कार , तलवार ,बन्दूक से लड़के खेलेंगे , लड़कियां खेलेंगी गुड़िया से

( समाज और ज़हन में घर किये हुए लिंगभेद को लेकर ” मेहजबीं “का विचार व खुद के अनुभव : यह विचार उन्होंने देशभर के बुद्धिजीवियों के वाट्सग्रुप ” मित्र मंडल में साझा किया है , जहां से उनकी अनुमति से साभार : सम्पादक )

फ़ोटो साभारः इनमराठी डॉट कॉम

लिंग भेदभाव ये इतना घर किए हुए है ज़हन में कि बहुत से लोग इसी से अपनी हर बात शुरु और ख़त्म करते हैं…. बेटा बुढ़ापे का सहारा है परिवार का वंश आगे बढ़ाता है, नाम रोशन करता है ,मरने के बाद मुक्ति दिलाता है इसलिए बेटा ज़रूर होना चाहिए बग़ैर बेटे के परिवार मुकम्मल नहीं….ये लिंग भेद यहीं तक सीमित नहीं।

सिर्फ़ बेटा और बेटी में फ़र्क़ नहीं है इस लिंग भेद के कारण बल्कि मर्द-औरत के बीच बहुत बड़ी ग़ैरबराबरी की दीवार है खाई है। बेटों को ज़्यादा पसंद करना उन्हें प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना शिक्षा के लिए बड़े महानगरों में भेजना उनके रोजगार ख़ुदमुख़्तार बनने के लिए तवज्जो देना पैसा खर्च करना वहीं दूसरी तरफ़ बेटियों के दहेज़ के लिए क़र्ज़ कर लेंगे माँ-बाप मगर उन्हें बाहर भेजकर शिक्षा नहीं लेने देंगे उनके रोजगार ख़ुदमुख़्तार बनने के लिए पैसा खर्च करने में कंजूसी करेंगे, उनके हक़ नहीं देंगे… ये सब बातें ऊपरी हैं जो लिंग भेद के तहत हमें दिखाई देती हैं।

सिलसिला यहीं ख़त्म नहीं है…. समाज ने मर्द-औरत के लिए हर चीज़ तय कर दी है… लिबास भी तय हैं …रंग भी तय हैं…. फैसले करने के अधिकार भी तय हैं। एक औरत कैसा लिबास पहने तय है सबकी अलग अलग ड्रेस कोड हैं.. विधवा ,तलाक़शुदा ,कुंवारी, शादी-शुदा ,बुज़ुर्ग सबके लिए ड्रेसकोड बना दिए हैं जो इनसे बाहर जाएंगी उनके लिए आलोचना होगी….मर्द कभी भी कहीं भी किसी स्थिति में कुछ भी पहने वक़्त ज़रूरत आराम के हिसाब से….महिलाएं लड़कियाँ क्यों नहीं वक़्त ज़रूरत आराम के हिसाब से पहन सकती ?

औरतों को मिठाई की तरह ढक कर रखना चाहिए.. नहीं तो उनपर ग़र्द आएगी… ये ग़र्द क्या है ? मिठाई पर तो वातावरण ख़लां से ग़र्द आती है जिससे बचाने के लिए उसे ढकते हैं ….औरतों पर कौनसी ग़र्द आती है ? कहाँ से आती है जिससे उसे बचाना है… ? औरतों पर आने वाली ग़र्द है मर्दों की नज़र नियत हवस जो वातावरण में ख़लां में नहीं मर्दों की ज़हनियत में जमी है।

बच्चों के पैदा होते ही उनके लिबास और इस्तेमाल में आने वाली चींज़ों के रंग बाँट दिए जाते हैं, तय हैं लड़का कैसे रंग के कपड़े पहनेगा कैसे रंग की चींज़ें इस्तेमाल करेगा और किन चींज़ों से खेलेगा… लड़कियों के लिए भी ये चींज़ें रंग तय हैं… लड़कियों के लिए गुलाबी लाल फिरोज़ी रंग हैं लड़कों के लिए नीले हरे इत्यादि।

तलवार बंदूक से लड़के खेलेंगे कार से ,लड़कियों के लिए गुड़िया है…. मैं जो लिख रही हूँ शायद सब परिवार अब फॉलो नहीं करते इन ग़ैरबराबरियों लिंग भेद को…मगर अभी भी ये सब होता है …..अशिक्षित परिवारों में ग़रीब परिवारों में छोटे गाँव कस्बों में शहरों की डी ग्रेड कॉलोनी में आम बात हैं अभी भी। शिक्षित परिवारों में भी होता है कहीं क्योंकि बहुत से लोग शिक्षा पैसा कमाने के लिए प्रतिष्ठित होने के लिए प्राप्त करते हैं… शिक्षित होकर भी दक़ियानूसी हैं प्रगतिशील नहीं…. मेरे ही परिवार में मेरा भाई मेरी भाभी ज़ाकिर हुसैन से ग्रेजुएट हैं… मेरा भाई मल्टीनेशनल कंपनियों में काम कर चुका है कर रहा है… मगर मेरा भाई और भाभी बच्चों की परवरिश के दौरान ये बात ज़रूर याद रखते हैं बेटी के कपड़ों चींज़ों का रंग कैसा हो और बेटे की चींज़ों कपड़ों का रंग कैसा हो…मसलन ड्रेस मग कंघी कुर्सी स्कूल बैग साइकिल फोल्डर इत्यादि ….मेरे भाई का इंटरव्यू था इंटरव्यू में साथ जाने वाले दस्तावेज़ों को रखने के लिए उसने मुझसे भाभी से फोल्डर मंगवाया… हम चमकीला भड़कीला न लाकर बेबी पिंक कलर का लाए…भाई ने वापस करवा दिया लड़कियों का रंग क्यों लाए इससे इंटरव्यू में फ़र्क़ पड़ेगा….हम हरे रंग का ले आए…मैंने विरोध नहीं किया जबकि मुझे सही नहीं लगा…विरोध करती तो ग़लत ठहरा दी जाती…..हालांकि इंटरव्यू में हरे फोल्डर के बाद भी सिलेक्शन नहीं हुआ।

मैं पिछली ईद पर अपने भतीजे के लिए दो कुर्ते सिलवा कर ले गई थी एक आसमानी रंग का दूसरा हल्का गुलाबी रंग का दोनों हल्के सुफयाना रंग थे….भाभी ने मुझे तो कुछ नहीं कहा.. मगर बाबू को आसमानी कुर्ता तो पहनाती है गुलाबी नहीं… मैं जब भी बच्चों के लिए कुछ लाती हूँ तो वो मुझे रंग तय कर देती है मुआज़ की कुर्सी कैसे रंग की हो मिन्सा की कैसे रंग की….मेरे भतीजे को मेरा दिया गुलाबी कुर्ता ज़्यादा पसंद है वो अपनी माँ से मांगता है तो भाभी उसे बोलती है डरौनी (चूड़ैल) ले गई… मेरा भतीजा परेशान था ..बार -बार वही गुलाबी कुर्ता मांग रहा था…… कल उसने उसे घर में ढूंडना शुरू किया…. ऊपर जा रहा था स्टोर रूम में ढूंडने मुझसे बोला “फूप्पी मेरे साथ ऊपर चलो डर लगता है मुझे ऊपर कुछ काम है….” मैंने उसे कह दिया “काहे का डर ?” उसने कहा “फूप्पी चलो न ….” मैं मित्र मंडल की पोस्ट पढ़ रही थी….अजय सर ने अपनी मुंबई की तस्वीरें उसमें साझा की थीं…भूपेंद्र भाई रमन जी मयंक जी शैलू जी उन तस्वीरों में थे..मैं अपने अजय सर को देख रही थी ग़ौर से…क्योंकि उन्होंने हल्के गुलाबी रंग का कुर्ता पहन रखा था…. मैं सोच रही थी….सर भी तो मर्द हैं शिक्षित हैं, अध्यापक हैं,इतने अच्छे सुलझे इंसान जिनके समक्ष हमें कभी घुटन नहीं हुई…सर ने गुलाबी कुर्ता पहना है क्योंकि वो ख़ुदमुख़्तार हैं प्रगतिशील हैं रंगों के, मर्द औरत के भेदभाव नहीं मानते… मगर मेरा भतीजा अभी इन भेदभाव ग़ैरबराबरियों से दूर एक छोटा सा बच्चा है गुलाबी कुर्ता पहनना चाहता है मैं उसका साथ नहीं दे रही अपनी आलोचना के डर से….मैं ये सब सोच रही थी कि मुआज़ फिर आया मेरे पास “फूप्पी चलो अच्छा ऊपर न सही ज़िने में खड़ी हो जाओ मुझे ऊपर कुछ काम है…” मैं उसके साथ गई और ज़िने में खड़ी हो गई.. वो ऊपर गया ,मैं इंतज़ार में ज़िने में खड़ी थी कह रही थी “क्या करने गया है कितनी देर कर रहा है ज़ल्दी आ….” थोड़ी देर में वो गुलाबी कुर्ता लिए आया खुश होता हुआ..बोलता हुआ “फूप्पी देखो मैंने गुलाबी कुर्ता ढूंड लिया…” मैं देखती रह गई…. नीचे उसकी माँ भी गुस्से से घूर रही थी…उसने अपना आसमानी कुर्ता निकाला झट से गुलाबी पहना चश्मा लगाया बैग लटकाया साइकिल उठाई और स्टाईल मारता हुआ बाहर दादा के कमरे में आ गया.. मैं अंदर ही अंदर बहुत खुश हुई मगर अपनी खुशी ज़ाहिर नहीं की….भाभी कुछ नहीं बोली उसे गुस्से से देखती रही..मैं सोच रही हूँ भतीजे ने तो अपना रंग ढूंढ़ लिया अपनी चॉइस से मेरी भतीजी भी ढूंढ़ पाएगी की नहीं।

-मेहजबीं

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