ज़िरहनामा

लिंचिंग, रेप और अदालती इंसाफ

इंसानी रिश्तों को लेकर हिन्दुस्तान ज्वालामुखी के मुहाने पर ला दिया गया है। लिखा है संविधान में जाति, धर्म, यौन और प्रदेश वगैरह के आधार पर नागरिकों बल्कि भारत आए अतिथियों तक से गैरबराबरी नहीं की जाएगी। हो लेकिन उलटा रहा है। कभी कभार होने वाले अपराध अब भारतीयों की आदत में इंजेक्ट किए जा रहे हैं। यही देश है जहां ऐसे अन्याय का मुकाबला करने वाले लोक नायकों को ईश्वर का अवतार बना दिया गया। इसी मुल्क में दलित वर्ग के एक शिकारी डाकू ने कथा के अनुसार दो मिथुनरत पक्षियों को तीर से मार डाला। तो उनके अंदर करुणा की कविता फूट पड़ी। वे भारत के सबसे बड़े कवि हो गए। उन्होंने राम जैसे लोकतंत्र के अद्भुत नायक की ऐसी रचना की जो हर हिन्दू विश्वास बल्कि भारतीय मन का हिस्सा हो गया है।

स्त्री के अपमान को लेकर भारतीय यादखाने में दो अमर कथाएं युद्ध बनकर आज तक अन्याय का प्रतिकार करती हैं। एक रामायण दूसरी महाभारत। आज लेकिन दलित, सवर्ण, आदिवासी, गरीब, अल्पसंख्यक और अन्य वंचित वर्गों की महिलाओं की अस्मत और अस्मिता सरेआम लूटी जा रही है। देश के अमीरजादे उनकी देह को अपनी अय्याशी का चारागाह बनाते हैं। इस खलनायकी में नेता, अफसर, काॅरपोरेटी बाजार के कारिन्दे, गुंडे, चाटुकार, पत्रकार और काले धन के शोहदे शामिल हैं। निर्भया कांड ने अलबत्ता देश के विवेक को झकझोरा था। जनता की याद अस्थायी होती है। उसी प्रकार, नस्ल और घनत्व के बलात्कार कांड अपनी घृणा की महक से देश के घर घर को प्रदूषित कर रहे हैं। राजनीति नकली राष्ट्रवाद, हिन्दू मुस्लिम इत्तहाद की अनुपस्थिति, पश्चिम की अर्धनग्न संस्कृति और बाजारवाद से उपजी अमीर अय्याशी ने मनुष्य होने के अहसास तक पर हथियारों जैसी चोट की है। पढ़े लिखे लोग, मध्यवर्ग, बुद्धिजीवी, साधारण नागरिक इन घटनाओं से घबरा जाते हैं। कोई सड़क या चौपाल में आकर पीड़िता की मदद नहीं करता। उलटे मोबाइल कैमरे, करुणा का घिनौना व्यापार बेशर्मी से करने के नए बाजारवादी उत्पाद बनकर आ गए हैं।

उन्नाव की कलंकित घटना एक अबोध बच्ची की जिंदगी को बर्बाद करने के साथ उसके पूरे परिवार की कातिल है। भाजपा का विधायक कुलदीप सेंगर फिल्मों के खलनायक से भी ज्यादा डरावना और पैशाचिक चित्रित किया गया है। उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ का पुलिस राज नासूर की तरह सड़ गया है, यदि घटना से जुड़ी बातें और आरोप सच हों तो। रेप पीड़िता को अपराध दर्ज कराने के लिए हाई कोर्ट जाना पड़े। यह भारतीय पुलिस और प्रशासन के लिए डूब मरने की बात है। मूंछों पर ताव देने वाले पुलिस अधिकारी कैमरे के सामने आकर शर्मसार होने के बदले मुस्कराते रहे। सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री को 12 जुलाई का पीड़िता की मां का पत्र मिल गया होगा। 15, 20 दिनों तक वह लालफीताशाही में बंधा रहा। ‘जब बाड़ ही खेत को खाने लगे‘ तो खेत की रक्षा कौन करे।

भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने इंसाफ किया। उससे लोगों का भरोसा उस संस्था में फिर हो आया है। आगे जो हो। हुसैन आरा के मुकदमे में अगर जस्टिस पीएन भगवती ने एक चिट्ठी के आधार पर जनहित याचिका का नया आविष्कार 1979 में नहीं किया होता। तो बिहार की जेलों में सड़ रहे 40 हजार कैदी एक साथ कैसे छूटते। झारखंड में तबरेज, उत्तरप्रदेश में अखलाक और राजस्थान में पहलू खान को बहुजन समाज की कट्टर सांप्रदायिकता हिंसा के हथियार से सड़कों पर मार डाले। तुर्रा यह कि संसार की सबसे पुरानी बेहतर मानवीय सभ्यता के कथित वंशज शर्मसार भी नहीं हों। उन्हें यह कृत्य पाप की तरह नहीं लगे।

सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने पिछले कुछ वर्षों में अनुदार संकोच ओढ़ लिया है। कुछ वकीलों और मुअक्किलों ने जनहित यााचिकाओं का दुरूपयोग किया होगा। इसका यह मतलब नहीं है कि एक मछली सारे तालाब को गंदला कर दे। सरकार और अदालत की कभी कभार मिली जुली कुश्ती लोकतंत्र के चेहरे का बदनुमा दाग है। दोनों संस्थाओं की मर्यादाएं अलग अलग दिखती थीं। तेल और पानी की तरह। अब कभी कभी दूध और पानी की तरह मिलता दिख जाता है। न्यायाधीशों को सरकार की तरफ से टेलीफोन, संदेशवाहक जाते हैं। कई ऐसे काम हो जाते हैं जो केवल एक दूसरे से संबंध विकसित करके हो सकते हैं। यह लोकतंत्र के लिए चिन्ता की बात है। इंग्लैड के प्रधानमंत्री चर्चिल ने ठीक कहा था जजों को सन्यासियों की तरह होना चाहिए। सत्ताधीशों से परहेज करना चाहिए। उन्नाव प्रकरण में शुरू में ही कुलदीप सेंगर की गिरफ्तारी का आदेश देने के बाद यदि इलाहाबाद हाईकोर्ट को बताया जाता कि पुलिस और निचली अदालत कुछ नहीं कर रहे हैं तो इलाहाबाद हाईकोर्ट से भी फौरी राहत मिल सकती थी।

यह देश सांप्रदायिक धार्मिक जातीय और यौन विकारों का नहीं है। संविधान की आयतें निकम्मों का स्वतिवाचन नहीं हैं। उन्हें अमल में लाना सरकार और अदालतों की जिम्मेदारी है। लिंचिंग के कई प्रकरणों में राज्य सरकारें या तो अट्टहास करती हैं या उपहास की पात्र बनती हैं। मौजूदा समय हिंदुस्तान के संविधान को बचाने का है। उसे बर्बाद करने का तेवर सत्ता के कई इलाकों में कारपोरेट की मदद से पिटी हुई मीडिया के सहारे आम जनता में अफवाह की ग्रंथि पैदा करने का मौसम उगाता है। इससे देश को बचाना जरूरी है।

बेहद नाजुक वक्त है। देश के नौजवान नौकरी, रोजगार, शिक्षा, भाईचारा, अंतर्राष्ट्रीयता जैसे बड़े मसलों से खुद को अलग कर मजहबी दुपट्टा ओढ़े हाथ में लाठियां और हथियार लिए विस्फोटक लगते नेताओं और अरबपतियों के हाथों की कठपुतली बने जगह जगह भोंडा प्रदर्शन कर रहे हैं। वे भूलते हैं भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, मदनलाल धींगरा, ऊधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने देश की आजादी के लिए प्रतीत्मक हथियार उठाए। भारत के युवकों के लिए वक्त की दीवार पर शिलालेख लिख दिए। आज की नवयुक पीढ़ी बरगलाई जा रही है। यूरो अमेरिकी सांस्कृतिक गंदगी उसके जेहन में ठूंसी जा रही है। उसकी हरकतें उसका खुद का भविष्य बर्बाद कर रही हैं। वक्त है जब उन्हें अपने लिए एक नया हिन्दुस्तान गढ़ना चाहिए। साठोत्तरी सत्तोतरी पीढ़ी के लोग देश को नहीं ढो रहे हैं। देश उन्हें ढो रहा है।

कनक तिवारी

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