मीडिया फीनिक्स पक्षी नहीं है

जुगनू कहो या दीपक फिलहाल रवीश कुमार जैसे कई तो हैं

भारतीय मीडिया का नैतिक जीवन अधमरा से ज्यादा हो गया है। उसकी पीठ पर कारपोरेटियों की शमशीर घुसी है। मीडिया लहुलुहान है। नैतिकता की पुरानी देह क्षतविक्षत है। उसे खरीदकर बदनामी के जंगलों में छोड़ दिया गया है। घना अंधेरा होने पर केवल कुछ जुगनू उसकी देह में दमकते हैं। उनकी जलती बुझती रोशनी में ही मुल्क रास्ता ढूंढ़ रहा है। मीडिया पहले पत्रकारिता के नाम से लोकप्रिय था और अंगरेजी में प्रेस। पत्रकारिता ने अंगरेजों के जुल्म सहे। संपादक, संवाददाता, प्रकाशक, हाॅकर भी जेल गए। अखबार बंद हुए। संपत्तियां बिकीं। चरित्र के चक्रवृद्धि ब्याज से पत्रकारिता उजली और साहसी होती रही। बीसवीं सदी केे अंत तक देश के माथे पर चिंता और घबराहट की लकीरें नहीं थीं।

दुुनिया बाजार बना दी गई है। राजनीतिज्ञ, नौकरशाह, बुद्धिजीवी, युवा, मध्यवर्ग सब बिक रह़े हैं। बाजार से कारपोरेटी खरीदार गुजरता देश की अर्थव्यवस्था को चूसकर सियासत का भी खरीदार है। मूंछों पर ताव देता अट्टहास करता नैतिक मूल्यों का बलात्कार कर रहा है। गरीबों की जेब तक की डकैती कर रहा है। उसके खिलाफ जनता को विरोध क्या फरियाद करने की इजाजत नहीं है। सुरक्षाबल अम्बानियों, अदानियों, टाटाओं, रुइयाओं, वेदांताओं, माल्याओं की दौलत के हिफाजतदार हैं। लोकतंत्र में मंत्री, अफसर, बैंक, पोलिस, जांच एजेंसियां आत्महीनता में हुक्म की तामील कर रहे हैं।

झूठ, अफवाह, किवदंती, चरित्रहनन, खुशामदखोरी, ब्लैकआउट, पेड न्यूज, गिरोहबंदी, धड़ेबाजी वगैरह कारपोरेटी मीडिया-शास्त्र के कुछ हथियार हैं। हाॅलीवुड और बाॅलीवुड के ठनगन वाला मीडिया वैभव की दुनिया के चंडूखाने में पेशकारी करने को मीडियालतीफी मानता है। मीडियाकर्मी के हाथ में कलम नहीं है। मालिक की स्याही उसके चरित्र पर मल दी गई है। कम्प्यूटर और इंटरनेट के गूगल के उगते जाते विचार प्रकाशन में लीप देता है। कहीं जाता नहीं है। बैठे बैठे पूरी दुनिया अपनी मुट्ठी में करता रहता है। खबरनवीस नहीं रहा। कैमरानवीस है। पहले कुरते पाजामे में लदा फंदा कंधे पर थैला लटकाए होता था। उसमें स्टेशनरी, डायरी और कुछ खाने पीने का सामान हो सकता था। अब आलीशान एयरकंडीशन्ड न्यूजवैन में चलता है। साथ में कैमरामैन, लाइट साउंड के सहायक और कुछ निहित स्वार्थी भी होते हैं। शराब, कबाब, माल असबाब, रूआब, आदाब जैसे शब्द उसका जीवन समीकरण लिखते हैं।

महाभारत का संजय बना मीडिया कौरव दरबार की गोदी में बैठा अपना मतलब जानता है। देश की जिंदगी दम तोड़ रही हो। किसान आत्महत्या कर रहे हों। बहुएं जलाई जा रही हों। कैंसर मरीज मर रहे हों। मजदूर लतियाये जा रहे हों। वह पांच सितारा होटलों से नयनाभिराम दृश्य परोसता है। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया जनता को मृगतृष्णा में डुबोता है। सेठिया हुक्मनामे केे आधार पर चरित्रवान लोगों के खिलाफ कसैले शब्दों का तड़का लगाकर खबर चटपटी और स्वादिष्ट बनाता है। जनता के पेट में पहुंचकर मिलावट और जहरखुरानी की खबर अस्तित्व का स्वास्थ्य बरबाद करती है। मीडिया पूरा काम अभियुक्त चरित्र में करता है। फिर भी चेहरों पर शिकन नहीं पड़ती। जींस, टी शर्ट, बढ़ी हुई दाढ़ी, हवाई यात्रा, महंगे जूते, चुनिंदा शराब, सितारा होटल वगैरह यक्ष यक्षिणी बनाते हैं। पहले तो इतिहास में विष कन्याएं और विष पुत्र पीढ़ी दर पीढ़ी नहीं होते थे। षायद कुछ ठीक हो।

मीडिया झूठ लिखता है देश में तरक्की हो रही है। किताबी, अकादेमिक, फलसफाई, झूठी, हवाई, अनसुलझी, संशयग्रस्त, विवादास्पद नस्ल की तरक्कियां हो रही हैं। वक्त के कड़ाह में जनता ही उबल रही है। उसके उबलने पर उसकी मेहनत की मलाई काॅरपोरेटिये गड़प कर लेते हैं। मीडिया के मुताबिक वही देश की तरक्की है। खुरचन के ग्राहक नेता, मीडिया और नौकरशाह होते हैं। छाछ बोतलों में बंद कर महंगी दरों पर जनता को बेचा जाता है। धर्मप्राण जनता को पस्तहिम्मत बनाने मलाई का कुछ हिस्सा बाबाओं, संतों, मुल्लाओं, पादरियों, शंकराचार्यों, मौलवियों, साध्वियों और हिंदू मुस्लिम कुनबापरस्ती के दलालों को बांटकर धर्म का घी बनाने दिया जाता है।

पत्रकारिता में देश और चरित्र का अर्थ ‘सन्मार्ग‘, ‘विश्वमित्र‘, ‘जयहिंद‘, ‘युगधर्म‘ था। ‘टाइम्स आॅफ इंडिया‘, ‘हिंदुस्तान टाइम्स, ‘इंडियन एक्सप्रेस‘, ‘नवभारत‘, ‘जयभारत‘, ‘मदरलैंड‘, ‘मातृभूमि‘, ‘प्रतिपक्ष‘, ‘जनसत्ता‘, ‘हिंदू‘ और कई नाम इतिहास के चुनौतीपूर्ण समय से जुड़ते रहे। उनकी खबरें देश के ताप का थर्मामीटर रहीं। अखबार मध्यवर्ग का दैनिक विश्वविद्यालय थे। वह शीराजा सरकार-कारपोरेटी गठजोड़़ ने क्रूरतापूर्वक बर्बाद कर दिया है। जनता में चरित्र बाकी हो तो गोदी मीडिया की धार भोथरी हो जाती है। मजबूत लोकतंत्र के लिए जनप्रतिरोध रीढ़ की हड्डी है। भारत में उसी पर मीडिया हथौड़े चला रहा है। जनता के मुंह में कपड़ा ठूंस दिए जाने पर भी वह चुप है, पस्तहिम्मत है।

इतिहास का सबसे बेहूदा समय है। कौम के सामने मीडिया पस्तहिम्मती का आईना रख रहा है। किंवदंती कहती है फीनिक्स पक्षी की देह को जला देने पर भी वह अपनी राख से जी उठता था। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह आश्रम का नाम ‘फीनिक्स आश्रम‘ रखा था। गांधी नहीं हैं लेकिन सत्याग्रह की जरूरत तो आज है। फीनिक्स पक्षी तो है नहीं। अब केवल जुगनू की तरह हजारों कस्बाई पत्रकार हैं। उन्हें फीनिक्स पक्षी से कमतर नहीं माना जा सकता। हर बड़े नेता ने पत्रकारिता के हथियार में भरोसा किया था। लोकतंत्र के सबसे मुश्किल क्षणों में पूंजीपति अखबार मालिक रामनाथ गोयनका ने आपातकाल का मुकाबला किया था। अघोषित आपातकाल आ गया है। आज के मीडिया मुगलों में रामनाथ गोयनका नहीं हैं। जुगनू कहो या दीपक फिलहाल रवीश कुमार जैसे कई तो हैं।

कनक तिवारी

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