गांधी के लिए किसान

गांधी गांव की आत्मा थे। उन्हें शहरों से परहेज़ भी था। आज होते तो उन्होंने किसानों की हो रही अंधाधुंध आत्महत्याओं का गांधी ने कोई नायाब और असरदार विरोध किया होता। स्वावलंबी गांव की परिकल्पना वाले महात्मा को वैश्वीकरण कतई बर्दाश्त नहीं होता। वे सरकारों को समझाते कि विश्व को गांव बनाने की विश्वयारी के चक्कर में न पड़कर गांव को विश्व बनाने वाले वसुधैव कुटुम्बकम के रास्ते पर चलें। इस तरह के गांधी का आज जगह जगह इस्तेमाल होता। उनकी बेहद कुरूप मूर्तियां सारे देश में लगी हैं। वे अकेले हैं जो भारत में सभी दफ्तरों और न्यायाधीशों के सर के ऊपर तक टंगे हैं। उनके जन्मदिवस पर पूरी छुट्टी होती है। उनकी पुण्यतिथि पर उसकी पूरी छुट्टी कर दी गई। उनके रास्ते पर चलने का वे लोग भी आह्वान करते हैं जो दुनिया की सबसे महंगी शराबें पीते हैं। जो विवाहेतर संबंधों को खुला रखने में परहेज़ नहीं करते। जो बिना रसीद दिए नकद में फीस लेते हैं। जो मांसाहार के समर्थक हैं। जो एयरकंडीशनर के बिना न तो उठते बैठते हैं, न सोते हैं और न ही यात्रा करते हैं। जो उस बूढ़े आदमी की हिदायत के बाद भी छोटे सरकारी मकानों में रहना पसंद नहीं करते। जो अमेरिका और यूरोप में इलाज कराकर ही मरने को प्राथमिकता देते हैं। जो भारतीय विद्यार्थियों को अमेरिका भेजकर उनके पैरों में बेड़ियां डलवाते हैं। आस्ट्रेलिया भेजकर उनका कत्ल करवाते हैं। जो दक्षिण अफ्रीका को क्रिकेट खेलने के नाम से जानते हैं लेकिन जिन्हें सेंट मेरिट्ज़बर्ग स्टेशन का नाम तक नहीं मालूम है।

गांधी विदेशी हुकूमत से लड़े थे। आज़ाद भारत में वह कुल जमा पांच छह महीने जीवित रहे। अपने सपनों के कुचले जाने के बावजूद गांधी ने अपने उत्तराधिकारियों का कोई ठोस विरोध नहीं किया। संविधानसम्मत प्रजातंत्र में यदि सरकारों के भ्रष्टाचार और उनकी कर्तव्यहीनता को लेकर गांधी के नाम पर आंदोलन किए जाएं तो गांधी से बड़ा कोई अराजक व्यक्ति इतिहास में नहीं दिखाई देता। वे होते तो कहते कि सरकार के काले कानूनों को मत मानो। सरकार ने मानव अधिकार विरोधी जितने कानून बनाए हैं, उनको खुली चुनौती दो। वे कहते कि अवैध टैक्स देना बंद करो। वे शराब माफिया के खिलाफ अहिंसक आंदोलनों की झड़ी लगा देते। वे आमरण अनशन भी करते कि एक ओर संविधान में शराब बंदी लागू होने की घोषणा हो गई है तो सरकारें अतिरिक्त राजस्व की लालच में देश की पीढ़ियों के जिस्म में तेजाब क्यों भर रही हैं। वे किसी भी हालत में ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र‘ नहीं बनाने देते। वे विरोध करते कि धरती के नीचे जितनी भी खनिज संपदा है उसे एक बारगी खोदकर लुटेरों को नहीं दी जाए।

गांधी के जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि उन्होंने आदिवासियों के लिए ठोस कुछ नहीं किया। उन्होंने गरीबों को दरिद्रनारायण बनाया। अनुसूचित जाति के बंधुओं को ‘हरिजन‘ कहा। हरिजन यात्राएं निकालीं और ‘हरिजन‘ नाम का पत्र भी। गांधी ने पश्चाताप किया कि देश की सबसे बड़ी आबादी आदिवासी होने के बावजूद गरीबी की रेखा के काफी नीचे है। उन्होंने अपने रचनात्मक कार्यक्रम में अलबत्ता आदिवासी सेवा को जगह दी थी। उनके सबसे प्रिय शिष्य और अब तो संघ परिवार के भी आराध्य सरदार पटेल ने संविधान की उपसमिति का अध्यक्ष होने के बावजूद आदिवासी अधिकारों को अमली जामा नहीं पहनाया। गांधी नक्सल-प्रभावित इलाकों में अहिंसा का बिगुल बजाने के साथ साथ यह सुनिश्चित करते कि देश के खनिज और वनोत्पाद सरकारी बिचौलिएपन के कारण पूंजीपतियों के हत्थे नहीं चढ़ जाएं। गांधी अंगरेज़ी पद्धति की अदालतों और पद्धति के सख्त खिलाफ थे। वे तो वकीलों को यथास्थितिवादी व्यवस्था का दलाल समझते थे। प्रचलित धारणा के विपरीत उन्होंने साफ कहा था कि आज़ादी के आंदोलन में केवल उन वकीलों का योगदान रेखांकित करने योग्य है जिन्होंने वकालत छोड़कर आंदोलन में हिस्सेदारी की थी।

गांधी को आदिवासियों के लिए कुछ सार्थक कर पाने का आत्मसंतोष नहीं था। आज गांधी को झुठलाकर आदिवासियों की जमीनें निर्लज्ज कानूनों के आधार पर छीनी जा रही हैं। एक तरफ सरकारें, दूसरी तरफ उद्योगपति, तीसरी तरफ राजनेता और चौथी तरफ खड़े नक्सलवादियों की चौहद्दी में आदिवासी किसान, परम्पराएं, संस्कृति, ग्राम्य बालाओं का शील, युवकों का भविष्य सब कुछ खतरे में है। दक्षिण अफ्रीका के मूल निवासी भी तो आदिवासी नस्ल के रहे हैं। उनका ही तो उद्धार गांधी ने किया। आदिवासियों को हिंसा की शिक्षा देकर सभी तरह के कुटिल लोग उन कुदरती जीवन तत्वों से वंचित कर रहे हैं जिनके परिष्कार ने गांधी का आविष्कार किया था।

किसान गांधी की आत्मा थे। वे यदि आज होते तो किसानों की आत्महत्या जैसे अकल्पनीय सच को सत्याग्रह के हथियार से टटोलने की कोशिश करते। देसी उद्योगों के प्रति वितृष्णा का भाव नहीं रखने पर भी गांधी के लिए गरीब होना उनकी सम्मान सूची में कहीं ऊपर बैठना था। वे पहले भारतीय थे जिन्होंने अधिकारच्युत लोगों में आत्मविश्वास गूंथते हुए वक्त की नज़ाकत के अनुकूल चतुर रणनीति अख्तियार करने की शैली को भी इतिहास की प्राकृतिक दिशाओं के संदर्भ में बूझ लिया था। उनकी आंखों में आंसू सूख गए थे, लेकिन मरे नहीं थे। उनकी आंखों में आंसुओं के शोले ओलों की तरह दिखाई देते थे। वे आंखें मनुष्य के लिए वक्त के बियाबान के परे तक जाती थीं। लाक्षणिकता गांधी का विचार श्रृंगार नहीं थी। समस्याओं, विचारों, गलतफहमियों और अंतर्विरोधों की जड़ तक जाने में गांधी को जादुई दृष्टि हासिल थी। ऐसा नहीं है कि हर कोई उसी तरह परिश्रम करके गांधी बन सकता है। तवारीख में बड़ा आदमी होना केवल देह धरे का उत्कर्ष नहीं है। कहीं तो कुछ है जो किसी को इंसानियत की सरगनिसेनी बना देता है। सरगनिसेनी का लक्ष्य खुद कहीं पहुंचना नहीं है। वह पाथेय बताने का कुतुबनुमा है। कोई उस पर चढ़े तो!

गांधी ने भारतीय आज़ादी के सन्दर्भ में एक और प्रश्न हमारी जिज्ञासा के कार्यवृत्त पर रखा। यह बात विवादग्रस्त हो सकती है लेकिन गांधी ने राजनीतिक प्रक्रिया का गैरबौद्धिकीकरण किया। इस तरह उन्होंने कोरे बुद्धिजीवियों पर व्यंग्य किया जिनकी वजह से क्रान्ति की प्रक्रिया भोथरी होती है। लोकमान्य तिलक, महर्षि अरविन्द, विवेकानन्द बल्कि भारतीय नवजागरण के लगभग प्रत्येक अशेष हस्ताक्षर ने अपनी समकालीन दुनिया के सामने उगे पश्चिमी सवालों का जवाब देने के लिए भारतीय इतिहास की प्राचीनता से मदद ली। इनमें से लगभग प्रत्येक विचारक ने पश्चिमी सभ्यता के आक्रमण का मुकाबला करने के लिए महान भारतीय आदर्शों के हथियारखानों में पनाह ली। यह तरीका गलत नहीं था। हमारे प्रामाणिक, पुष्ट और प्रयोगधर्मी भारतीय विचार के मानक सिद्धान्त पश्चिम की हर चुनौती का मुकाबला करने को मानो इन विचारकों द्वारा तत्पर किये गए। इसके समानान्तर चालीस वर्ष के मोहनदास करमचन्द गांधी ने जो विचारक, नेता या अन्य किसी भी रूप में भारतीय जनमानस में प्रतिष्ठित या सक्रिय नहीं हुए थे, ‘हिन्द स्वराज‘ नामक निष्कलंक कृति लिखी। इस कृति में उन्होंने राम के नाम का उल्लेख तक नहीं किया, जिस रामराज्य की परिकल्पना के लिए वे अन्यथा जीवन भर जूझते रहे। तुलसीदास के नाम का उल्लेख भी उन्होंने चलते-चलते ही किया।

‘हिन्द स्वराज‘ का मूल सन्देश भारत के ठेठ देहात के किसान हैं, जिनके माध्यम से गांधी ने भारत की आज़ादी का झंडा उठाया था। ‘हिन्द स्वराज‘ की केन्द्रीय चिन्ता भारत के पुरातन इतिहास के ज्ञान की गवेषणा या पुनर्परिभाषा नहीं है। गांधी को चिन्ता है तो केवल हिन्दुस्तान के उन बुद्धिजीवियों की जो पश्चिम की भाषा, संस्कृति, राजनीतिक कौशल और आधुनिकता के समक्ष नतशिर हैं, कायल हैं बल्कि उसके बंधुआ मजदूर हैं। गांधी कहते हैं कि हिन्दुस्तान के करोड़ों लोग जहां यह अंग्रेजों की चाण्डाल सभ्यता नहीं पहुंची है, आज भी आज़ाद हैं। देश में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हुआ, बल्कि धरती के इतिहास पर किसी भी देश के जन आन्दोलन का ऐसा कोई नायक नहीं हुआ, जिसने उस देश की गुलामी का कारण वहां के बुद्धिजीवियों, नौकरशाहों और समाज के पूरे श्रेष्ठि वर्ग को बताया है। यदि सांस्कृतिक समास का सहारा लिया जाए तो कहा जा सकता है कि जिस देश के लोक जीवन में राम और कृष्ण की कथाएं, आल्हा-ऊदल के गल्प और कुरान शरीफ की आयतों की ऊष्मा हो उसे इस बात की परवाह ही नहीं थी कि अंग्रेजी राज्य उनके आंगन तक उतर आया है। गांधी भारतीय वातायन के अकेले बौद्धिक हैं, जिन्होंने पश्चिम की सभ्यता के मूल्यों को भारतीय मूल्यों के हथियारों के सहारे चुनौती दी तो उसके सबूत, उदाहरण और प्रदर्शन के लिए निहत्थे, निस्तेज परन्तु संस्कृति सम्पन्न भारतीय देहातों को चुना। 13/14 नवंबर,1936 क¨ जाॅन आर माॅट के साथ चर्चा में गांधी ने कहा था, ‘मैं गांवों का उद्योगीकरण नहीं करना चाहता। मैं तो प्राचीन पद्धति पर उनका नव-संस्कार करना चाहता हूं, अर्थात् गांवों में हाथ-कताई, हाथ-पिंजाई और अन्य महत्वपूर्ण दस्तकारियों का फिर से चलन करवाना चाहता हूं। ग्रामोद्धार-आन्दोलन कताई-आन्दोलन से ही फूटकर निकली एक शाखा है। सन् 1908 में इस विषय में मैं इतना अज्ञानी था कि उस समय लिखी हुई अपनी छोटी-सी पुस्तक ’हिन्द स्वराज्य’ में मुझे जहां चरखा लिखना चाहिए था वहां मैंने करघा लिख दिया था।‘

कभी कभी लगता है कि बुद्धिजीवी के रूप में गांधी जी की यश-यात्रा ऊध्व नहीं थी। वह किसी शास्त्रीय नाटक के विपरीत अपने प्रथम परिच्छेद पर ही चरमोत्कर्ष पर आ खड़ी है। ‘हिन्द स्वराज‘ के मुकाबले खुद गांधी के बाद के साहित्य में प्रौढ़ता होने पर भी वह जीवंतता, चुनौती और परेशान दिमागी नहीं है। ‘हिन्द स्वराज‘ की उस दृष्टि से यदि आज के भारतीय जीवन पर हम नज़र डालें तो अंग्रेजियत, अंग्रेजी भाषा, आधुनिकता और विश्व गांव के चक्कर में पड़कर लगता है पूरे भारत में यह बुद्धिजीवी वर्ग ही केवल गुलाम है। हिन्दुस्तान के असंख्य लोग अब भी सांस्कृतिक दृष्टि से लगातार अपनी अस्मिता को कायम रहकर आज़ाद हैं।

कनक तिवारी जी

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