जी हाँ, गांधी ने सचमुच आत्महत्या ही की थी।

वास्तव में महात्मा गांधी ने जिस विषाक्त वातावरण में जो निर्भीक रवैया अपनाया हुआ था, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि जाने-अनजाने उन्होंने आज के अर्थों में ‘आत्महत्या’ ही की थी।

गांधी ने जालिम के हृदय-परिवर्तन और प्रबोधन का सत्याग्रही प्रयास किया। धनपशुओं में भी ट्रस्टीशिप की भावना भरने की कोशिश की। सर्वधर्म-सद्भाव और सर्वधर्म-समन्वय का प्रयास किया।

छुआछूत-उन्मूलन और मानव-मानव के बीच के हर भेद को मिटाने का प्रयास किया। सत्य, प्रेम और करुणा के आधार पर वैचारिक मुक्तता की संभावना को जिंदा रखा।

लेकिन हुआ क्या? कथित वामपंथियों ने गांधी को ‘बुर्जुआ का दलाल’ कहा। दलित चिंतकों ने गांधी को ‘वर्ण-व्यवस्था का पोषक’ कहा। कथित ब्राह्मणों और सवर्णों ने उन्हें ‘वर्ण-व्यवस्था और सनातन-धर्म के लिए खतरा’ माना।

कट्टर हिंदुवादियों ने उन्हें ‘मुसलमानों का तुष्टिकरण करने वाला’ और पाकिस्तानपरस्त कहा। धर्मांध मुसलमानों ने उन्हें ‘केवल हिंदुओं का हित साधनेवाला नेता’ करार दिया।

यहाँ तक कि वे अपने ही संगठन ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ में भी अलग-थलग पड़ गए। यानी वे हर तरफ से गए।

यह आत्महत्या नहीं थी तो फिर क्या था?

गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर शुजात बुखारी तक ने आत्महत्या ही तो की थी।

आज भी हम जैसे कई गृहस्थों ने जीते-जी आत्महत्या कर रखी है। क्योंकि हम व्यवस्था की गुलामी उस रूप में न कर सके, जिस रूप में वह चाहती थी।

संस्था-संगठनों और यार-दोस्तों को तो जाने दें, घर-परिवार और कुल परिजन तक कन्नी काटे रहते हैं (हालांकि वे मन-ही-मन चाहते भी बहुत हैं)।

अगर कुछ सचमुच के सदाचारी और शुभाकांक्षी मित्र-साथी, अजनबी और करुणावान लोग न हों, तो हमारा रोजी-रोजगार और हमारी घर-गृहस्थी तक चलनी मुश्किल हो जाए।

हम जैसों की पत्नियाँ और बच्चे यदि प्रचलित रूप में घनघोर भौतिकतावादी होते, तो वे यही कहते न कि पतिजी! पिताजी! आपका यह निर्णय सूइसाइडल था, आत्महत्या थी।

इसलिए यह सवाल जिसने भी पूछा, उसका मजाक न उड़ाएँ। उसने जिस मंशा या दुर्मंशा से ऐसा पूछा हो, लेकिन उसने जाने-अनजाने वह बात कह दी है, जो हम चाहकर भी नहीं कह पाते हैं।

गांधी जैसे लोग प्रकारांतर से ‘आत्महत्या’ ही करते हैं भाई।

अव्यक्त

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