलाह लेने को प्रेरित करने का प्रयास करें| दोनों आरक्षण संशोधन विधेयक प्रथम दृष्ट्या असंवैधानिक हैं यह कई विधिक जानकार बता चुके हैं| ऐसे में आदिवासी हित के लिए विधि-सम्मत आरक्षण प्रावधान बनाने के लिए सीधे सुप्रीम कोर्ट से दिशा-निर्देश प्राप्त कर लेना सर्व हित में होता| संविधान जानकार बी. के. मनीष ने दिसंबर में ही छग शासन को सार्वजनिक सुझाव दिया था कि अनुच्छेद 131 के अधीन राज्य बनाम केंद्र विवाद सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर राज्यपालों द्वारा विधेयकों पर अनुमति देने में अनावश्यक देरी की पुरानी समस्या का प्रभावी हल निकालने की कोशिश की जाए| लेकिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल क्षुद्र राजनीति के लिए राज्यपाल से नूरा कुश्ती करना भर चाहते हैं| विधानसभा चुनाव तक आरक्षण विवाद को सुलगाए रखने और आरक्षण-हितार्थी प्रवर्गों के बीच संघर्ष भड़काने से भूपेश बघेल का निजी मतलब तो सध जाएगा लेकिन आदिवासियों समेत पूरे छग राज्य को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी| हाई कोर्ट की सिंगल बेंच के समक्ष सिविल रिट दायर करने से कोई तात्कालिक लाभ नहीं, सिर्फ़ लंबी, बेमतलब लड़ाई की शुरुआत हुई है, क्योंकि इससे हाई कोर्ट डिविजन बेंच और सुप्रीम कोर्ट में अपील का रास्ता खुलता है| सिंगल बेंच के समक्ष भी इस मामले का निपटारा होने में इतनी मुश्किलें हैं कि कई साल का समय लगना तय है| मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कई बार कहा है कि पारित विधेयक विधानसभा की संपत्ति है और कार्यपालिका (विभागों) से उसका कोई संबंध नहीं जबकि अनुच्छेद 166 के अधीन जारी कार्यपालिक नियम (अनुदेश 44क, अधीन नियम 13) इसका खंडन करते हैं| विधेयक पारित होने के बाद प्रशासनिक विभाग और विधि विभाग के सचिवों द्वारा विधेयक की जांच और उस पर टिप्पणी राज्यपाल को भेजने का प्रावधान है| चूंकि यह नियम अनुच्छेद 200 से सीधे तौर पर नहीं टकराते इसलिए राज्य शासन के लिए इनकी अवहेलना करना अवैधानिक है| एक अफ़वाह फ़ैली थी कि बी.के. मनीष की इसी व्याख्या का सहारा लेकर भारतीय गणतंत्र में पहली बार विधानमंडल के बजाए शासन को विधेयक पर पुनर्विचार करने के लिए लौटाया गया है (रमेश बैस, झारखंड कार्यपालिक नियम क्र.51)| क्या कोई राज्य सरकार किसी व्यक्ति की तरह रिट याचिका दायर कर सकती है, यह सवाल कुछ धुंधला हुआ है लेकिन उठेगा जरूर| रिट का सिद्धांत है कि हाई कोर्ट तथ्य के प्रश्न की जांच कर तो सकता है लेकिन ऐसे प्रकरण टालने चाहिए| क्वांटीफ़िएबल डाटा आयोग की रिपोर्ट विधानसभा के पटल पर नहीं रखी गई थी और बाद में राज्य शासन ने इसे सार्वजनिक करने तक से इनकार किया है| यह इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि इंद्रा साहनी फ़ैसले में कहा गया था कि आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं बनाया जा सकता जब तक कि राज्य प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता को लेकर संतुष्ट न हो जाए| प्रबोध वर्मा बनाम उत्तर प्रदेश फ़ैसले में कहा गया है कि रिट का निपटारा सभी प्रभावित पक्षों को पक्षकार बना कर सुनने का अवसर दिए बगैर नहीं किया जा सकता| इस प्रकरण में चूंकि अ.जा., अ.ज.जा. अ.पि.व. और अनारक्षित वर्ग के हित टकरा रहे हैं इसलिए हाई कोर्ट को जूझना होगा कि पक्षकार किस किस को बनाया जाए!

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