बस्तर की पत्रकारिता का सच : इधर कुंआ उधर खाई

जहां बन्दूक की नोक पर है पत्रकारिता की आजादी

कथित जनयुद्ध करने वाले माओवादी भी डरते हैं पत्रकारों के सवालों से

आज विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है , इस दिवस का उद्देश्य प्रेस की आजादी के महत्व के प्रति जागरूकता फैलाना है और साथ ही ये दिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बनाए रखने और उसका सम्मान करने की प्रतिबद्धता को भी दोहराता है। आज विश्व भर में पत्रकारों को बधाई मिल रहा है ।

आईये आप आज के इस दिन के महत्व में बस्तर की पत्रकारिता को समझे । यहां माओवादियों ने पत्रकार साथियों सांईरेड्डी और नेमी चंद को मार डाला है , बीते विधान सभा चुनाव के दौरान दूरदर्शन के पत्रकार की मौत हुई । सैकड़ों बार पत्रकारों को पुलिस कैम्पो में या माओवादी दलों द्वारा रोककर प्रताड़ित किया जाते रहा है । पत्रकार प्रभात सिंह , संतोष यादव और सोमारू नाग को लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा , अभी भी कई पत्रकारों के खिलाफ फर्जी प्रकरण दर्ज है । आज के खास मौके पर आईये हम बीजापुर बस्तर के जीवट पत्रकार साथी युकेश चंद्राकर की आप बीती से बस्तर की पत्रकारिता के खतरों को समझने की कोशिश करें ।
सम्पादक


युकेश चंद्राकर
बीजापुर बस्तर

हम न्यूज़ रिपोर्टर्स की लाइफ़ भी न, खासकर बस्तर में बड़ी उलझी और पेचीदा होती है । कल क्या न्यूज़ बनाना है आज सुबह से ही प्लानिंग करनी पड़ती है उस पर घर परिवार की ज़िम्मेदारी अलग ।

जब मुद्दा हो बस्तर में पत्रकारिता का तब तो आप फंस ही गए समझ लीजिएगा । वो इसलिए क्योंकि यहां दो सरकारें समानांतर लेकिन विपरीत चलते हुए भी अपने बीच के गेप में आपकी पत्रकारिता को पीस देते हैं । ज़्यादा हुआ तो आपको भी नहीं बख्शा जाएगा । उदाहरण के तौर पर पत्रकार साईं रेड्डी को भरे बाजार में नक्सलियों ने बड़ी बेदर्दी से काट डाला था । क्योंकि बहुत समय पहले साईं पर नक्सल आरोप था कि वे नक्सलियों के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं । अब देखिये कि जब साईं ज़िंदा थे, उसी साईं रेड्डी को पुलिस ने नक्सलियों का साथ देने के आरोप में छत्तीसगढ़ राज्य जन सुरक्षा अधिनियम के तहत दो साल से अधिक समय के लिए जेल भेज दिया था । साईं बाहर निकले और दोबारा पत्रकारिता करने लगे और फिर एक दिन नक्सलियों ने उनकी हत्या कर दी ।

छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनावों का पहला दौर ख़त्म हो चुका है । अब न्यूज़ चैनल्स और अख़बारों में चुनावी खबरों से ज़्यादा जनसरोकार से जुडी खबरों का वक़्त लौट आया है । “खबरनवीसों की खूबी ही है तिल का ताड़ बनाना” ये कहीं न कहीं सुनने में आता ही है । “कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना” ये गीत गुन गुनाकर खुद को तसल्ली देना हमारा काम है ।
रिपोर्टिंग के लिए मैंने छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र बॉर्डर के किनारे बसे एक गाँव को पॉइंट कर लिया, क्योंकि यहां पुलिस भी जाने से बचती है । सुबह सुबह का वक़्त है । मेरे साथी कैमरा मैन देवेंद्र कावरे को मैंने बैग पैक करने को कहा और खुद रेडी होने लगा । कुछ ही समय में सब तैयारियां हो गईं और हम बाइक पे सवार होकर नेशनल हाइवे 63 पर तेज़ धूप में निकल पड़े ।

“बड़े लीडर मिल सकते हैं भैया, डर लग रहा है”
देवेंद्र ने अपना डर किसी तरह मेरे सामने रखा ।
मैं रुक सा गया और जवाब दिया – “चलो सफर का मज़ा लो”
15 किलोमीटर बाद नैमेड से बाएं चलने लगे, गर्म हवाओं के थपेड़े और आग लगा देने वाली धूप । रास्ते में कुछ दूर चलने पर एक पुल मिला जहां जवानों से भरी बस को नक्सलियों ने उड़ा दिया था, आज भी वहां धमाके के सबूत घटने की भयावहता बयान कर रहे हैं ।
मैं प्लानिंग कर रहा हूँ कि पूरे विश्व में लोग बस्तर को जानना चाहते हैं तो इस बार के न्यूज़ में कुछ छिपी सच्चाई दिखा सकूँ । थोड़ा और आगे बढ़ा तो 2014 याद आ गया, गाँव का नाम केतुलनार है । यहां नक्सलियों ने मतदान कर्मियों से भरी बस को उड़ा दिया था । इस इलाके को देखकर लग रहा था कि नक्सली किसी भी जगह को टारगेट कर सकते हैं ।

चलते चलते कुछ ही देर में हम कुटरू पहुँच गए, वही कुटरू जी, जिस इलाके से सलवा जुडूम शुरू हुआ था । हम 5 मिनट तक कुटरू में ही रुके रहे, थोड़ा आराम कर कच्चे रास्ते को बाइक से रौंदते हुए फिर सफर पे चल पड़े । चलते चलते रानीबोदली आ गए, रानीबोदली भूले तो नहीं ? जहां 55 जवानों को ज़िंदा जला दिया गया था । मेरी न्यूज़ प्लानिंग पूरी हो गई थी कुछ देर बाद हम दोनों फरसेगढ़ आ गए। यहां एक दुकान से कुछ केले और पानी लिया । बैठकर एक सिगरेट सुलगाई और पसीने को बहते हुए देखने लगा ।
“कितना किलोमीटर चलना है यहां से ?”
मैंने देवेंद्र से सवाल किया ।
“15 भैया”
वो बुरी तरह से डरा हुआ है तो मैंने उसे भांपते हुए कहा –
“चल”
हम दोबारा सफर पर हैं, मैं खुद बाइक राइड कर रहा हूँ ।
थोड़ा आगे जाने के बाद देवेंद्र चौंका ।
“अरे, इधर भी रोड बन रहा है !”
मैंने भी चुटकी ली…
“पैसा है तो मुमकिन है”
बातें करते करते हम एक उजड़े वीरान गाँव पहुंचे, घर ढहे हुए हैं इंसानों के नाम पर कोई परिंदा भी नहीं ! सलवा जुडूम का दौर, कितने गाँव उजड़े शायद सरकारी रिकॉर्ड सच बोलें मगर मुझे नहीं पता । लोगों के बेबसी पर सोचते सोचते हम एक जगह रुके, सामने बैरिकेट है लकड़ी का । बोर्ड है रास्ते के बीचों बीच । लेकिन रुके इसलिए क्योंकि दाएं से आवाज़ आई थी । कुछ देर स्थानीय आदिवासी ग्रामीणों से बात कर हम सागमेट्टा पहुंचे । यहां हम एक घर में रुके, तक़रीबन 2 बज रहे हैं और हमारे लिए खाना बन रहा है । मैं ग्रामीणों से बात करने लगा कि इस इलाके की रिपोर्टिंग के लिए आया हूँ तो वे बड़े घबरा गए । एक बुजुर्ग ने कहा इसके लिए नक्सलियों से परमिशन लेना पड़ेगा । मैंने बिना देरी किये गाँव के लीडर को बुलवाया ।

खाने से फुर्सत हुए और किसी के आने का इंतज़ार करने लगे । शाम 5.30 बजे नक्सलियों के दो बन्दे आए और मैंने सारी बात उनके सामने रख दी । उन्होंने मुस्कुराकर इनकार कर दिया और गोंडी बोली में आपस में कुछ बात करने लगे । बात ख़त्म हुई तो पता चला कि डीवीसी के नाम लेटर लिखना होगा, जब वे परमिशन देंगे तब हमें रिपोर्टिंग करनी होगी । मैंने पूछा अभी जवाब आ जायेगा उनका ? तो उन दोनों ने बताया कि आज की रात हमें रुकना होगा दूसरे दिन दोपहर या शाम तक जवाब आ जाएगा । मैंने उन्हें समझाया भी कि गणेश उइके ने पत्रकारों को बजना किसी डर के उनके आधार इलाके में रिपोर्टिंग कर सकते हैं मगर वे नहीं माने । मैंने उन्हें कहा कि जवाब आ जाए तो आप लोग मेरे पास सन्देश भिजवा दीजिये लेकिन अब निकलना होगा क्योंकि मुझे बहुत सारे काम भी हैं ।
ऐसे ही बस्तर के इन नक्सली इलाकों में रिपोर्टिंग नहीं कर रहे हम भी, जानते हैं नक्सल रणनीति । ये एक दिन कहेंगे और दो दिन बाद किसी एरिया कमांडर से मिला कर भेज देंगे । उसूर के नम्बी कवरेज के दौरान मेरे और भाई के सीने पर 5 और चारों तरफ से 17 बंदूकें नक्सलियों ने तानकर हमसे पूछताछ की थी । तब भी हमें कवरेज करने नहीं दिया गया था आज भी नहीं दिया जा रहा । ये है पत्रकारिता की आज़ादी !! माखौल बना कर रख दिया गया है ! मतलब ये कि, जब नक्सली चाहेंगे प्रेस नोट जारी करेंगे और वही हमें छापना है ? कई बार मैंने उनसे मुलाकात कर कैमरे के सामने इंटरव्यू देने को कहा लेकिन सिर्फ एक बार एक नक्सल लीडर ने दूसरे लीडर के कहने पर मुझे इंटरव्यू दिया था । खैर ! फिलहाल कुछ सवाल ज़ेहन में कुलबुला रहे हैं ।

क्या नक्सली पत्रकारों के सवालों से डरते हैं ?
क्या नक्सली नहीं चाहते कि पत्रकार आज़ाद होकर काम कर सकें ?
क्या नक्सली नहीं चाहते कि सच जस का तस सबके सामने आए ?

मैं समझता हूँ कि ये नहीं होना चाहिए । ये दुर्भाग्यपूर्ण है । पत्रकारों से उनका हक छीनने का हक़ नक्सलियों को क्या उनकी बंदूकों ने दिया है जो कि बारूदी धुएं में सांस ले रहे आदिवासियों का पूरा सच वे सामने नहीं आने देना चाहते ?
ये गलत है, नक्सलियों को पत्रकारिता पर से बंदूक और नीचे से बम निकालना होगा और हाँ एक पत्रकार के गर्दन पर से अपने “धारधार” हथियार भी । नहीं तो हम कलम-कैमरा-माइक के सिपाही कब तक ख़ामोशी से ये सब सहते रहेंगे ? क्यों कोई हमारी आज़ादी हमारा हक़ छीने ? नक्सली भाइयों-बहनों से अपील है कि जो पत्रकार सच के साथ निर्भीक आपके आधार इलाके में आ रहे हैं उन्हें स्वतंत्र पत्रकारिता करने दो, सच को सामने आने दो । क्या है कि घड़ा भर जाता है तो पानी ऊपर से छलकने लगता है कहीं हमारे सब्र का भी बाँध न टूट जाए । हमारे आंदोलनों से आप सब बखूबी वाकिफ हैं ।

बीजापुर बस्तर से युकेश चंद्राकर की रिपोर्ट

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