कोरोना से जूझती महिलायें


(आलेख : संध्या शैली)

18 मई सुबह तक कोविड-19 या कोरोना से दुनिया भर में हुयी मोैतों के आंकडों के हिसाब से 3 लाख 15 हजार से ज्यादा लोग इस बीमारी के शिकार हो चुके थे। 47 लाख से ज्यादा संक्रमित थे और 17 लाख ठीक हो चुके थे। हर दिन 5000 से ज्यादा लोग इससे संक्रमित हो रहे हैं। देश में अब तक 96169 लोग संक्रमित हो चुके हैं, जिनमें से 36824 ठीक होकर घर वापस पहुंच गये हैं और 3029 की मौत हो गयी है।

मौत के इन आंकड़ों की डरावनी सच्चाई यह है कि हमारे यहां पर जांच कम हो रही है। मध्य प्रदेश में मृत्यु दर भी देश की तुलना में कहीं ज्यादा है। देश में यह 3.24 प्रतिशत है और मध्य प्रदेश में 5.9 प्रतिशत। 13 मई तक मध्य प्रदेश में 4426 संक्रमित थे, जिनमें से 237 की मौत हो चुकी थी। इनका 40 फीसद हिस्सा इंदौर का था। एक और गंभीर खबर यह है कि उज्जैन में होेने वाली मौतों का प्रतिशत बेहद अधिक 16.42 है। ये आंकड़ें बताते हैं कि जांच नहीं की जा रही है।

भोपाल की एक नर्स से यह पता चला था कि इंदिरागांधी अस्पताल में मेडिकल स्टाफ की जांच की रिपोर्ट आने में भी 15 से 20 दिनों का समय लग रहा है। यह एक गंभीर सवाल है, क्योंकि केरल – जिसने इस बीमारी पर काफी हद तक अंकुश लगाया, वहां पर जांच सघन हुयी और जांच की रिपोर्ट 48 घंटे में आ जाएं, इस तरह की व्यवस्था की गयी।

एक फ्रंटलाइन कोरोना वाॅरियर एक डाॅक्टर ने मुझे एक संदेश भेजा है। मैं उससे अपनी बात शुरू करती हूं। कोरोना वायरस या कोविड-19 के वजन का पता चल गया है। इसका वजन है 0.85 आटौग्राम। 1 आटोग्राम 10 घात ऋण 18 ग्राम होता है। एक व्यक्ति जिन 70 अरब वायरसों से संक्रमित होता है, उनका कुल वजन 0.0000005 ग्राम होता है। यानि दुनिया भर में यदि 47 लाख लोग संक्रमित हैं, तो इसका अर्थ यह हुआ कि कुल मिला कर केवल 2.36 ग्राम वायरसों ने पूरी दुनिया के होमोसेपियन्स को घुटनों पर ला दिया है।

मैने यहां इन्सान नहीं, होमोसेपियन्स शब्द का प्रयोग किया है। होमोसेपियन्स इस धरती की वह मनुष्य प्रजाति है, जो धरती के बनने के दौर में मनुष्य की सैकड़ों प्रजातियों में से बच कर पनपी। यह प्रकृति है और होमोसेपियन्स इस प्रकृति का ही हिस्सा हैं। यह इस महामारी और इसके पहले भी फैली महामारियों ने बार बार दिखाया है कि इस प्रकृति से खेलना मनुष्य को हमेशा से भारी पड़ा है।

खैर यह एक अलग विषय है, जिस पर चर्चा करना और पर्यावरण को अंधाधुंध प्रकार से नष्ट करने के अपने डरावने और कुछ हद तक घिनौने अमानवीय तरीकों पर दुनिया को न केवल सोचना पडेगा, बल्कि उन्हे रोकना ही पड़ेगा। लेकिन दिक्कत यह है कि अपने मुनाफे के लिये प्रकृति से खिलवाड करने वालों के बजाये इस वैश्विक बीमारी का सबसे बड़ा खामियाजा हमारे देश का गरीब और असहाय मजदूर उठा रहा है।

अभी यह देखते हैं कि इस बीमारी से कौन, कैसे जूझ रहा है और रास्ता कोैन दिखा रहा है?

दुनिया भर की तस्वीरें और हमारे देश के अनुभव हमें यह साफ बता रहे हैं कि इस महामारी के साथ-साथ इस दौर में सरकारी संवेदनहीनता, गैरजवाबदारी और हद दर्जे की गैरजनतांत्रिक सोच का सबसे अधिक खामियाजा महिलायें और बच्चे भुगत रहे हैं।

जिस देश में गणेशी जैसी श्रमिक महिलायें पूरी गर्भावस्था में अपने घर के लिये पैदल हजारों किमी की दूरी तय करने और सड़क पर प्रसूति खुद ही करके एक घंटे बाद फिर से चलने के लिये मजबूर है, उस देश के प्रधानमंत्री किस मुंह से देश को तीन ट्रिलियन की इकाॅनाॅमी वाला मजबूत देश बताते हैं ?

संवेदनहीनता की हद हो गयी, जब अपने भाषण में 20 लाख करोड़ का पैकेज देने वाले प्रधानमंत्री ने अपने पूरे भाषण में भारत को पैदल नापने चले इन मजदूरों, महिलाओं और बच्चों तक के लिये एक शब्द भी नहीं बोला। ऊपर से उन्हे संघर्षों से मिले अधिकार छीनने के लिये भी इस मौके का फायदा उठाने से ये सरकार नहीं चूकी। इस 20 लाख करोड के पैकेज में यदि यह निर्णय होता कि देश में सारी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतरीन किया जायेगा, स्वास्थ्य कर्मियों की और पैरामेडिकल कर्मियों की वेजेज में बढोत्तरी की जायेगी, उन्हे आवश्यक आर्थिक सुरक्षा दी जायेगी, अपने घरों को पैदल या किसी भी संभव वाहन से वापस जाने वाले बदहवास मजदूरों के रोजगार की सुरक्षा के लिये कदम उठाये जायेंगे, तब तो इस पैकेज का कोई मतलब होता।

लेकिन जैसे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री श्री अनिंद्य चक्रवर्ती ने इस घोषणा वाले दिन ही कह दिया कि संख्या पर मत जाइये, यह तो पुराने पैकेज को मिलाकर बताया जा रहा है। ऐसे प्रधानमंत्री और ऐसी सरकार को तो अपने पद पर एक मिनिट रहने का हक नहीं होना चाहिये। खैर आने वाले दिनों में जनता उन्हे देखने वाली है।

लेकिन इस पूरे घटनाक्रम की एक सिल्वर लाइनिंग हैं, जिसकी नायिकायें भी महिला प्रशासक ही हैं। जिन्होने राह दिखाई है इस महामारी से जूझते-हांफते देशों को इस त्रासदी से बाहर आने की।

मध्य प्रदेश की हमारी तमाम जनवादी महिला समिति की कार्यकर्ताओं तथा सभी महिलाओं की तरफ से केरल की स्वास्थ्य मंत्री हमारी प्रिय शैलजा टीचर और उनकी पूरी टीम को सलाम, जिन्होने केरल में इस बीमारी को रोकने में एक बेहद उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। इसके लिये काॅमरेड शैलजा को इस देश के हुक्मरान कोई पद्म पुरस्कार नहीं देंगे, लेकिन पूरे केरल की जनता सहित देश की महिलाओं का प्यार और सम्मान इन तमाम पुरस्कारों से कहीं बड़ा है। केरल की स्वास्थ्य मंत्री शैलजा टीचर, जो विज्ञान की शिक्षिका थीं, उन्होने इसके पहले भी केरल में निपाह वायरस के हमले से केरल को बचाया था।

जब देश में केंद्र सरकार द्वारा अमरीकी राष्ट़पति के लिये पलक पांवडे बिछाये जा रहे थे और मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार को गिराने की साजिशों में और विधायकों की खरीद-फरोख्त करने में भाजपा जुटी थी, तब केरल की सरकार ने अपनी स्वास्थ्य मंत्री की अगुआई में इस विकट महामारी से लड़ने के लिये वालंटियरों, स्वास्थ्य कर्मियों, सफाई कर्मियों की पूरी फौज तैयार कर ली थी।

देश में सबसे पहले कोरोना के मरीज वाले प्रदेश केरल में आज कोरोना संक्रमण की दर सबसे कम है। और इसका कारण है इस प्रदेश की बेहतरीन स्वास्थ्य व्यवस्था, सबसे अधिक टेस्टिंग और फिजिकल डिस्टेंसिंग का पालन करने में सरकार का जनता से सहयोग। इसीलिये पूरे देश में भयानक त्रासदी की गवाही देते सड़कों पर एक कोने से दूसरे कोने तक निकले प्रवासी मजदूरों में एक भी मजदूर केरल से आया हुआ नहीं दिखता। कारण केरल में काम के सिलसिले में आये दूसरे प्रदेशों के मजदूर प्रवासी नहीं, अतिथि मजदूर हैें और सरकार उनका पूरा ख्याल रख रही है। यहां पर हर वार्ड में हर ग्राम पंचायत में चल रहे कम्युनिटी किचन से नाश्ते से लेकर दोपहर और रात का भोजन दिया जा रहा है।

बंद पडे स्कूलों, शादी घरों, हाॅस्टलों में बन गये 19764 कैंपों में करीब साढ़े तीन लाख मजदूर रह रहे हैं, जो अब स्वेच्छा से वहां पर काम करके कहीं उन स्कूलों के बगीचे बना रहे हैं, तो कहीं वहां की टूट-फूट को ठीक कर रहे हैं। यह होता है आपसी सहयोग और यह होता है रास्ता!

अंतर्राष्टीय स्तर पर भी वे सात देश अलग से चमक रहे हैं, जहां पर तुलनात्मक रूप से कोरोना पर जल्द काबू पाया गया हेै और जिन देशों की प्रमुख महिलायें ही हैं। जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल, जो खुद भौतिक विज्ञानी रही हैं, ने कोरोना से देश को लड़ने के लिये तैयार किया और शुरू में ही इस खतरे की गंभीरता और इन्सान की सीमा को जनता के सामने रख दिया। सबसे अधिक कोविड-19 की जांचें भी यूरोप में इसी जर्मनी में हुयी। इसी कारण संक्रमण अधिक होने के वावजूद मृत्यु दर इस देश में 1.6 प्रतिशत ही है। जर्मनी में भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं ने यह काम कर दिखाया, जो उसे पूर्व समाजवादी ढांचे से मिली थी।

एक और देश है चीन से जुडा हुआ – ताइवान, जो चीन का ही अलग भाग है। इस देश की राष्ट्रपति साय इंग वेन ने शुरू से ही 124 तरीके अपना कर इस महामारी को काबू मे किया और एक ओर पड़ोसी चीन में जहां इसके 80 हजार से अधिक मरीज हैं, वहीं ताइवान में केवल 400 के आसपास हैें और केवल 6 लोगों की मौत हुयी है। यह छोटा सा देश अमरीका को करीब एक करोड़ मास्क का निर्यात कर रहा है।

न्यूजीलेंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डेन का एक छोटा बच्चा है और जब वे अपने घर से बैठक लेती हैं, तब उनके टेबल पर बिखरे खिलौने एक बेहद मानवीय प्रशासक की छवि को सामने लाते हैं। इस 39 वर्षीय प्रधानमंत्री ने बहुत तेजी से कदम उठाते हुये सबसे कड़े लाॅक डाउन की घोषणा की और इस महामारी पर काबू पाया और इस वायरस के कर्व को फ्लेट किया। लेकिन जनता को भुखमरी की कगार पर नहीं पहुंचाया।

एक और महिला प्रधानमंत्री आइसलेंड की लेफ्ट ग्रीन या पर्यावरणवादी पार्टी की कैटरीन जेकब्सडाॅटिर हैं, जिन्होंने लाॅकडाउन नहीं किया, लेकिन फिजिकल डिस्टेंसिंग अपना कर और अधिक से अधिक जांचें करके इस महामारी से मुकाबला किया।

फिनलैंड की राष्टपति सना मारीन दुनिया की सबसे युवा राष्ट्र प्रमुख हैं और 34 साल की हैं। उन्होने लाॅक डाउन किया, लेकिन डे केयर सेंटर चालू रखे। इसके साथ ही बच्चों पर इस भयावह स्थिति का बुरा असर न हो, इसके लिये उन्होने शिक्षा मंत्री के साथ मिल कर बच्चों के साथ एक लाइव मीटिंग की। बच्चों के साथ किसी देश के राष्टपति की ऐसी यह पहली बैठक रही होगी।

इन सभी प्रशासकों के द्वारा उठाये गये हर कदम में जनता और विषेष रूप से महिलायें और बच्चे केंद्र में रहे। कुल मिला कर महिला प्रशासकों ने इस महामारी का बेहतर तरीके से सामना किया है और रास्ता भी दिखाया। ऐसा रास्ता, जो निश्चित ही पूंजीवादी रास्ता नहीं है। यदि पूंजीवादी रास्ता सही होता, तो पूंजीवाद के “स्वर्ग” और सबसे घमंडी देश अमरीका में आज कोरोना के सबसे अधिक मरीज और शिकार नहीं होते।

इन महिलाओं ने आज दुनिया भर की उन महिलाओं में आत्मविश्वास भरा है, जो हमेशा से इस पितृसत्तात्मक समाज में हाशिये पर रही हैं। इन महिलाओं ने दिखाया हेै कि महिलाओं के हाथ में दुनियां बेहद सुरक्षित रह सकती है, यदि उन्हे इसका मौका मिले।

खुद हमारे देश में ऐसी कई ग्राम पंचायतें मिल जायेंगी, जहां की महिला प्रधान ने खुद सेनेटाइजेशन से लेकर सफाई और स्वास्थ्य कर्मियों के साथ मिलकर पूरे गांव को इस महामारी से बचाये रखा है। मानवीयता को बचाने और दुनिया को संजोने का एक सहज ममत्व और काबिलियत उनके अंदर है।आदिलाबाद जिले की आदिवासी युवा सरपंच पी रमाबाई, नालगोंडा जिले के मदनपुरम गांव की युवा प्रधान अखिला आदि ऐसी ही कुछ महिलायें हैं।

इन महिलाओं के साथ-साथ पूरी दुनिया में कोरोना वाॅरियर्स का 90 फीसद हिस्सा महिलायें हैं। ये महिलायें – डाॅक्टर हैं, नर्स हैं, सफाई कर्मी हैं, आशा-आंगनबाडी कर्मी हैं। ये सब दोहरा काम करने के साथ-साथ कई बार घरेलू हिंसा की भी शिकार हो रही हैं। क्या इनके लिये कोई हेल्प लाइन नंबर सरकार ने बनाया है?

हर बार की तरह से इस त्रासदी की भी सबसे अधिक मार महिलाओं पर पड़ रही हैं। घर में बीमारों, बुजुर्गों की देखभाल और घर के रोजमर्रा के काम के साथ-साथ राशन की दुकानों के चक्कर लगाना जैसे काम उनके लिये असहनीय होते जा रहे हैं, लेकिन सरकारों को और मीडिया को इसकी चिंता नहीं हैं।

सीएए, एनआरसी करके नागरिकों के आंकडे इकट्ठे करने पर तुली सरकार यह जानकारी एकत्र नहीं कर सकती कि किस वार्ड में कितने गरीब हैं और कितनों के पास राशन कार्ड नहीं है। उनके घरों पर ही राशन जिसमें दाल, तेल, शक्कर, आलू, प्याज और चाय पत्ती भी हो, पहुंचा दिया जाये।

घरेलू हिंसा की घटनायें अब अनसुनी होती जा रही हैं। यौन हिंसा की शिकार लड़कियां और महिलायें सबसे अधिक घरों के अंदर और परिवारों में होती हैं, यह एक सचाई है। निश्चित ही, लगातार घरों में रहते हुये लडकियां और अधिक वल्नरेबल हो गयी हैं। लेकिन सबसे अधिक तकलीफ होती है उन महिलाओं को देखकर, जो घर की तलाश में सैकड़ों किमी. की दूरी अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ पैदल नाप रही हैं और सरकारी मीडिया बोल रहा है कि घर मे रहिये, सुरक्षित रहिये!

दूसरे देशों में रह गये अमीरों को वापस लाने के लिये हवाई जहाजों का इस्तेमाल करने वाली यह सरकार इस देश को बनाने वाले मजदूरों के लिये, महिलाओं के लिये ओैर इस देश के भविष्य उन छोटे-छोटे बच्चों के लिये कोई इंतजाम नहीं कर सकती। यह सरकार नहीं, इवेंट मैनेजमेंट कंपनी है।

दरअसल इस फासिस्ट सरकार की सोच में महिलायें हैं ही नहीं। इसीलिये तो सरकार केवल इन गरीब मजदूर और कर्मचारी महिलाओं के प्रति ही असंवेदनशील नहीं है, बल्कि इस लाॅकडाउन का सहारा लेकर वह जनतांत्रिक आंदोलनों की अगुआई करने वाली महिलाओं को इस कठिन दौर में भी जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा रही है। सफूरा जरगर एक उदाहरण है। वरिष्ठ अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज और प्रोफेसर शोमा सेन का स्वास्थ्य ठीक न होने के बावजूद उन्हे जेल से रिहा नहीं किया जा रहा है।

हां, एक बात और। इन कोरोना वाॅरियर्स की तरह ओैर भी महिलायें हैं कोरोना वाॅरियर्स, जो किसी सरकारी तंत्र का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता हैं और जो अपनी चिंता किये बिना राहत काम कर रहे हैं। पहले उन्होने केंद्रों से काम किया और अब जब देखा कि भोपाल की सड़कों पर पूरे देश के मजदूर चले आ रहे हैं, तो लग गये उन्हे जरूरत की वस्तुयें मुहैया कराने में। इन कार्यकर्ताओं में भी युवा महिलायें बड़ी संख्या में हैं। जनवादी महिला समिति तो मध्य प्रदेश में अपनी ताकत भर भोपाल, ग्वालियर, जबलपुर, मुरैना, सीहोर में किचन चलाने, राशन, मास्क, बच्चों को दूध, सेनेटाइजर का वितरण करने का काम कर ही रही है। लेकिन भोपाल में एका, बीजीवीएस, संगिनी, आवाज, युवारम्भ, जनसम्पर्क समूह, मजदूर सहयोग केंद्र जैसे संगठन – जिनका नेतृत्व महिलाओं के हाथ में है, बेहतरीन तरीके से काम कर रहे हैं। इसके अलावा भी कई संगठन हैं, जो अपनी सीमित क्षमताओं के बावजूद कोरोना के खिलाफ इस लड़ाई में भारत के बंदों के साथ खडे हैं सरकार को एक्सपोज करते हुये। लेकिन लडाई लंबी चलेगी।

भारत जैसे देश में, जिसका जनतांत्रिक और मजदूर आंदोलनों के साथ-साथ महिला आंदोलनों का एक बड़ा और बेहतरीन इतिहास रहा है और जिसे गांधी जी, बाबा साहेब अंबेडकर, भगतसिंह जैसे नेताओं ने संवारा है, वहां की ये महिलायें और मजदूर चले जा रहे हैं एक अंधेरे रास्ते पर, जहां पर कई बार मौत उनको आकर दबोच ले रही है। ये याद रखेंगे अपने अपमान को।

लेकिन इसके लिये पहली शर्त होगी कि सामान्य परिस्थिति आने पर वे वापस हिन्दू-मुसलमान करने वाले और उनके मुद्दो को गायब कर देने वाले मीडिया के चंगुल से बच कर रहें।

संध्या शैली

(लेखिका अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की केंद्रीय कार्यकारिणी की सदस्या हैं।)

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